सूरदास की रचनाएँ
| 1 |
| अंखियां हरि-दरसन की प्यासी। |
| देख्यौ चाहति कमलनैन कौ¸ निसि-दिन रहति उदासी।। |
| आए ऊधै फिरि गए आंगन¸ डारि गए गर फांसी। |
| केसरि तिलक मोतिन की माला¸ वृन्दावन के बासी।। |
| काहू के मन को कोउ न जानत¸ लोगन के मन हांसी। |
| सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौ¸ करवत लैहौं कासी।। |
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| 2 |
| निसिदिन बरसत नैन हमारे। |
| सदा रहत पावस ऋतु हम पर, जबते स्याम सिधारे।। |
| अंजन थिर न रहत अँखियन में, कर कपोल भये कारे। |
| कंचुकि-पट सूखत नहिं कबहुँ, उर बिच बहत पनारे॥ |
| आँसू सलिल भये पग थाके, बहे जात सित तारे। |
| ‘सूरदास’ अब डूबत है ब्रज, काहे न लेत उबारे॥ |
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| 3 |
| मधुकर! स्याम हमारे चोर। |
| मन हरि लियो सांवरी सूरत¸ चितै नयन की कोर।। |
| पकरयो तेहि हिरदय उर-अंतर प्रेम-प्रीत के जोर। |
| गए छुड़ाय छोरि सब बंधन दे गए हंसनि अंकोर।। |
| सोबत तें हम उचकी परी हैं दूत मिल्यो मोहिं भोर। |
| सूर¸ स्याम मुसकाहि मेरो सर्वस सै गए नंद किसोर।। |
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| 4 |
| बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजैं। |
| तब ये लता लगति अति सीतल¸ अब भई विषम ज्वाल की पुंजैं। |
| बृथा बहति जमुना¸ खग बोलत¸ बृथा कमल फूलैं अलि गुंजैं। |
| पवन¸ पानी¸ धनसार¸ संजीवनि दधिसुत किरनभानु भई भुंजैं। |
| ये ऊधो कहियो माधव सों¸ बिरह करद करि मारत लुंजैं। |
| सूरदास प्रभु को मग जोवत¸ अंखियां भई बरन ज्यौं गुजैं। |
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| 5 |
| प्रीति करि काहू सुख न लह्यो। |
| प्रीति पतंग करी दीपक सों आपै प्रान दह्यो।। |
| अलिसुत प्रीति करी जलसुत सों¸ संपति हाथ गह्यो। |
| सारंग प्रीति करी जो नाद सों¸ सन्मुख बान सह्यो।। |
| हम जो प्रीति करी माधव सों¸ चलत न कछू कह्यो। |
| ‘सूरदास’ प्रभु बिन दुख दूनो¸ नैननि नीर बह्यो।। |
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| 6 राग गौरी |
| कहियौ, नंद कठोर भये। |
| हम दोउ बीरैं डारि परघरै, मानो थाती सौंपि गये॥ |
| तनक-तनक तैं पालि बड़े किये, बहुतै सुख दिखराये। |
| गो चारन कों चालत हमारे पीछे कोसक धाये॥ |
| ये बसुदेव देवकी हमसों कहत आपने जाये। |
| बहुरि बिधाता जसुमतिजू के हमहिं न गोद खिलाये॥ |
| कौन काज यहि राजनगरि कौ, सब सुख सों सुख पाये। |
| सूरदास, ब्रज समाधान करु, आजु-काल्हि हम आये॥ |
| भावार्थ :- श्रीकृष्ण अपने परम ज्ञानी सखा उद्धव को मोहान्ध ब्रजवासियों में ज्ञान प्रचार करने के लिए भेज रहे हैं। इस पद में नंद बाबा के प्रति संदेश भेजा है। कहते है:- “बाबा , तुम इतने कठोर हो गये हो कि हम दोनों भाइयों को पराये घर में धरोहर की भांति सौंप कर चले गए। जब हम जरा-जरा से थे, तभी से तुमने हमें पाल-पोसकर बड़ा किया, अनेक सुख दिए। वे बातें भूलने की नहीं। जब हम गाय चराने जाते थे, तब तुम एक कोस तक हमारे पीछे-पीछे दौड़ते चले आते थे। हम तो बाबा, सब तरह से तुम्हारे ही है। पर वसुदेव और देवकी का अनधिकार तो देखो। ये लोग नंद-यशोदा के कृष्ण-बलराम को आज “अपने जाये पूत” कहते हैं। वह दिन कब होगा, जब हमें यशोदा मैया फिर अपनी गोद में खिलायेंगी। इस राजनगरी, मथुरा के सुख को लेकर क्या करें ! हमें तो अपने ब्रज में ही सब प्रकार का सूख था। उद्धव, तुम उन सबको अच्छी तरह से समझा-बुझा देना, और कहना कि दो-चार दिन में हम अवश्य आयेंगे।” |
| शब्दार्थ :- बीरैं =भाइयों को। परघरै =दूसरे के घर में। थाती = धरोहर। तनक-तनक तें =छुटपन से। कोसक =एक कोस तक। समाधान =सझना, शांति |
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| 7 राग सारंग |
| नीके रहियौ जसुमति मैया। |
| आवहिंगे दिन चारि पांच में हम हलधर दोउ भैया॥ |
| जा दिन तें हम तुम तें बिछुरै, कह्यौ न कोउ `कन्हैया’। |
| कबहुं प्रात न कियौ कलेवा, सांझ न पीन्हीं पैया॥ |
| वंशी बैत विषान दैखियौ द्वार अबेर सबेरो। |
| लै जिनि जाइ चुराइ राधिका कछुक खिलौना मेरो॥ |
| कहियौ जाइ नंद बाबा सों, बहुत निठुर मन कीन्हौं। |
| सूरदास, पहुंचाइ मधुपुरी बहुरि न सोधौ लीन्हौं॥ |
| भावार्थ :- `कह्यौ न कोउ कन्हैया’ यहां मथुरा में तो सब लोग कृष्ण और यदुराज के नाम से पुकारते है, मेरा प्यार का `कन्हैया’ नाम कोई नहीं लेता। `लै जिनि जाइ चुराइ राधिका’ राधिका के प्रति 12 बर्ष के कुमार कृष्ण का निर्मल प्रेम था,यह इस पंक्ति से स्पष्ट हो जाता है।राधा कहीं मेरा खिलौना न चुरा ले जाय, कैसी बालको-चित सरलोक्ति है। |
| शब्दार्थ :- नीके रहियौ = कोई चिम्ता न करना। न पीन्हीं पैया = ताजे दूध की धार पीने को नहीं मिली। बिषान = सींग, (बजाने का)। अबेर सबेरी = समय-असमय, बीच-बीच में जब अवसर मिले। सोधौ =खबर भी |
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| 8 राग देश |
| जोग ठगौरी ब्रज न बिकहै। |
| यह ब्योपार तिहारो ऊधौ, ऐसोई फिरि जैहै॥ |
| यह जापे लै आये हौ मधुकर, ताके उर न समैहै। |
| दाख छांडि कैं कटुक निबौरी को अपने मुख खैहै॥ |
| मूरी के पातन के कैना को मुकताहल दैहै। |
| सूरदास, प्रभु गुनहिं छांड़िकै को निरगुन निरबैहै॥ |
| भावार्थ :- उद्धव ने कृष्ण-विरहिणी ब्रजांगनाओं को योगभ्यास द्वारा निराकार ब्रह्म का साक्षात्कार करने के लिए जब उपदेश दिया, तो वे ब्रजवल्लभ उपासिनी गोपियां कहती हैं कि इस ब्रज में तुम्हारे योग का सौदा बिकने का नहीं। जिन्होंने सगुण ब्रह्म कृष्ण का प्रेम-रस-पान कर लिया, उन्हें तुम्हारे नीरस निर्गुण ब्रह्म की बातें भला क्यों पसन्द आने लगीं ! अंगूर छोड़कर कौन मूर्ख निबोरियां खायगा ? मोतियों को देकर कौन मूढ़ बदले में मूली के पत्ते खरीदेगा ? योग का यह ठग व्यवसाय प्रेमभूमि ब्रज में चलने का नहीं। |
| शब्दार्थ :- ठगौरी = ठगी का सौदा। एसोइ फिरि जैहैं = योंही बिना बेचे वापस ले जाना होगा। जापै = जिसके लिए। उर न समैहै = हृदय में न आएगा। निबौरी =नींम का फल। मूरी = मूली। केना =अनाज के रूप में साग-भाजी की कीमत, जिसे देहात में कहीं-कहीं देकर मामूली तरकारियां खरीदते थे। मुकताहल = मोती। निर्गुन =सत्य, रज और तमोगुण से रहित निराकार ब्रह्म |
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| 9 राग टोडी |
| ऊधो, होहु इहां तैं न्यारे। |
| तुमहिं देखि तन अधिक तपत है, अरु नयननि के तारे॥ |
| अपनो जोग सैंति किन राखत, इहां देत कत डारे। |
| तुम्हरे हित अपने मुख करिहैं, मीठे तें नहिं खारे॥ |
| हम गिरिधर के नाम गुननि बस, और काहि उर धारे। |
| सूरदास, हम सबै एकमत तुम सब खोटे कारे॥ |
| भावार्थ :- `तुमहि…..तारे,’ तुम जले पर और जलाते हो, एक तो कृष्ण की विरहाग्नि से हम योंही जली जाती है उस पर तुम योग की दाहक बातें सुना रहे हो। आंखें योंही जल रही है। हमारे जिन नेत्रों में प्यारे कृष्ण बस रहे हैं, उनमें तुम निर्गुण निराकार ब्रह्म बसाने को कह रहे हो। `अपनो….डारें’, तुम्हारा योग-शास्त्र तो एक बहुमूल्य वस्तु है, उसे हम जैसी गंवार गोपियों के आगे क्यों व्यर्थ बरबाद कर रहे हो। `तुम्हारे….खारे,’ तुम्हारे लिए हम अपने मीठे को खारा नहीं कर सकतीं, प्यारे मोहन की मीठी याद को छोड़कर तुम्हारे नीरस निर्गुण ज्ञान का आस्वादन भला हम क्यों करने चलीं ? |
| शब्दार्थ :- न्यारे होहु = चले जाओ। सैंति = भली-भांति संचित करके।खोटे = बुरे |
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| 10 राग केदारा |
| फिर फिर कहा सिखावत बात। प्रात काल उठि देखत ऊधो, घर घर माखन खात॥ जाकी बात कहत हौ हम सों, सो है हम तैं दूरि। इहं हैं निकट जसोदानन्दन प्रान-सजीवनि भूरि॥ बालक संग लियें दधि चोरत, खात खवावत डोलत। सूर, सीस नीचैं कत नावत, अब नहिं बोलत॥ |
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| 11 राग रामकली |
| उधो, मन नाहीं दस बीस। |
| एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस॥ |
| सिथिल भईं सबहीं माधौ बिनु जथा देह बिनु सीस। |
| स्वासा अटकिरही आसा लगि, जीवहिं कोटि बरीस॥ |
| तुम तौ सखा स्यामसुन्दर के, सकल जोग के ईस। |
| सूरदास, रसिकन की बतियां पुरवौ मन जगदीस॥ |
| टिप्पणी :- गोपियां कहती है, `मन तो हमारा एक ही है, दस-बीस मन तो हैं नहीं कि एक को किसी के लगा दें और दूसरे को किसी और में। अब वह भी नहीं है, कृष्ण के साथ अब वह भी चला गया। तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म की उपासना अब किस मन से करें ?” `स्वासा….बरीस,’ गोपियां कहती हैं,”यों तो हम बिना सिर की-सी हो गई हैं, हम कृष्ण वियोगिनी हैं, तो भी श्याम-मिलन की आशा में इस सिर-विहीन शरीर में हम अपने प्राणों को करोड़ों वर्ष रख सकती हैं।” `सकल जोग के ईस’ क्या कहना, तुम तो योगियों में भी शिरोमणि हो। यह व्यंग्य है। |
| शब्दार्थ :- हुतो =था। अवराधै = आराधना करे, उपासना करे। ईस =निर्गुण ईश्वर। सिथिल भईं = निष्प्राण सी हो गई हैं। स्वासा = श्वास, प्राण। बरीश = वर्ष का अपभ्रंश। पुरवौ मन = मन की इच्छा पूरी करो |
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| 12 राग टोडी |
| अंखियां हरि-दरसन की भूखी। |
| कैसे रहैं रूप-रस रांची ये बतियां सुनि रूखी॥ |
| अवधि गनत इकटक मग जोवत तब ये तौ नहिं झूखी। |
| अब इन जोग संदेसनि ऊधो, अति अकुलानी दूखी॥ |
| बारक वह मुख फेरि दिखावहुदुहि पय पिवत पतूखी। |
| सूर, जोग जनि नाव चलावहु ये सरिता हैं सूखी॥ |
| भावार्थ :- `अंखियां… रूखी,’ जिन आंखों में हरि-दर्शन की भूल लगी हुई है, जो रूप- रस मे रंगी जा चुकी हैं, उनकी तृप्ति योग की नीरस बातों से कैसे हो सकती है ? `अवधि…..दूखी,’ इतनी अधिक खीझ इन आंखों को पहले नहीं हुई थी, क्योंकि श्रीकृष्ण के आने की प्रतीक्षा में अबतक पथ जोहा करती थीं। पर उद्धव, तुम्हारे इन योग के संदेशों से इनका दुःख बहुत बढ़ गया है। `जोग जनि…सूखी,’ अपने योग की नाव तुम कहां चलाने आए हो? सूखी रेत की नदियों में भी कहीं नाव चला करती है? हम विरहिणी ब्रजांगनाओं को क्यों योग के संदेश देकर पीड़ित करते हो ? हम तुम्हारे योग की अधिकारिणी नहीं हैं। |
| शब्दार्थ :- रांची =रंगी हुईं अनुरूप। अवधि = नियत समय। झूखी = दुःख से पछताई खीजी। दुःखी =दुःखित हुई। बारक =एक बार। पतूखी =पत्तेश का छोटा-सा दाना |
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| 13 राग मलार |
| ऊधो, हम लायक सिख दीजै। |
| यह उपदेस अगिनि तै तातो, कहो कौन बिधि कीजै॥ |
| तुमहीं कहौ, इहां इतननि में सीखनहारी को है। |
| जोगी जती रहित माया तैं तिनहीं यह मत सोहै॥ |
| कहा सुनत बिपरीत लोक में यह सब कोई कैहै। |
| देखौ धौं अपने मन सब कोई तुमहीं दूषन दैहै॥ |
| चंदन अगरु सुगंध जे लेपत, का विभूति तन छाजै। |
| सूर, कहौ सोभा क्यों पावै आंखि आंधरी आंजै॥ |
| भावार्थ :- `हम लायक,’ हमारे योग्य, हमारे काम की। अधिकारी देखकर उपदेश दो। `कहौ …कीजै,’ तुम्हीं बताओ, इसे किस तरह ग्रहण करे ? `विपरीत’ उलटा, स्त्रियों को भी कठिन योगाभ्यास की शिक्षा दी जा रही है, यह विपरीत बात सुनकर संसार क्या कहेगा ? `आंखि आंधरी आंजै’ अंधी स्त्री यदि आंखों में काजल लगाए तो क्या वह उसे शोभा देगा ? इसी प्रकार चंदन और कपूर का लेप करने वाली कोई स्त्री शरीर पर भस्म रमा ले तो क्या वह शोभा पायेगी ? |
| शब्दार्थ :- सिख = शिक्षा, उपदेश। तातो =गरम। जती =यति, संन्यासी। यह मत सोहै = यह निर्गुणवाद शोभा देता है। कैहै =कहेगा। चंदन अगरु = मलयागिर चंदन विभूति =भस्म, भभूत। छाजै =सोहती है |
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| 14 राग सारंग |
| ऊधो, मन माने की बात। |
| दाख छुहारो छांड़ि अमृतफल, बिषकीरा बिष खात॥ |
| जो चकोर कों देइ कपूर कोउ, तजि अंगार अघात। |
| मधुप करत घर कोरि काठ में, बंधत कमल के पात॥ |
| ज्यों पतंग हित जानि आपुनो दीपक सो लपटात। |
| सूरदास, जाकौ जासों हित, सोई ताहि सुहात॥ |
| टिप्पणी :- `अंगार अघात,’ तजि अंगार न अघात’ भी पाठ है उसका भी यही अर्थ होता है, अर्थात अंगार को छोड़कर दूसरी चीजों से उसे तृप्ति नहीं होती। `तजि अंगार कि अघात’ भी एक पाठान्तर है। उसका भी यही अर्थ है। |
| शब्दार्थ :- `अंगार अघात,’ =अंगारों से तृप्त होता है , प्रवाद है कि चकोर पक्षी अंगार चबा जाता है। कोरि =छेदकर। पात =पत्ता |
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| 15 राग काफी |
| निरगुन कौन देश कौ बासी। |
| मधुकर, कहि समुझाइ, सौंह दै बूझति सांच न हांसी॥ |
| को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि को दासी। |
| कैसो बरन, भेष है कैसो, केहि रस में अभिलाषी॥ |
| पावैगो पुनि कियो आपुनो जो रे कहैगो गांसी। |
| सुनत मौन ह्वै रह्यौ ठगो-सौ सूर सबै मति नासी॥ |
| टिप्पणी :- गोपियां ऐसे ब्रह्म की उपासिकाएं हैं, जो उनके लोक में उन्हीं के समान रहता हो, जिनके पिता भी हो, माता भी हो और स्त्री तथा दासी भी हो। उसका सुन्दर वर्ण भी हो, वेश भी मनमोहक हो और स्वभाव भी सरस हो। इसी लिए वे उद्धव से पूछती हैं, ” अच्छी बात है, हम तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म से प्रीति जोड़ लेंगी, पर इससे पहले हम तुम्हारे उस निर्गुण का कुछ परिचय चाहती हैं। वह किस देश का रने वाला है, उसके पिता का क्या नाम है, उसकी माता कौन है, कोई उसकी स्त्री भी है, रंग गोरा है या सांवला, वह किस देश में रहता है, उसे क्या-क्या वस्तुएं पसंद हैं, यह सब बतला दो। फिर हम अपने श्यामसुन्दर से उस निर्गुण की तुलना करके बता सकेंगी कि वह प्रीति करने योग्य है या नहीं।” `पावैगो….गांसी,’ जो हमारी बातों का सीधा-सच्चा उत्तर न देकर चुभने वाली व्यंग्य की बाते कहेगा, उसे अपने किए का फल मिल जायगा। |
| शब्दार्थ :- निरगुन = त्रिगुण से रहित ब्रह्म। सौंह =शपथ, कसम। बूझति =पूछती हैं। जनक =पिता। वरन =वर्ण, रंग। गांसी = व्यंग, चुभने वाली बात |
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| 16 राग नट |
| कहियौ जसुमति की आसीस। |
| जहां रहौ तहं नंदलाडिले, जीवौ कोटि बरीस॥ |
| मुरली दई, दौहिनी घृत भरि, ऊधो धरि लई सीस। |
| इह घृत तौ उनहीं सुरभिन कौ जो प्रिय गोप-अधीस॥ |
| ऊधो, चलत सखा जुरि आये ग्वाल बाल दस बीस। |
| अबकैं ह्यां ब्रज फेरि बसावौ सूरदास के ईस॥ |
| टिप्पणी :- `जहां रहौं…बरीस,’ “प्यारे नंदनंदन, तुम जहां भी रहो, सदा सुखी रहो और करोड़ों वर्ष चिरंजीवी रहो। नहीं आना है, तो न आओ, मेरा वश ही क्या ! मेरी शुभकामना सदा तुम्हारे साथ बनी रहेगी, तुम चाहे जहां भी रहो।” `मुरली…सीस,’ यशोदा के पास और देने को है ही क्या, अपने लाल की प्यारी वस्तुएं ही भेज रही हैं- बांसुरी और कृष्ण की प्यारी गौओं का घी। उद्धव ने भी बडे प्रेम से मैया की भेंट सिरमाथे पर ले ली। |
| शब्दार्थ कोटि बरीस =करोड़ों वर्ष। दोहिनी =मिट्टी का बर्तन, जिसमें दूध दुहा जाता है, छोटी मटकिया। सुरभिन =गाय। जो प्रिय गोप अधीस = जो गोएं ग्वाल-बालों के स्वामी कृष्ण को प्रिय थीं। जुरि आए = इकट्ठे हो गए |
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| 17 राग गोरी |
| कहां लौं कहिए ब्रज की बात। |
| सुनहु स्याम, तुम बिनु उन लोगनि जैसें दिवस बिहात॥ |
| गोपी गाइ ग्वाल गोसुत वै मलिन बदन कृसगात। |
| परमदीन जनु सिसिर हिमी हत अंबुज गन बिनु पात॥ |
| जो कहुं आवत देखि दूरि तें पूंछत सब कुसलात। |
| चलन न देत प्रेम आतुर उर, कर चरननि लपटात॥ |
| पिक चातक बन बसन न पावहिं, बायस बलिहिं न खात। |
| सूर, स्याम संदेसनि के डर पथिक न उहिं मग जात॥ |
| भावार्थ :- `परमदीन…पात,’ सारे ब्रजबासी ऐसे श्रीहीन और दीन दिखाई देते है, जैसे शिशिर के पाले से कमल कुम्हला जाता है और पत्ते उसके झुलस जाते हैं। `पिक ….पावहिं,’ कोमल और पपीहे विरहाग्नि को उत्तेजित करते हैं अतः बेचारे इतने अधिक कोसे जाते हैं कि उन्होंने वहां बसेरा लेना भी छोड़ दिया है। `बायस….खात,’ कहते हैं कि कौआ घर पर बैठा बोल रहा हो और उसे कुछ खाने को रख दिया जाय, तो उस दिन अपना कोई प्रिय परिजन या मित्र परदेश से आ जाता है। यह शकुन माना जाता है। पर अब कोए भी वहां जाना पसंद नहीं करते। वे बलि की तरफ देखते भी नहीं। यह शकुन भी असत्य हो गया। |
| शब्दार्थ :- विहात =बीतते हैं। मलिन बदन = उदास। सिसिर हिमी हत = शिशिर ऋतु के पाले से मारे हुए। बिनु पात = बिना पत्ते के। कुसलात = कुशल-क्षेम। बायस =कौआ। बलि भोजन का भाग |
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| 18 राग मारू |
| ऊधो, मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं। |
| बृंदावन गोकुल तन आवत सघन तृनन की छाहीं॥ |
| प्रात समय माता जसुमति अरु नंद देखि सुख पावत। |
| माखन रोटी दह्यो सजायौ अति हित साथ खवावत॥ |
| गोपी ग्वाल बाल संग खेलत सब दिन हंसत सिरात। |
| सूरदास, धनि धनि ब्रजबासी जिनसों हंसत ब्रजनाथ॥ |
| शब्दार्थ :- गोकुल तन = गोकुल की तरफ। तृनन की = वृक्ष-लता आदि की। हित =स्नेह। सिरात = बीतता था। |
| भावार्थ :- निर्मोही मोहन को अपने ब्रज की सुध आ गई। व्याकुल हो उठे, बाल्यकाल का एक-एक दृष्य आंखों में नाचने लगा। वह प्यारा गोकुल, वह सघन लताओं की शीतल छाया, वह मैया का स्नेह, वह बाबा का प्यार, मीठी-मीठी माखन रोटी और वह सुंदर सुगंधित दही, वह माखन-चोरी और ग्वाल बालों के साथ वह ऊधम मचाना ! कहां गये वे दिन? कहां गई वे घड़ियां |
10:12 am
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