| रहस्यवादी भक्त परमात्मा को अपने परम साध्य एवं प्रियतम के रुप में देखता है। वह उस परम सत्ता के साक्षात्कार और मिलन के लिए वैकल्प का अनुभव करता है, जैसे मेघ और सागर के जल में मूलतः कोई भेद नहीं है, फिर भी मेघ का पानी नदी रुप में सागर से मिलने को व्याकुल रहता है। ठीक उसी प्रकार की अभेद- जन्म व्याकुलता एवं मिलन जन्य विह्मवलता भक्त की भी होती है। जायसी की रहस्योन्मुखता भी इसी शैली की है। जायसी रहस्यमयी सत्ता का आभास देने के लिए बहुत ही रमणीय तथा मर्मस्थली दृश्य- संकेत उपस्थित करने में समर्थ हुए हैं। पद्मावती की पारस रुप का प्रभाव –जेहि दिन दसन जोति निरमई। |
| बहुते जोति जोति ओहि भई।। |
| रवि ससि नखत दिपहिं ओहि जोती। |
| रतन पदारथ मानिक मोती।। |
| जहूँ जहूँ विहँसिं सुभावहि हसिं। |
| तहँ तहँ छिटकि जोति और को दूजी।। |
| दामिनि दमकि न सरवरि पूजी। |
| पुनि ओरि जोति परगसी।। |
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| नयन जो देखा कंवल भा निरमल नीर सरीर। |
| हँसत जो देखा हँस भा, दसन जोति नगर हीर।। |
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| जायसी ने प्रकृति मूलतः रहस्य वाद को अपनाया है। जायसी को प्रकृति की शक्तियों में किसी अनंद सत्ता का भान होता है। उसे ऐसा लगता है कि प्रकृति के समस्त तत्व उसी अनंत सत्ता के अनुकूल हैं। प्रकृति के समस्त तत्व उसी अनंत सत्ता द्वारा चलित अनुशासित और आकर्षित है। उस नदी, चाँद, सूर्य, तारे, वन, समुद्र, पर्वत इत्यादि की भी सर्जना की है – |
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| सरग साजि के धरती साजी। |
| बरन- बरन सृष्टि उपराजी।। |
| सागे चाँद, सूरज और तारा। |
| साजै वन कहू समुद पहारा।। |
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| इस समस्त सृष्टि का परिचालन उसी में इंगित पर हो रहा है – |
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| साजह सब जग साज चलावा। |
| औ अस पाछ्ैं ताजन लावा।। |
| तिन्ह ताजन डर जाइन बोला। |
| सरग फिरई ओठ धरती डोला।। |
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| चाँद सूरुज कहाँ गगन गरासा। |
| और मेघन कहँ बीजू तरासा।। |
| नाथे डारे कारु जस नाचा। |
| खेल खेलाई केरि जहि खाँचा।। |
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| जायसी ने प्रायः प्रकृति के माध्यम से परेश सत्ता की ओर संकेत दिया है — सिंहलद्वीप की अमराई की अनिवर्चनीय सुखदायी छाया का वर्णन करते हुए कवि ने उस छाया का अध्यात्मिक |
| संकेत भी दिया है – |
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| धन अमराउ लाग चहुँ पासा। |
| उठा भूमि हुत लागि अकासा।। |
| तखिर रुबै मलय गिरि लाई। |
| भइ जग छाह रेनि होइ आई।। |
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| मलय समीर सोहावन छाया। |
| जेठ जाड़ लागे तेहि माहां।। |
| ओहि छाँह रेन होइ आबै। |
| हरिहा सबै अकास देखावे।। |
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| पथिक जो पहुँचे सहिकै धामू। |
| दुख बिसरै सुख होइ बिसराम।। |
| जेहि वह पाइ छाँह अनुपा। |
| फिरि नहिं आइ सहं यह धूप।। |
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| जायसी कहते हैं — संपूर्ण सृष्टि उस प्रियतम के अमर धाम तक पहुँचने के लिए प्रगतिमान है, किंतु वहाँ पहुँचने के लिए साधना की पूर्णता अत्यंत आवश्यकता है, अपूर्णता की स्थिति में वहाँ पहुँच पाना अत्यंत कठिन है – |
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| धाइ जो बाजा के सा साधा। |
| मारा चक्र भएउ दुइ आधा।। |
| चाँद सुरुज और नखत तराई। |
| तेहिं डर अंतरिख फिरहिं सबाई।। |
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| पवन जाइ तहँ पहुँचे चाहा। |
| मारा तेस लोहि भुहं रहा।। |
| अगिनि उठी उठि जरी नयाना। |
| धुवाँ उठा उठि बीच बिलाना।। |
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| परनि उठा उठि जाइ न छूवा। |
| बहुरा रोई आइ भुइं छुआ।। |
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