चंदबरदाई
जन्म – संवत 1205 तदनुसार 1148 ईस्वी में। |
मृत्यु – संवत 1249 तदनुसार 1191 ईस्वी में। |
रचनाएँ -” पृथ्वीराज रासो ” – दो भागों में नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित। |
चंदबरदाई को हिंदी का पहला कवि और उनकी रचना पृथ्वीराज रासो को हिंदी की पहली रचना होने का सम्मान प्राप्त है। पृथ्वीराज रासो हिंदी का सबसे बड़ा काव्य-ग्रंथ है। इसमें 10,000 से अधिक छंद हैं और तत्कालीन प्रचलित 6 भाषाओं का प्रयोग किया गया है। इस ग्रंथ में उत्तर भारतीय क्षत्रिय समाज व उनकी परंपराओं के विषय में विस्तृत जानकारी मिलती है, इस कारण ऐतिहासिक दृष्टि से भी इसका बहुत महत्व है। वे भारत के अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय के मित्र तथा राजकवि थे। पृथ्वीराज ने 1165 से 1192 तक अजमेर व दिल्ली पर राज किया। यही चंदबरदाई का रचनाकाल था। |
११६५ से ११९२ के बीच जब पृथ्वीराज चौहान का राज्य अजमेर से दिल्ली तक फैला हुआ था, उसके राज कवि चंद बरदाई ने पृथ्वीराज रासो की रचना की। यह हिन्दी का प्रथम महाकाव्य माना जा सकता है। इस महाकाव्य में पृथ्वीराज चौहान के जीवन और चरित्र का वर्णन किया गया है। चंद बरदाई पृथ्वीराज के बचपन के मित्र थे और उनकी युद्ध यात्राओं के समय वीर रस की कविताओं से सेना को प्रोत्साहित भी करते थे। |
पृथ्वीराजरासो ढाई हजार पृष्ठों का बहुत बड़ा ग्रंथ है जिसमें ६९ समय (सर्ग या अध्याय) हैं। प्राचीन समय में प्रचलित प्रायः सभी छंदों का इसमें व्यवहार हुआ है। मुख्य छन्द हैं – कवित्त (छप्पय), दूहा(दोहा), तोमर, त्रोटक, गाहा और आर्या। जैसे कादंबरी के संबंध में प्रसिद्ध है कि उसका पिछला भाग बाण भट्ट के पुत्र ने पूरा किया है, वैसे ही रासो के पिछले भाग का भी चंद के पुत्र जल्हण द्वारा पूर्ण किया गया है। रासो के अनुसार जब शाहाबुद्दीन गोरी पृथ्वीराज को कैद करके ग़ज़नी ले गया, तब कुछ दिनों पीछे चंद भी वहीं गए। जाते समय कवि ने अपने पुत्र जल्हण के हाथ में रासो की पुस्तक देकर उसे पूर्ण करने का संकेत किया। जल्हण के हाथ में रासो को सौंपे जाने और उसके पूरे किए जाने का उल्लेख रासो में है - |
पुस्तक जल्हण हत्थ दै चलि गज्जन नृपकाज । |
रघुनाथनचरित हनुमंतकृत भूप भोज उद्धरिय जिमि । |
पृथिराजसुजस कवि चंद कृत चंदनंद उद्धरिय तिमि ।। |
रासो में दिए हुए संवतों का ऐतिहासिक तथ्यों के साथ अनेक स्थानों पर मेल न खाने के कारण अनेक विद्वानों ने पृथ्वीराजरासो के समसामयिक किसी कवि की रचना होने में संदेह करते है और उसे १६वीं शताब्दी में लिखा हुआ ग्रंथ ठहराते हैं। इस रचना की सबसे पुरानी प्रति बीकानेर के राजकीय पुस्तकालय मे मिली है कुल ३ प्रतिया है। रचना के अन्त मे पॄथ्वीराज द्वारा शब्द भेदी बाण चला कर गौरी को मारने की बात भी की गयी है। |
बहुमुखी प्रतिभा के धनी, चन्द वरदाई आदिकाल के श्रेष्ठ कवि थे। उनका जीवन काल बारहवीं शताब्दी में था। एक उत्तम कवि होने के साथ, वह एक कुशल योद्धा और राजनायक भी थे। वह पृथ्वीराज चौहान के अभिन्न मित्र थे। उनका रचित महाकाव्य “पृथ्वीराज रासो” हिन्दी का प्रथम महाकाव्य माना जाता है। इस महाकाव्य में ६९ खण्ड हैं और इसकी गणना हिन्दी के महान ग्रन्थों में की जाती है। चन्द वरदाई के काव्य की भाषा पिंगल थी जो कालान्तर में बृज भाषा के रूप में विकसित हुई। उनके काव्य में चरित्र चित्रण के साथ वीर रस और श्रृंगार रस का मोहक समन्वय है। किन्तु पृथ्वीराज रासो को पढ़ने से ज्ञात होता है कि महाराजा पृथ्वीराज चौहान ने जितनी भी लड़ाइयाँ लड़ीं, उन सबका प्रमुख उद्देश्य राजकुमारियों के साथ विवाह और अपहरण ही दिखाई पड़ता है। इंछिनी विवाह, पह्मावती समया, संयोगिता विवाह आदि अनेकों प्रमाण पृथ्वीराज रासो में पृथ्वीराज की शृंगार एवं विलासप्रियता की ओर भी संकेत करते हैं। पृथ्वीराज रासो के कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं– |
पद्मसेन कूँवर सुघर ताघर नारि सुजान। |
ता उर इक पुत्री प्रकट, मनहुँ कला ससभान॥ |
मनहुँ कला ससभान कला सोलह सो बन्निय। |
बाल वैस, ससि ता समीप अम्रित रस पिन्निय॥ |
बिगसि कमल-स्रिग, भ्रमर, बेनु, खंजन, म्रिग लुट्टिय। |
हीर, कीर, अरु बिंब मोति, नष सिष अहि घुट्टिय॥ |
छप्पति गयंद हरि हंस गति, बिह बनाय संचै सँचिय। |
पदमिनिय रूप पद्मावतिय, मनहुँ काम-कामिनि रचिय॥ |
मनहुँ काम-कामिनि रचिय, रचिय रूप की रास। |
पसु पंछी मृग मोहिनी, सुर नर, मुनियर पास॥ |
सामुद्रिक लच्छिन सकल, चौंसठि कला सुजान। |
जानि चतुर्दस अंग खट, रति बसंत परमान॥ |
सषियन संग खेलत फिरत, महलनि बग्ग निवास। |
कीर इक्क दिष्षिय नयन, तब मन भयो हुलास॥ |
मन अति भयौ हुलास, बिगसि जनु कोक किरन-रबि। |
अरुन अधर तिय सुघर, बिंबफल जानि कीर छबि॥ |
यह चाहत चष चकित, उह जु तक्किय झरंप्पि झर। |
चंचु चहुट्टिय लोभ, लियो तब गहित अप्प कर॥ |
हरषत अनंद मन मँह हुलस, लै जु महल भीतर गइय। |
पंजर अनूप नग मनि जटित, सो तिहि मँह रष्षत भइय॥ |
तिहि महल रष्षत भइय, गइय खेल सब भुल्ल। |
चित्त चहुँट्टयो कीर सों, राम पढ़ावत फुल्ल॥ |
कीर कुंवरि तन निरषि दिषि, नष सिष लौं यह रूप। |
करता करी बनाय कै, यह पद्मिनी सरूप॥ |
कुट्टिल केस सुदेस पोहप रचयित पिक्क सद। |
कमल-गंध, वय-संध, हंसगति चलत मंद मंद॥ |
सेत वस्त्र सोहे सरीर, नष स्वाति बूँद जस। |
भमर-भमहिं भुल्लहिं सुभाव मकरंद वास रस॥ |
नैनन निरषि सुष पाय सुक, यह सुदिन्न मूरति रचिय। |
उमा प्रसाद हर हेरियत, मिलहि राज प्रथिराज जिय॥ |
(चंदबरदाई कॄत पॄथ्वीराजरासो से उद्धॄत) |
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें