गुरुवार, 17 मार्च 2011

समाज हिन्दी भाषा का महत्व समझे


सुना है अब इंटरनेट में लैटिन के साथ ही देवनागरी में भी खोज सुगम होने वाली है। यह एक अच्छी खबर है मगर इससे हिंदी भाषा के पढ़ने और लिखने वालों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ जायेगी, यह आशा करना एकदम गलत होगा। सच तो यह है कि अगर देवनागरी में खोज सुगम हुई भी तो भी इसी मंथर गति से ही हिंदी लेखन और पठन में बढ़ोतरी होगी जैसे अब हो रही है। हिंदी को लेकर जितनी उछलकूल दिखती है उतनी वास्तविकता जमीन पर नहीं है। सच कहें तो कभी कभी तो लगता है कि हम हिंदी में इसलिये लिख पढ़े रहे हैं क्योंकि अंग्रेजी हमारे समझ में नहीं आती। हम हिंदी में लिख पढ़ते भी इसलिये भी है ताकि जैसा लेखक ने लिखा है वैसा ही समझ में आये। वरना तो जिनको थोड़ी बहुत अंग्रेजी आती है उनको तो हिंदी में लिखा दोयम दर्जे का लगता है। वैसे अंतर्जाल पर हम लोगों की अंग्रेजी देखने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे है कि लोगों की अंग्रेजी भी कोई परिपक्व है इस पर विश्वास नहीं करना चाहिए-क्योंकि बात समझ में आ गयी तो फिर कौन उसका व्याकरण देखता है और अगर दूसरे ढंग से भी समझा तो कौन परख सकता है कि उसने वैसा ही पढ़ा जैसा लिखा गया था। बहरहाल अंग्रेजी के प्रति मोह लोगों का इसलिये अधिक नहीं है कि उसमें बहुत कुछ लिखा गया है बल्कि वह दिखाते हैं ताकि लोग उनको पढ़ालिखा इंसान समझें।
‘आप इतना पढ़ें लिखें हैं फिर भी आपको अंग्रेजी नहीं आती-‘’हिंदी में पढ़े लिखे एक सज्जन से उनके पहचान वाले लड़के ने कहा’‘-हमें तो आती है, क्योंकि अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हैं न!’
मध्यम वर्ग की यह नयी पीढ़ी हिंदी के प्रति रुझान दिखाने की बजाय उसकी उपेक्षा में आधुनिकता का बोध इस तरह कराती है जैसे कि ‘नयी भारतीय सभ्यता’ का यह एक एक प्रतीक हो।
जैसे जैसे हिंदी भाषी क्षेत्रों में सरकारी क्षेत्र के विद्यालयों और महाविद्यालयों के प्रति लोगों का रुझान कम हुआ है-निजी क्षेत्र में अंग्रेजी की शिक्षा का प्रसार बढ़ा है। एक दौर था जब सरकारी विद्यालयों में प्रवेश पाना ही एक विजय समझा जाता था-उस समय निजी क्षेत्र के छात्रों को फुरसतिया समझा जाता था। उस समय के दौर के विद्यार्थियों ने हिंदी का अध्ययन अच्छी तरह किया। शायद उनमें से ही अब ऐसे लोग हैं जो हिंदी में लेखन बेहतर ढंग से करते हैं। अब अगर हिंदी अच्छे लिखेंगे तो वही लोग जिनके माता पिता फीस के कारण अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के निजी विद्यालयों में नहीं पढ़ा सकते और सरकारी विद्यालयों में ही जो अपना भविष्य बनाने जाते हैं।
एक समय इस लेखक ने अंग्रेजी के एक प्रसिद्ध स्तंभकार श्री खुशवंत सिंह के इस बयान पर विरोध करते हुए एक अखबार में पत्र तक लिख डाला‘जिसमें उन्होंने कहा था कि हिंदी गरीब भाषा है।’
बाद में पता लगा कि उन्होंने ऐसा नहीं कहा बल्कि उनका आशय था कि ‘हिन्दुस्तान में हिंदी गरीबों की भाषा है’। तब अखबार वालों पर भरोसा था इसलिये मानते थे कि उन्होंने ऐसा कहा होगा पर अब जब अपनी आंखों के सामने बयानों की तोड़मोड़ देख रहे हैं तो मानना पड़ता है कि ऐसा ही हुआ होगा। बहरहाल यह लेखक उनकी आलोचना के लिये अब क्षमाप्रार्थी है क्योंकि अब यह लगने लगा है कि वाकई हिंदी गरीबों की भाषा है। इन्हीं अल्पधनी परिवारों में ही हिंदी का अब भविष्य निर्भर है इसमें संदेह नहीं और यह आशा करना भी बुरा नहीं कि आगे इसका प्रसार अंतर्जाल पर बढ़ेगा, क्योंकि यही वर्ग हमारे देश में सबसे बड़ा है।

समस्या यह है कि इस समय कितने लोग हैं जो अब तक विलासिता की शय समझे जा रहे अंतर्जाल पर सक्रिय होंगे या उसका खर्च वहन कर सकते हैं। इस समय तो धनी, उच्च मध्यम, सामान्य मध्यम वर्ग तथा निम्न मध्यम वर्ग के लोगों के लिये ही यह एक ऐसी सुविधा है जिसका वह प्रयोग कर रहे हैं और इनमें अधिकतर की नयी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम से शिक्षित है। जब हम अंतर्जाल की बात करते हैं तो इन्हीं वर्गों में सक्रिय प्रयोक्ताओं से अभी वास्ता पड़ता है और उनके लिये अभी भी अंग्रेजी पढ़ना ही एक ‘फैशनेबल’ बात है। ऐसे में भले ही सर्च इंजिनों में भले ही देवनागरी करण हो जाये पर लोगों की आदत ऐसे नहीं जायेगी। अभी क्या गूगल हिंदी के लिये कम सुविधा दे रहा है। उसके ईमेल पर भी हिंदी की सुविधा है। ब्लाग स्पाट पर हिंदी लिखने की सुविधा का उपयेाग करते हुए अनेक लोगों को तीन साल का समय हो गया है। अगर हिंदी में लिखने की इच्छा वाले पूरा समाज होता तो क्या इतने कम ब्लाग लेखक होते? पढ़ने वालों का आंकड़ा भी कोई गुणात्मक वुद्धि नहीं दर्शा रहा।
गूगल के ईमेल पर हिंदी लिखने की सुविधा की चर्चा करने पर एक नवयौवना का जवाब बड़ा अच्छा था-‘अंकल हम उसका यूज (उपयोग) नहीं करते, हमारे मोस्टली (अधिकतर) फ्रैंड्स हिंदी नहीं समझते। हिंदी भी उनको इंग्लिश (रोमन लिपि) में लिखना पसंद है। सभी अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हैं। जो हिंदी वाले भी हैं वह भी इससे नहीं लिखते।’
ऐसे लोगों को समझाना कठिन है। कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदी की कितनी भी सुविधा अंतर्जाल पर आ जाये उसका लाभ तब तक नहीं है जब तक उसे सामान्य समाज की आदत नहीं बनाया जाता। इसका दूसरा मार्ग यह है कि इंटरनेट कनेक्शन सस्ते हो जायें तो अल्प धन वाला वर्ग भी इससे जुड़ेे जिसके बच्चों को हिंदी माध्यम में शिक्षा मजबूरीवश लेनी पड़ रही है। यकीनन इसी वर्ग के हिंदी भाषा का भविष्य को समृद्ध करेगा। ऐसा नहीं कि उच्च वर्ग में हिंदी प्रेम करने वाले नहीं है-अगर ऐसा होता तो इस समय इतने लिखने वाले नहीं होते-पर उनकी संख्या कम है। ऐसा लिखने वाले निरंकार भाव से लिख रहे हैं पर उनके सामने जो समाज है वह अहंकार भाव से फैशन की राह पर चलकर अपने को श्रेष्ठ समझता है जिसमे हिंदी से मूंह फेरना एक प्रतीक माना जाता है।

मंगलवार, 15 मार्च 2011

आर्य (Arya)

आर्य (Arya)

हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी

भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां
संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है

यह पुण्य भूमि प्रसिद्घ है, इसके निवासी आर्य हैं
विद्या कला कौशल्य सबके, जो प्रथम आचार्य हैं
संतान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े
पर चिन्ह उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े

वे आर्य ही थे जो कभी, अपने लिये जीते न थे
वे स्वार्थ रत हो मोह की, मदिरा कभी पीते न थे
वे मंदिनी तल में, सुकृति के बीज बोते थे सदा
परदुःख देख दयालुता से, द्रवित होते थे सदा

संसार के उपकार हित, जब जन्म लेते थे सभी
निश्चेष्ट हो कर किस तरह से, बैठ सकते थे कभी
फैला यहीं से ज्ञान का, आलोक सब संसार में
जागी यहीं थी, जग रही जो ज्योति अब संसार में

वे मोह बंधन मुक्त थे, स्वच्छंद थे स्वाधीन थे
सम्पूर्ण सुख संयुक्त थे, वे शांति शिखरासीन थे
मन से, वचन से, कर्म से, वे प्रभु भजन में लीन थे
विख्यात ब्रह्मानंद नद के, वे मनोहर मीन थे

 - मैथिलीशरण गुप्त (Maithili Sharan Gupt)

किसको नमन करूँ मैं भारत (Kisko Naman Karu Mein Bharat?)

किसको नमन करूँ मैं भारत (Kisko Naman Karu Mein Bharat?)

तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ?
मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ?
किसको नमन करूँ मैं भारत ? किसको नमन करूँ मैं ?

भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है ?
नर के नभश्चरण की दृढ़ कल्पना नहीं क्या तू है ?
भेदों का ज्ञाता, निगूढ़ताओं का चिर ज्ञानी है
मेरे प्यारे देश ! नहीं तू पत्थर है, पानी है
जड़ताओं में छिपे किसी चेतन को नमन करूँ मैं ?

भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है
एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है
जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है
देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है
निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं !

खंडित है यह मही शैल से, सरिता से सागर से
पर, जब भी दो हाथ निकल मिलते आ द्वीपांतर से
तब खाई को पाट शून्य में महामोद मचता है
दो द्वीपों के बीच सेतु यह भारत ही रचता है
मंगलमय यह महासेतु-बंधन को नमन करूँ मैं !

दो हृदय के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं
मित्र-भाव की ओर विश्व की गति को मोड़ रहे हैं
घोल रहे हैं जो जीवन-सरिता में प्रेम-रसायन
खोर रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन
आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को नमन करूँ मैं !

उठे जहाँ भी घोष शांति का, भारत, स्वर तेरा है
धर्म-दीप हो जिसके भी कर में वह नर तेरा है
तेरा है वह वीर, सत्य पर जो अड़ने आता है
किसी न्याय के लिए प्राण अर्पित करने जाता है
मानवता के इस ललाट-वंदन को नमन करूँ मैं !

- रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar)

विजयी के सदृश जियो रे (Vijayi Ke Sadrish Jiyo Re)

विजयी के सदृश जियो रे (Vijayi Ke Sadrish Jiyo Re)

वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो
चट्टानों की छाती से दूध निकालो
है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो
पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो

चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे
योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे

जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है
चिनगी बन फूलों का पराग जलता है
सौन्दर्य बोध बन नयी आग जलता है
ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है

अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे
गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे

जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है
भामिनी वही तरुणी नर वही तरुण है
है वही प्रेम जिसकी तरंग उच्छल है
वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है

उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है
तलवार प्रेम से और तेज होती है

छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये
मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाये

दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है
मरता है जो एक ही बार मरता है

तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे
जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे

स्वातंत्र्य जाति की लगन व्यक्ति की धुन है
बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है
वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे
जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे
जब कभी अहम पर नियति चोट देती है
कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है
नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है
वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है

चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे
धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे

उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है
सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है
विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिंतन है
जीवन का अंतिम ध्येय स्वयं जीवन है
सबसे स्वतंत्र रस जो भी अनघ पियेगा
पूरा जीवन केवल वह वीर जियेगा!

- रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar)

परिचय (Parichay)

परिचय (Parichay)

सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं
बँधा हूँ, स्वपन हूँ, लघु वृत हूँ मैं
नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं
समाना चाहता है, जो बीन उर में
विकल उस शुन्य की झनंकार हूँ मैं
भटकता खोजता हूँ, ज्योति तम में
सुना है ज्योति का आगार हूँ मैं
जिसे निशि खोजती तारे जलाकर
उसीका कर रहा अभिसार हूँ मैं
जनम कर मर चुका सौ बार लेकिन
अगम का पा सका क्या पार हूँ मैं
कली की पंखडीं पर ओस-कण में
रंगीले स्वपन का संसार हूँ मैं
मुझे क्या आज ही या कल झरुँ मैं
सुमन हूँ, एक लघु उपहार हूँ मैं
मधुर जीवन हुआ कुछ प्राण! जब से
लगा ढोने व्यथा का भार हूँ मैं
रुंदन अनमोल धन कवि का, इसी से
पिरोता आँसुओं का हार हूँ मैं
मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का
चिता का धूलिकण हूँ, क्षार हूँ मैं
पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी
समा जिस्में चुका सौ बार हूँ मैं
न देंखे विश्व, पर मुझको घृणा से
मनुज हूँ, सृष्टि का श्रृंगार हूँ मैं
पुजारिन, धुलि से मुझको उठा ले
तुम्हारे देवता का हार हूँ मैं
सुनुँ क्या सिंधु, मैं गर्जन तुम्हारा
स्वयं युग-धर्म की हुँकार हूँ मैं
कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का
प्रलय-गांडीव की टंकार हूँ मैं
दबी सी आग हूँ भीषण क्षुधा का
दलित का मौन हाहाकार हूँ मैं
सजग संसार, तू निज को सम्हाले
प्रलय का क्षुब्ध पारावार हूँ मैं
बंधा तुफान हूँ, चलना मना है
बँधी उद्याम निर्झर-धार हूँ मैं
कहूँ क्या कौन हूँ, क्या आग मेरी
बँधी है लेखनी, लाचार हूँ मैं ।।

- रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar)

आग की भीख (Aag Ki Bheek)

आग की भीख (Aag Ki Bheek)
धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है
मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है
दाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे
प्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँ
चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ
बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है
मँझदार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा
तमवेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ
ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ
आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है
बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ डेर हो रहा है
है रो रही जवानी, अँधेर हो रहा है
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है
पंचास्यनाद भीषण, विकराल माँगता हूँ
जड़ताविनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ
मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है
अरमान आरजू की लाशें निकल रही हैं
भीगी खुशी पलों में रातें गुज़ारते हैं
सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं
इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ
आँसू भरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे
मेरे शमशान में आ श्रंगी जरा बजा दे
फिर एक तीर सीनों के आरपार कर दे
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नयी दे
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ
बेचैन जिन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ
ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे
जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे
हम दे चुके लहु हैं, तू देवता विभा दे
अपने अनलविशिख से आकाश जगमगा दे
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ
तेरी दया विपद् में भगवान माँगता हूँ

- रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar)

कलम, आज उनकी जय बोल (Kalam Aaj Unki Jai Bol)

कलम, आज उनकी जय बोल

जो अगणित लघु दीप हमारे
तुफानों में एक किनारे
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन
मांगा नहीं स्नेह मुंह खोल
कलम, आज उनकी जय बोल
पीकर जिनकी लाल शिखाएं
उगल रही लपट दिशाएं
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल
कलम, आज उनकी जय बोल

- रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar)