मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

जायसी की समन्वय भावना


जायसी की समन्वय भावना

मानवता के दग्ध मरूस्थल को अपनी शीतल काव्य-धार से अभिसिंचित करने वाले संतों और भक्त कवियों की वाणी से भारत के इतिहास में एक समॄद्ध परम्परा रही है। निर्गुण भक्ति की प्रेमाश्रयी शाखा के प्रसिद्ध सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी इसी परंपरा के जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं।
जायसी का जन्म सन् 1492 के आसपास माना जाता है। वे ‘जायस’ शहर के रहने वाले थे, इसीलिए उनके नाम के साथ मलिक मुहम्मद के साथ ‘जायसी’ शब्द जुड़ गया। उनके पिता का नाम मुमरेज था। बाल्यावस्था में एक बार जायसी पर शीतला का असाधारण प्रकोप हुआ। बचने की कोई आशा नहीं रही। बालक की यह दशा देखकर मां बड़ी चिंतित हुयी। उसने प्रसिद्ध सूफी फकीर शाह मदार की मनौती मानी। माता की प्रार्थना सफल हुयी। बच्चा बच गया, किंतु उसकी एक आंख जाती रही।
विधाता को इतने से ही संतोष नहीं हुआ। कुछ दिनों बाद उनके एक कान की श्रवणशक्ति भी नष्ट हो गयी। इसमें संदेह नहीं कि जायसी का व्यक्तित्व बाहरी रूप से सुंदर नहीं था, पर ईश्वर ने उन्हें जो भीतरी सौन्दर्य दिया था, वही काव्य के रूप में बाहर प्रकट हुआ। उनकी कुरुपता के संबंध में एक किंवदंती है कि एक बार वे शेरशाह के दरबार में गये। शेरशाह उनके भद्दे चेहरे को देखकर हंस पड़ा। जायसी ने अत्यंत शांत स्वर में बादशाह से पूछा, ‘मोहि का हंसेसि कि कोहरहिं?’ अर्थात तू मुझ पर हंस रहा है या उस कुम्हार पर, जिसने मुझे गढ़ा है? कहा जाता है कि विद्वान जायसी के इन वचनों को सुनकर बादशाह बहुत लज्जित हुआ और उसने क्षमा मांगी।
जायसी के माता-पिता का देहांत बचपन में ही हो गया था। अनाथ बच्चा कुछ दिनों तक अपने नाना शेख अलहदाद के पास मानिकपुर रहा, किंतु शीघ्र ही निर्मम विधाता ने उसका यह सहारा भी छीन लिया। बालक एकदम निराश्रित हो गया। ऐसी अवस्था में जीवन के प्रति उनके मन में एक गहरी विरक्ति भर गयी। वह साधुओं के संग रहने लगा और आत्मा-परमात्मा के संबंध में गहरा चिंतन करने लगा। वयस्क होने पर जायसी का विवाह भी हुआ। वे पारिवारिक कर्तव्यों का निर्वाह करते रहे, पर ईश्वरभक्ति में कोई कमी नहीं आयी। जायसी का यह नियम था कि जब वे खेत पर होते तो अपना खाना वहीं मंगवा लिया करते थे, पर अकेले खाना नहीं खाते थे। ऐसा प्रसिद्ध है कि एक बार उन्होंने कोढी के साथ भी भोजन किया। उनकी भक्ति इतनी गहरी हो गयी थी कि जाति-वर्ण, ऊंच-नीच के सारे भेद मिट गये थे।
कहा जाता है कि जायसी के सात पुत्र थे। एक दिन कवि जायसी ने ‘पोस्तीनामा’ शीर्षक पद्य की रचना की और उसे सुनाने के लिए अपने गुरु मुहीउद्दीन के पास पहुंचे। उनके गुरुदेव वैद्यों के आदेश एवं अनुरोध पर रोज पोस्त (अफीम) का पानी पीते थे। जायसी की व्यंग्यपूर्ण रचना सुनकर गुरु क्रोधित होकर बोले – ‘अरे निपूते, तुझे ज्ञान नहीं कि तेरा गुरु निपोस्ती है?’ कहा जाता कि इधर गुरु के मुंह से यह वाक्य निकला और उधर एक व्यक्ति ने जायसी को सूचना दी कि उनके सातों पुत्र छत गिर जाने के कारण उसके नीचे दबकर मर गये। वे निपूते हो गये और गुरु ‘निपोस्ती’ (बिना पोत्र वाले) बन गये। इसके बाद जायसी पूर्ण वैरागी हो गये और फकीर का जीवन जीने लगे।
जायसी एक भावुक, सहृदय और संवेदनशील भक्त कवि थे। उनके लिखे ग्रंथों में ‘पद्मावत’, ‘अखरावट’ और ‘आखिरी कलाम’ मुख्य हैं। ‘पद्मावत’ एक आध्यात्मिक प्रेमगाथा है। ‘पद्मावत’ की कथा के लिए जायसी ने प्रेममार्गी सूफी कवियों की भांति कोरी कल्पना से काम न लेकर रत्नसेन और पद्मावती(पद्मिनी) की प्रसिद्ध ऐतिहासिक कथा को अपने महाकाव्य का आधार बनाया। इस प्रेमगाथा में सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती एवं चित्तौड़ के राजा रत्नसेन के प्रणय का वर्णन है। नागमती के विरह-वर्णन में तो जैसे जायसी ने अपनी संपूर्ण पीड़ा स्याही में घोलकर रख दी है। कथा का द्वितीय भाग ऐतिहासिक है, जिसमें चित्तौड़ पर अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण एवं पद्मावती के जौहर का वर्णन है।
जायसी ने इस महाकाव्य की रचना दोहा-चौपाइयों में की है। जायसी संस्कृत, अरबी एवं फारसी के ज्ञाता थे, फिर भी उन्होंने अपने ग्रंथ की रचना ठेठ अवधी भाषा में की। इसी भाषा एवं शैली का प्रयोग बाद में गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपने ग्रंथरत्न ‘रामचरित मानस’ में किया।
‘पद्मावत’ की रचना सोद्देश्य हुयी थी। पद्मावती और रत्नसेन का रूपक रचकर जायसी ने विश्वव्यापी पार्थिव और अपार्थिव सौन्दर्य को संयुक्त किया है, लौकिक प्रेम को अलौकिक प्रेम में समर्पित किया है। वह कथावस्तु जायसी के नहीं, भारत के नहीं, वरन् समस्त विश्व के हृदय-स्थान की है। वस्तुत: ‘पद्मावत’ हिन्दू और मुसलमानों के दिलों को जोड़ने वाला वृहद् इकरारनामा है। जायसी ने ‘पद्मावत’ के माध्यम से हिन्दू और मुसलमानों की पृथक संस्कृतियों, धर्मो, मान्यताओं एवं परंपराओं के बीच समन्वय तथा प्रेम का निर्झर प्रवाहित किया। वैष्णवों के ईश्वरोन्मुख प्रेम एवं सूफियों के रहस्यवाद को जायसी ने मिला दिया है।
‘पद्मावत’ जायसी की काव्य-कला का उत्कृष्ट उदाहरण है। हिन्दी के महाकाव्यों में तुलसीकृत ‘रामचरित मानस’ के बाद ‘पद्मावत’ की समकक्षता में कोई भी ग्रंथ नहीं ठहरता। साहित्यिक रहस्यवाद एवं दार्शनिक सौन्दर्य से परिपुष्ट जायसी की यह कृति उनकी कीर्ति को अमर रखेगी, इसमें संदेह नही है।
उनकी दूसरी प्रसिद्ध पुस्तक ‘अखरावट’ है, जिसमें वर्णमाला के एक-एक अक्षर पर सूफी सिद्धांतों से संबंधित बाताें का विवेचन है। ‘आखिरी कलाम’ में मृत्यु के बाद जीव की दशा तथा कयामत के अंतिम न्याय का वर्णन है।
मलिक मुहम्मद जायसी निजामुद्दीन औलिया की शिष्य परंपरा से संबंधित थे। जायसी सभी धर्मो के प्रति बड़े उदार थे। उन्हें अहंकार छू भी नहीं गया था। वे बहुविज्ञ होते हुये भी अपने ज्ञान को पंडितों द्वारा दिया गया प्रसाद मानते थे। जायसी पहुंचे हुये सिद्धपुरुष और चमत्कारी फकीर थे। अनेक व्यक्ति उनके शिष्य थे। उनमें से कई जायसी के अमरग्रंथ ‘पद्मावत’ के अंश गाकर भिक्षा मांगा करते थे। एक दिन ऐसा ही एक चेला अमेठी में नागमती का बारहमासा गाता हुआ फिर रहा था। अमेठी नरेश उसको सुनकर मुग्ध हो गये। उन्होंने पूछा -”शाहजी, ये किसके दोहे हैं?” शिष्य ने अपने गुरु जायसी का नाम बताया। राजा जायसी के पास गये और उन्हें आदरपूर्वक अमेठी ले आए। जायसी मृत्युपर्यंत वही रहे।
उनकी मृत्यु के संबंध में एक घटना उल्लेखनीय है। अमेठी नरेश जब जायसी की सेवा में उपस्थित होते थे तो एक बहेलिया भी उनके साथ जाता था। जायसी उसका विशेष सत्कार करते थे। जब लोगों ने उनसे इसका कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि यह मेरा कातिल है। इस पर सब आश्चर्यचकित हो गये। बहेलिये ने कहा कि इस पाप-क र्म को करने से पूर्व ही मुझे कत्ल कर दिया जाए। राजा ने भी इसे उचित समझा, किंतु जायसी ने बहेलिये को बचा लिया। राजा ने सुरक्षा की दृष्टि से घोषणा की कि बहेलिये को कोई बंदूक तलवार आदि न दी जाए। परंतु विधि का विधान टाले नहीं टलता। एक अंधेरी रात में, जब बहेलिया राजभवन से अपने गांव जाने लगा तो दारोगा से बोला, ‘मेरी राह जंगल से होकर जाती है, इसलिए कृपा करके रात भर के लिए मुझे एक बंदूक दे दो। प्रात:काल लौटा दूंगा।’ दारोगा ने इसमें कोई आपत्ति नहीं की और एक बंदूक बहेलिये को दे दी। बहेलिया जंगल में होकर जा रहा था कि शेर का शब्द सुनाई दिया। उसने शब्द की दिशा में गोली छोड़ दी। शब्द बंद हो गया। शायद शेर मर गया है, यह सोचकर वह बिना रूके आगे बढ़ गया। उसी समय राजा ने स्वप्न देखा कि कोई उसे कह रहा है – ”आप सो रहे हैं और आपके बहेलिये ने मलिक साहब को मार डाला।” राजा चौंककर उठे और नंगे पांव जायसी की कुटिया पर पहुंचे। जायसी का शरीर धरती पर निर्जीव पड़ा था। उनके माथे पर गोली का निशान था। इस दुर्घटना से राजमहल और नगर में शोक छा गया। जायसी की लाश गढ़ से नजदीक दफना दी गयी। इस प्रकार सन् 1542 ई. में इस सूफी संत की जीवन ज्योति परम ज्योति में समा गयी।
‘पद्मावत’ जैसे महाकाव्य के प्रणेता के रूप में जायसी सदा अमर रहेंगे। उनका भावुक, सुकोमल और प्रेम की पीर से भरा हृदय प्रेम-पंथ के पथिकों को सदा रास्ता दिखाता रहेगा। हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति के महान समन्वयकारी उच्च कोटि के कवि और आदर्श मानव के रूप में जायसी भारतीय साहित्य और समाज में चिरस्मरणीय रहेंगे।

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