मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

जायसी के साधना के सांम्प्रदायिक प्रतीक


जायसी के साधना के सांम्प्रदायिक प्रतीक

जायसी के प्रेम साधना में कुंडली योग की परिभाषाओं को अंगिकार कर लेने से पद्मावत पर भारतीयता का गहरा रंग चढ़ गया दिखाई देता है। इसमें कवि ने अपनी भावना के अनुरुप ही सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने के लिए अध्यात्मिक पथों का सहारा लिया है। इसलिए उन्होंने कई ऐसे प्रतीक का प्रयोग किया है, जो न सिर्फ आपसी सौहार्द के लिए आवश्यक है, बल्कि भारतीय संस्कृति का भी प्रतीक है —- घड़ियाल –
घरी- घरी घरियाल पुकारा।
पुजी बरा सो आपनि मारा।।
नौ पोरी पर दसवं दुबारा।
तेहि पर बाज राज घरियारा।।
 
– नोपौरी –
 
नौ पौरी पर दसवं दुवारा।
तेहि पर बाज राज घरियारा।।
नव पंवरी बांकी नव खड़ो।
नवहु जो चढ़े जाइ बरहमांड।।
 
– दसमद्वार –
 
दसवँ दुवारा गुपुत एक नांकी।
अगम चढ़ाव बाह सुठि बांकी।।
भेदी कोई जाई आहि घाटी।
जौ लै भेद चढ़ै होइ चांटी।।
दसवँ दुवारा तारुका लेखा।
उलटि दिस्टि जो लख सो देखा।।
 
नौ पौरी शरीर के नौ द्वार हैं, जिनका उल्लेख अथर्वेद के अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां वरयोध्यां इस वर्णन से ही मिलने लगता है। जायसी की विशेषता यह है कि इन नौ द्वारों की कल्पना को शरीरस्थ चक्रों के साथ मिला दिया है और उन्हें नव खण्डों के साथ संबंधित करके एक- एक खण्ड का एक- एक द्वार कहा है। इन नव के ऊपर दसवां द्वार है। मध्ययुगीन साधना में इसका बड़ा महत्व रहा है। जायसी ने भारतीय परिभाषाओं के साथ ही अत्यंत कुशलता के साथ बड़ी सरलता में सुफी साधना के चरिबसेरे का भी उल्लेख किया है –
 
नवौं खण्ड पोढि औ तहं वज्र के वार।
चारि बसेरे सौ चढ़ै सात सो उतरे पार।।
 
जायसी ने पद्मावती के माध्यम से ईश्वरी ज्योति को प्रकट करने का प्रयत्न किया है। इसके नायक रत्नसेन आत्मा का प्रतीक है। सिंहल यात्रा- आध्यात्मिक यात्रा का प्रतीक है –
 
पैगासाइँसन एक विनाती।
मारग कठिन जाब केहि भांती।।
सात समुद्र असुझ अपारा।
मारहिं मगर मच्छ घरियारा।।
 
उठैं लहरें नहिं जाहि संभारी।
भरविहि कोइ निबहे बेपारी।।
खार, खीर, दधि, जल, उदधि सुर फिलकिला अकूत।
को चढि नाँधे समुद्र ए हे काकार असबुत।।
 
जायसी को शरीअत पर आस्था थी, वे इसे सावधानास्था का प्रथम सोपान कहते थे –
 
साँची रोह “सरीअत’ जहि विसवास न होई।
पांव रखे तेहि सीढ़ी, निभरम पहूँचे सोई।।
 

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