सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

कृष्णभक्त कवि

कृष्णभक्त कवि



कृष्णभक्ति शाखा के प्रमुख कवियों का परिचय
सूरदास, नंददास, कृष्णदास, परमानंद, कुंभनदास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी, हितहरिवंश, गदाधर भट्ट, मीराबाई, स्वामी हरिदास, सूरदास-मदनमोहन, श्रीभट्ट, व्यास जी, रसखान, ध्रुवदास, चैतन्य महाप्रभु ।

सूरदास
हिन्दी साहित्य के श्रेष्ठ कृष्णभक्त कवि सूरदास का जन्म 1483 ई. के आस-पास हुआ था. इनकी मृत्यु अनुमानत: 1563 ई. के आस-पास हुई. इनके बारे में ‘भक्तमाल’ और ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ में थोड़ी-बहुत जानकारी मिल जाती है. ‘आईने अकबरी’ और ‘मुंशियात अब्बुलफजल’ में भी किसी संत सूरदास का उल्लेख है, किन्तु वे बनारक के कोई और सूरदास प्रतीत होते हैं. अनुश्रुति यह अवश्य है कि अकबर बादशाह सूरदास का यश सुनकर उनसे मिलने आए थे. ‘भक्तमाल’ में इनकी भक्ति, कविता एवं गुणों की प्रशंसा है तथा इनकी अंधता का उल्लेख है. ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ के अनुसार वे आगरा और मथुरा के बीच साधु या स्वामी के रूप में रहते थे. वे वल्लभाचार्य के दर्शन को गए और उनसे लीलागान का उपदेश पाकर कृष्ण-चरित विषयक पदों की रचना करने लगे. कालांतर में श्रीनाथ जी के मंदिर का निर्माण होने पर महाप्रभु वल्लभाचार्य ने इन्हें यहाँ कीर्तन का कार्य सौंपा.
सूरदास के विषय में कहा जाता है कि वे जन्मांध थे. उन्होंने अपने को ‘जन्म को आँधर’ कहा भी है. किन्तु इसके शब्दार्थ पर अधिक नहीं जाना चाहिए. सूर के काव्य में प्रकृतियाँ और जीवन का जो सूक्ष्म सौन्दर्य चित्रित है उससे यह नहीं लगता कि वे जन्मांध थे. उनके विषय में ऐसी कहानी भी मिलती है कि तीव्र अंतर्द्वन्द्व के किसी क्षण में उन्होंने अपनी आँखें फोड़ ली थीं. उचित यही मालूम पड़ता है कि वे जन्मांध नहीं थे. कालांतर में अपनी आँखों की ज्योति खो बैठे थे. सूरदास अब अंधों को कहते हैं. यह परम्परा सूर के अंधे होने से चली है. सूर का आशय ‘शूर’ से है. शूर और सती मध्यकालीन भक्त साधकों के आदर्श थे.
कृतियाँ
1. सूरसागर 2. सूरसारावली 3. साहित्य लहरी

ध्रुवदास
ये श्री हितहरिवंश के शिष्य स्वप्न में हुए थे. इसके अतिरिक्त उनका कुछ जीवनवृत्त प्राप्त नहीं हुआ. वे अधिकतर वृंदावन में ही रहा करते थे. उनकी रचना बहुत ही विस्तृत है और इन्होंने पदों के अतिरिक्त दोह, चौपाई, कवित्त, सवैये आदि अनेक छंदों में भक्ति और प्रेमतत्वों का वर्णन किया है.

कृतियाँ- 1. वृंदावनसत 2. सिंगारसत 3. रसरत्नावली 4. नेहमंजरी 5. रहस्यमंजरी 6. सुखमंजरी 7. रतिमंजरी 8. वनविहार 9. रंगविहार 10. रसविहार 11. आनंददसाविनोद 12. रंगविनोद 13. नृत्यविलास 14. रंगहुलास 15. मान रसलीला 16. रहसलता 17. प्रेमलता 18. प्रेमावली 19. भजनकुडलिया 20. भक्तनामावली ।

रसखान

ये दिल्ली के एक पठान सरदार थे. ये लौकिक प्रेम से कृष्ण प्रेम की ओर उन्मुख हुए. ये गोस्वामी विट्ठलनाथ के बड़े कृपापात्र शिष्य थे. रसखान ने कृष्ण का लीलागान गेयपदों में नहीं, सवैयों में किया है. रसखान को सवैया छंद सिद्ध था. जितने सहज, सरस, प्रवाहमय सवैये रसखान के हैं, उतने शायद ही किसी अन्य कवि के हों. रसखान का कोई ऐसा सवैया नहीं मिलता जो उच्च स्तर का न हो. उनके सवैये की मार्मिकता का बहुत बड़ा आधार दृश्यों और बाह्यांतर स्थितियों की योजना में है. वही योजना रसखान के सवैयों के ध्वनि-प्रवाह में है. ब्रजभाषा का ऐसा सहज प्रवाह अन्यत्र बहुत कम मिलता है.
रसखान सूफ़ियों का हृदय लेकर कृष्ण की लीला पर काव्य रचते हैं. उनमें उल्लास, मादकता और उत्कटता तीनों का संयोग है. ब्रज भूमि के प्रति जो मोह रसखान की कविताओं में दिखाई पड़ता है, वह उनकी विशेषता है.
कृतियाँ
1. प्रेमवाटिका
2. सुजान रसखान

व्यास जी

इनका पूरा नाम हरीराम व्यास था और वे ओरछा के रहनेवाले थे. ओरछानरेश मधुकर शाह के ये राजगुरू थे. पहले ये गौड़ सम्प्रदाय के वैष्णव थे पीछे हितहरिवंशजी के शिष्य होकर राधाबल्लभी हो गए. इनका समय सन् 1563 ई. के आसपास है.
इनकी रचना परिमाण में भी बहुत विस्तृत है और विषय भेद के विचार से भी अधिकांश कृष्णभक्तों की अपेक्षा व्यापक है. ये श्रीकृष्ण की बाललीला और श्रृंगारलीला में लीन रहने पर भी बीच में संसार पर दृष्टि डाला करते थे. इन्होंने तुलसीदास के समान खलों, पाखंडियों आदि का भी स्मरण किया और रसखान के अतिरिक्त तत्वनिरूपण में भी ये प्रवृत्त हुए हैं.
कृतियाँ
1. रासपंचाध्यायी

स्वामी हरिदास

ये महात्मा वृंदावन में निंबार्क मतांतर्गत टट्टी संप्रदाय, जिसे सखी संप्रदाय भी कहते है, के संस्थापक थे और अकबर के समय में एक सिद्ध भक्त और संगीत-कला-कोविद माने जाते थे. कविताकाल सन् 1543 से 1560 ई. ठहरता है. प्रसिद्ध गायनाचार्य तानसेन इनका गुरूवत् सम्मान करते थे. यह प्रसिद्ध है कि अकबर बादशाह साधु के वेश में तानसेन के साथ इनका गाना सुनने के लिए गया था. कहते हैं कि तानसेन इनके सामने गाने लगे और उन्होंने जानबूझकर गाने में कुछ भूल कर दी. इसपर स्वामी हरिदास ने उसी गाना को शुद्ध करके गाया. इस युक्ति से अकबर को इनका गाना सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो गया. पीछे अकबर ने बहुत कुछ पूजा चढ़ानी चाही पर इन्होंने स्वीकृन न की.
इनका जन्म समय कुछ ज्ञात नहीं है.
कृतियाँ
1. स्वामी हरिदास जी के पद
2. हरिदास जी की बानी

मीराबाई

ये मेड़तिया के राठौर रत्नसिंह की पुत्री, राव दूदाजी की पौत्री और जोधपुर के बसानेवाले प्रसिद्ध राव जोधाजी की प्रपौत्री थीं. इनका जन्म सन् 1516 ई. में चोकड़ी नाम के एक गाँव में हुआ था और विवाह उदयपुर के महाराणा कुमार भोजराज जी के साथ हुआ था. ये आरंभ से ही कृष्ण भक्ति में लीन रहा करती थी. विवाह के उपरांत थोड़े दिनों में इनके पति का परलोकवास हो गया. ये प्राय: मंदिर में जाकर उपस्थित भक्तों और संतों के बीच श्रीकृष्ण भगवान् की मूर्ती के सामने आनंदमग्न होकर नाचती और गाती थी. कहते हैं कि इनके इस राजकुलविरूद्ध आचरण से इनके स्वजन लोकनिंदा के भय से रूष्ट रहा करते थे. यहाँ तक कहा जाता है कि इन्हें कई बार विष देने का प्रयत्न किया गया, पर विष का कोई प्रभाव इन पर न हुआ. घरवालों के व्यवहार से खिन्न होकर ये द्वारका और वृंदावन के मंदिरों में घूम-घूमकर भजन सुनाया करती थीं. ऐसा प्रसिद्ध है कि घरवालों से तंग आकर इन्होंने गोस्वामी तुलसीदासजी को यह पद लिखकर भेजा था:

स्वस्ति श्री तुलसी कुल भूषन दूषन हरन गोसाईं I
बारहिं बार प्रनाम करहुँ, अब हरहु सोक समुदाई II
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई II
साधु संग अरू भजन करत मोहिं देत कलेस महाई II
मेरे मात पिता के सम हौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई II
हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई II
इस पर गोस्वामी जी ने ‘विनयपत्रिका’ का यह पद लिखकर भेजा था :

जाके प्रिय न राम बैदेही I
सो नर तजिय कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही II
नाते सबै राम के मनियत सुहृद सुसेव्य जहाँ लौं I
अंजन कहा आँखि जौ फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं II
मीराबाई की मृत्यु द्वारका में सन् 1546 ई. में हो चुकी थी. अत: यह जनश्रुति किसी की कल्पना के आधार पर ही चल पड़ी.
मीराबाई का नाम प्रधान भक्तों में है और इनका गुणगान नाभाजी, ध्रुवदास, व्यास जी, मलूकदास आदि सब भक्तों ने किया है.
कृतियाँ
1. नरसी जी का मायरा
2. गीतगोविंद टीका
3. राग गोविंद
4. राग सोरठ के पद

गदाधर भट्ट

ये दक्षिणी ब्राह्मण थे. इनके जन्म का समय ठीक से पता नहीं, पर यह बात प्रसिद्ध है कि ये श्री चैतन्य महाप्रभु को भागवत सुनाया करते थे. इनका समर्थन भक्तमाल की इन पंक्तियों से भी होता है:

भागवत सुधा बरखै बदन, काहू को नाहिंन दुखद I
गुणनिकर गदाधर भट्ट अति सबहिन को लागै सुखद II

संस्कृत के चूडांत पंडित होने के कारण शब्दों पर इनका बहुत विस्तृत अधिकार था. इनका पदविन्यास बहुत ही सुंदर है.

हितहरिवंश

राधावल्लभी सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोसाईं हितहरिवंश का जन्म सन् 1502 ई. में मथुरा से 4 मील दक्षिण बादगाँव में हुआ था. राधावल्लभी सम्प्रदाय के पंडित गोपालप्रसाद शर्मा ने इनका जन्म सन् 1473 ई. माना है.
इनके पिता को नाम केशवदास मिश्र और माता का नाम तारावती था.
कहते हैं कि हितहरिवंश पहले माध्वानुयायी गोपाल भट्ट के शिष्य थे. पीछे इन्हें स्वप्न में राधिकाजी ने मंत्र दिया और इन्होंने अपना एक अलग संप्रदाय चलाया. अत: हित सम्प्रदाय को माध्व संप्रदाय के अंतर्गत मान सकते हैं. हितहरिवंश के चार पुत्र और एक कन्या हुई. गोसाईं जी ने सन् 1525 ई. में श्री राधावल्लभ जी की मूर्ती वृंदावन में स्थापित की और वहीं विरक्त भाव से रहने लगे. ये संस्कृत के अच्छे विद्वान और भाषा काव्य के अच्छे मर्मज्ञ थे. ब्रजभाषा की रचना इनकी यद्यपि बहुत विस्तृत नहीं है तथापि बड़ी सरस और हृदयग्राहिणी है.
कृतियाँ– 1. राधासुधानिधि 2. हित चौरासी

गोविन्दस्वामी

ये अंतरी के रहनेवाले सनाढ्य ब्राह्मण थे जो विरक्त की भाँति आकर महावन में रहने लगे थे. पीछे गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के शिष्य हुए जिन्होंने इनके रचे पदों से प्रसन्न होकर इन्हें अष्टछाप में लिया. ये गोवर्धन पर्वत पर रहते थे और उसके पास ही इन्होंने कदंबों का एक अच्छा उपवन लगाया था जो अब तक ‘गोविन्दस्वमी की कदंबखडी’ कहलाता है.
इनका रचनाकाल सन् 1543 और 1568 ई. के भीतर ही माना जा सकता है.
वे कवि होने के अतिरिक्त बड़े पक्के गवैये थे. तानसेन कभी-कभी इनका गाना सुनने के लिए आया करते थे.

छीतस्वामी

विट्ठलनाथ जी के शिष्य और अष्टछाप के अंतर्गत थे. पहले ये मथुरा के सुसम्पन्न पंडा थे और राजा बीरबल जैसे लोग इनके जजमान थे. पंडा होने के कारण ये पहले बड़े अक्खड़ और उद्दंड थे, पीछे गोस्वामी विट्ठलनाथ जी से दीक्षा लेकर परम शांत भक्त हो गए और श्रीकृष्ण का गुणानुवाद करने लगे.
इनकी रचनाओं का समय सन् 1555 ई. के इधर मान सकते हैं.
इनके पदों में श्रृंगार के अतिरिक्त ब्रजभूमि के प्रति प्रेमव्यंजना भी अच्छी पाई जाती है.

‘हे विधना तोसों अँचरा पसारि माँगौ जनम जनम दीजो याही ब्रज बसिबो’
पद इन्हीं का है.

चतुर्भुजदास

ये कुंभनदास जी के पुत्र और गोसाईं विट्ठलनाथ जी के शिष्य थे. ये भी अष्टछाप के कवियों में हैं. इनकी भाषा चलती और सुव्यवस्थित है. इनके बनाए तीन ग्रंथ मिले हैं.
कृतियाँ
1. द्वादशयश 2. भक्तिप्रताप 3. हितजू को मंगल

कुंभनदास

ये भी अष्टछाप के एक कवि थे और परमानंद जी के ही समकालीन थे. ये पूरे विरक्त और धन, मान, मर्यादा की इच्छा से कोसों दूर थे. एक बार अकबर बादशाह के बुलाने पर इन्हें फतहपुर सीकरी जाना पड़ा जहाँ इनका बड़ा सम्मान हुआ. पर इसका इन्हें बराबर खेद ही रहा, जैसा कि इस पद से व्यंजित होता है:

संतन को कहा सीकरी सो काम ?
आवत जात पनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि नाम
जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम
कुंभनदास लाल गिरिधर बिनु और सबै बेकाम.
इनका कोई ग्रंथ न तो प्रसिद्ध है और न अब तक मिला है.

परमानंद

यह वल्लभाचार्य जी के शिष्य और अष्टछाप में थे. सन् 1551 ई. के आसपास वर्तमान थे. इनका निवास स्थान कन्नौज था. इसी से ये कान्यकुब्ज अनुमान किए जाते हैं. अत्यंत तन्मयता के साथ बड़ा ही सरलकविता करते थे. कहते हैं कि इनके किसी एक पद को सुनकर आचार्यजी कई दिनों तक बदन की सुध भूले रहे. इनके फुटकल पद कृष्णभक्तों के मुँह से प्राय: सुनने को आते हैं.
कृतियाँ – 1. परमानंदसागर

कृष्णदास

जन्मना शूद्र होते हुए भी वल्लभाचार्य के कृपा-पात्र थे और मंदिर के प्रधान हो गए थे. ‘चौरासी वैष्णवों की वार्ता’ के अनुसार एक बार गोसाईं विट्ठलनाथजी से किसी बात पर अप्रसन्न होकर इन्होंने उनकी ड्योढ़ी बंद कर दी. इस पर गोसाईं के कृपापात्र महाराज बीरबल ने इन्हें कैद कर लिया. पीछे गोसाईं जी इस बात से बड़े दुखी हुए और उनको कारागार से मुक्त कराके प्रधान के पद पर फिर ज्यों का त्यों प्रतिष्ठित कर दिया. इन्होंने भी और सब कृष्ण भक्तों के समान राधाकृष्ण के प्रेम को लेकर श्रृंगार रस के ही पद गाए हैं. ‘जुगलमान चरित’ नामक इनका एक छोटा सा ग्रंथ मिलता है. इसके अतिरिक्त इनके बनाए दो ग्रंथ और कहे जाते हैं-भ्रमरगीत और प्रेमतत्व निरूपण.
इनका कविताकाल सन् 1550 क आगे पीछे माना जाता है.

कृतियाँ – 1. जुगलमान चरित 2. भ्रमरगीत 3. प्रेमतत्व निरूपण

श्रीभट्ट

ये निंबार्क सम्प्रदाय के प्रसिद्ध विद्वान केशव काश्मीरी के प्रधान शिष्य थे. इनका जन्म सन् 1538 ई. में अनुमान किया जाता है. इनकी कविता सीधी-सादी और चलती भाषा में है. पद भी प्राय: छोटे-छोटे हैं. ऐसा प्रसिद्ध है कि जब ये तन्मय होकर अपने पद गाने लगते थे तब कभी-कभी उस पद के ध्यानानुरूप इन्हें भगवान की झलक प्रत्यक्ष मिल जाती थी.

कृतियाँ-1. युगल शतक 2. आदि बानी

सूरदास मदनमोहन

ये अकबर के समय में संडीले के अमीन थे. ये जो कुछ पास में आता प्राय: साधुओं की सेवा में लगा दिया करते थे. कहते हैं कि एक बार संडीले तहसील की मालगुजारी के कई लाख रूपये सरकारी खजाने में आए थे. इन्होंने सब का सब साधुओं को खिलापिला दिया और शाही खजाने में कंकड़-पत्थरों से भरे संदूक भेज दिए जिनके भीतर कागज के चिट यह लिख कर रख दिए:
तेरह लाख सँडीले आए, सब साधुन मिलि गटके I
सूरदास मदनमोहन आधी रातहिं सटके II
और आधी रात को उठकर कहीं भाग गए. बादशाह ने इनका अपराध क्षमा करके इन्हें फिर बुलाया, पर ये विरक्त होकर वृंदावन में रहने लगे. इनकी कविता इतनी सरस होती थी कि इनके बनाए बहुत से पद सूरसागर में मिल गए. इनकी कोई पुस्तक प्रसिद्ध नहीं.
इनका रचनाकाल सन् 1533 ई. और 1543 ई. के बीच अनुमान किया जाता है.



नंददास

नंददास 16 वीं शती के अंतिम चरण में विद्यमान थे. इनके विषय में ‘भक्तमाल’ में लिखा है:

‘चन्द्रहास-अग्रज सुहृद परम प्रेम में पगे’
इससे इतना ही सूचित होता है कि इनके भाई का नाम चंद्रहास था. ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ के अनुसार ये तुलसीदास के भाई थे, किन्तु अब यह बात प्रामाणिक नहीं मानी जाती. उसी वार्ता में यह भी लिखा है कि द्वारका जाते हुए नंददास सिंधुनद ग्राम में एक रूपवती खत्रानी पर आसक्त हो गए. ये उस स्त्री के घर में चारो ओर चक्कर लगाया करते थे. घरवाले हैरान होकर कुछ दिनों के लिए गोकुल चले गए. वहाँ भी वे जा पहुँचे. अंत में वहीं पर गोसाईं विट्ठलनाथ जी के सदुपदेश से इनका मोह छूटा और ये अनन्य भक्त हो गए. इस कथा में ऐतिहासिक तथ्य केवल इतना ही है कि इन्होंने गोसाईं विट्ठलनाथ जी से दीक्षा ली.
इनके काव्य के विषय में यह उक्ति प्रसिद्ध है:

‘और कवि गढ़िया, नंददास जड़िया’

इससे प्रकट होता है कि इनके काव्य का कला-पक्ष महत्त्वपूर्ण है. इनकी रचना बड़ी सरस और मधुर है. इनकी सबसे प्रसिद्ध पुस्तक ‘रासपंचाध्यायी’ है जो रोला छंदों में लिखी गई है. इसमें जैसा कि नाम से ही प्रकट है, कृष्ण की रासलीला का अनुप्रासादियुक्त साहित्यिक भाषा में विस्तार के साथ वर्णन है.

कृतियाँ
—पद्य रचना
1. रासपंचाध्यायी 2. भागवत दशम स्कंध 3. रूक्मिणीमंगल 4. सिद्धांत पंचाध्यायी 5. रूपमंजरी 6. मानमंजरी 7. विरहमंजरी 8. नामचिंतामणिमाला 9. अनेकार्थनाममाला 10. दानलीला 11. मानलीला 12. अनेकार्थमंजरी 13. ज्ञानमंजरी 14. श्यामसगाई 15. भ्रमरगीत 16. सुदामाचरित्र *—गद्यरचना 1. हितोपदेश 2. नासिकेतपुराण


चैतन्य महाप्रभु

चैतन्य महाप्रभु भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में से एक हैं। इन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी। भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया तथा राजनैतिक अस्थिरता के दिनों में हिंदू मुस्लिम एकता की सद्भावना को बल दिया, जाति-पांत, ऊंच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त वृंदावन को फिर से बसाया और अपने जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत किया।

चैतन्य महाप्रभु का जन्म सन १४८६ की फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को पश्चिम बंगाल के नवद्वीप (नादिया) नामक उस गांव में हुआ, जिसे अब मायापुर कहा जाता है। यपि बाल्यावस्था में इनका नाम विश्वंभर था, परंतु सभी इन्हें निमाई कहकर पुकारते थे। गौरवर्ण का होने के कारण लोग इन्हें गौरांग, गौर हरि, गौर सुंदर आदि भी कहते थे। चैतन्य महाप्रभु के द्वारा गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय की आधारशिला रखी गई। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामंत्र नाम संकीर्तन का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत तक में है। इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र व मां का नाम शचि देवी था। निमाई बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे। साथ ही, अत्यंत सरल, सुंदर व भावुक भी थे। इनके द्वारा की गई लीलाओं को देखकर हर कोई हतप्रभ हो जाता था। बहुत कम उम्र में ही निमाई न्याय व व्याकरण में पारंगत हो गए थे। इन्होंने कुछ समय तक नादिया में स्कूल स्थापित करके अध्यापन कार्य भी किया। निमाई बाल्यावस्था से ही भगवद्चिंतन में लीन रहकर राम व कृष्ण का स्तुति गान करने लगे थे। १५-१६ वर्ष की अवस्था में इनका विवाह लक्ष्मीप्रिया के साथ हुआ। सन १५०५ में सर्प दंश से पत्नी की मृत्यु हो गई। वंश चलाने की विवशता के कारण इनका दूसरा विवाह नवद्वीप के राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया के साथ हुआ। जब ये किशोरावस्था में थे, तभी इनके पिता का निधन हो गया।

सन १५०९ में जब ये अपने पिता का श्राद्ध करने गया गए, तब वहां इनकी मुलाकात ईश्वरपुरी नामक संत से हुई। उन्होंने निमाई से कृष्ण-कृष्ण रटने को कहा। तभी से इनका सारा जीवन बदल गया और ये हर समय भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहने लगे। भगवान श्रीकृष्ण के प्रति इनकी अनन्य निष्ठा व विश्वास के कारण इनके असंख्य अनुयायी हो गए। सर्वप्रथम नित्यानंद प्रभु व अद्वैताचार्य महाराज इनके शिष्य बने। इन दोनों ने निमाई के भक्ति आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की। निमाई ने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर हरि नाम संकीर्तन करना प्रारंभ किया। ‘हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे। हरे-राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे` नामक अठारह शब्दीय कीर्तन महामंत्र निमाई की ही देन है। जब ये कीर्तन करते थे, तो लगता था मानो ईश्वर का आह्वान कर रहे हैं। सन १५१० में संत प्रवर श्री पाद केशव भारती से संन्यास की दीक्षा लेने के बाद निमाई का नाम कृष्ण चैतन्य देव हो गया। बाद में ये चैतन्य महाप्रभु के नाम से प्रख्यात हुए।

चैतन्य महाप्रभु संन्यास लेने के बाद नीलांचल चले गए। इसके बाद दक्षिण भारत के श्री रंग क्षेत्र व सेतु बंध आदि स्थानों पर भी रहे। इन्होंने देश के कोने-कोने में जाकर हरिनाम की महत्ता का प्रचार किया। सन १५१५ में वृंदावन आए। यहां इन्होंने इमली तला और अकूर घाट पर निवास किया। वृंदावन में रहकर इन्होंने प्राचीन श्रीधाम वृंदावन की महत्ता प्रतिपादित कर लोगों की सुप्त भक्ति भावना को जागृत किया। यहां से फिर ये प्रयाग चले गए। इन्होंने काशी, हरिद्वार, शृंगेरी (कर्नाटक), कामकोटि पीठ (तमिलनाडु), द्वारिका, मथुरा आदि स्थानों पर रहकर भगवद्नाम संकीर्तन का प्रचार-प्रसार किया। चैतन्य महाप्रभु ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष जगन्नाथ पुरी में रहकर बिताए। यहीं पर सन १५३३ में ४७ वर्ष की अल्पायु में रथयात्रा के दिन उनका देहांत हो गया।

चैतन्य महाप्रभु ने लोगों की असीम लोकप्रियता और स्नेह प्राप्त किया कहते हैं कि उनकी अद्भुत भगवद्भक्ति देखकर जगन्नाथ पुरी के राजा तक उनके श्रीचरणों में नत हो जाते थे। बंगाल के एक शासक के मंत्री रूपगोस्वामी तो मंत्री पद त्यागकर चैतन्य महाप्रभु के शरणागत हो गए थे। उन्होंने कुष्ठ रोगियों व दलितों आदि को अपने गले लगाकर उनकी अनन्य सेवा की। वे सदैव हिंदू-मुस्लिम एकता का संदेश देते रहे। साथ ही, उन्होंने लोगों को पारस्परिक सद्भावना जागृत करने की प्रेरणा दी। वस्तुत: उन्होंने जातिगत भेदभाव से ऊपर उठकर समाज को मानवता के सूत्र में पिरोया और भक्ति का अमृत पिलाया। वे गौडीय संप्रदाय के प्रथम आचार्य माने जाते हैं। उनके द्वारा कई ग्रंथ भी रचे गए। उन्होंने संस्कृत भाषा में भी तमाम रचनाएं की। उनका मार्ग प्रेम व भक्ति का था। वे नारद जी की भक्ति से अत्यंत प्रभावित थे, क्योंकि नारद जी सदैव ‘नारायण-नारायण` जपते रहते थे। उन्होंने विश्व मानव को एक सूत्र में पिरोते हुए यह समझाया कि ईश्वर एक है। उन्होंने लोगों को यह मुक्ति सूत्र भी दिया-’कृष्ण केशव, कृष्ण केशव, कृष्ण केशव, पाहियाम। राम राघव, राम राघव, राम राघव, रक्षयाम।` हिंदू धर्म में नाम जप को ही वैष्णव धर्म माना गया है और भगवान श्रीकृष्ण को प्रधानता दी गई है। चैतन्य ने इन्हीं की उपासना की और नवद्वीप से अपने छह प्रमुख अनुयायियों (षड गोस्वामियों), गोपाल भट्ट गोस्वामी, रघुनाथ भट्ट गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, रूप गोस्वामी, जीव गोस्वामी, रघुनाथ दास गोस्वामी को वृंदावन भेजकर वहां गोविंददेव मंदिर, गोपीनाथ मंदिर, मदन मोहन मंदिर, राधा रमण मंदिर, राधा दामोदर मंदिर, राधा श्यामसुंदर मंदिर और गोकुलानंद मंदिर नामक सप्त देवालयों की आधारशिला रखवाई। लोग चैतन्य को भगवान श्रीकृष्ण का अवतार मानते हैं।

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