सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

विद्यापति

विद्यापति


विद्यापति भारतीय साहित्य की भक्ति परंपरा के प्रमुख स्तंभों मे से एक और मैथिली के सर्वोपरि कवि के रूप में जाने जाते हैं। इनके काव्यों में मध्यकालीन मैथिली भाषा के स्वरुप का दर्शन किया जा सकता है। इन्हें वैष्णव और शैव भक्ति के सेतु के रुप में भी स्वीकार किया गया है। मिथिला के लोगों को ‘देसिल बयना सब जन मिट्ठा’ का सूत्र दे कर इन्होंने उत्तरी-बिहार में लोकभाषा की जनचेतना को जीवित करने का महती प्रयास किया है।
मिथिलांचल के लोकव्यवहार में प्रयोग किये जानेवाले गीतों में आज भी विद्यापति की श्रृंगार और भक्ति रस में पगी रचनायें जीवित हैं। ‘पदावली’ और ‘कीर्तिलता’ इनकी अमर रचनायें हैं।

 प्रमुख रचनायें

महाकवि विद्यापति संस्कृत, अबहट्ठ, मैथिली आदि अनेक भाषाओं के प्रकाण्ड पंडित थे। शास्र और लोक दोनों ही संसार में उनका असाधारण अधिकार था। कर्मकाण्ड हो या धर्म, दर्शन हो या न्याय, सौन्दर्य शास्र हो या भक्ति रचना, विरह व्यथा हो या अभिसार, राजा का कृतित्व गान हो या सामान्य जनता के लिए गया में पिण्डदान, सभी क्षेत्रों में विद्यापति अपनी कालजयी रचनाओं के बदौलत जाने जाते हैं। महाकवि ओईनवार राजवंश के अनेक राजाओं के शासनकाल में विराजमान रहकर अपने वैदुश्य एवं दूरदर्शिता सो उनका मार्गदर्शन करते रहे। जिन राजाओं ने महाकवि को अपने यहाँ सम्मान के साथ रखा उनमें प्रमुख है:
(क) देवसिंह (ख) कीर्तिसिंह (ग) शिवसिंह (घ) पद्मसिंह (च) नरसिंह (छ) धीरसिंह (ज) भैरवसिंह और (झ) चन्द्रसिंह।
इसके अलावे महाकवि को इसी राजवंश की तीन रानियों का भी सलाहकार रहने का सौभाग्य प्राप्त था। ये रानियाँ है:
(क) लखिमादेवी (देई) (ख) विश्वासदेवी और (ग) धीरमतिदेवी।
मैथिल कवि कोकिल, रसासिद्ध कवि विद्यापति, तुलसी, सूर, कबूर, मीरा सभी से पहले के कवि हैं। अमीर खुसरो यद्यपि इनसे पहले हुए थे। इनका संस्कृत, प्राकृत अपभ्रंश एवं मातृ भाषा मैथिली पर समान अधिकार था। विद्यापति की रचनाएँ संस्कृत, अवहट्ट, एवं मैथिली तीनों में मिलती हैं।
देसिल वयना अर्थात् मैथिली में लिखे चंद पदावली कवि को अमरच्व प्रदान करने के लिए काफी है। मैथिली साहित्य में मध्यकाल के तोरणद्वार पर जिसका नाम स्वर्णाक्षर में अंकित है, वे हैं चौदहवीं शताब्दी के संघर्षपूर्ण वातावरण में उत्पन्न अपने युग का प्रतिनिधि मैथिली साहित्य-सागर का वाल्मीकि-कवि कोकिल विद्यापति ठाकुर। बहुमुखी प्रतिमा-सम्पन्न इस महाकवि के व्यक्तित्व में एक साथ चिन्तक, शास्रकार तथा साहित्य रसिक का अद्भुत समन्वय था। संस्कृत में रचित इनकी पुरुष परीक्षा, भू-परिक्रमा, लिखनावली, शैवसर्वश्वसार, शैवसर्वश्वसार प्रमाणभूत पुराण-संग्रह, गंगावाक्यावली, विभागसार, दानवाक्यावली, दुर्गाभक्तितरंगिणी, गयापतालक एवं वर्षकृत्य आदि ग्रन्थ जहाँ एक ओर इनके गहन पाण्डित्य के साथ इनके युगद्रष्टा एवं युगस्रष्टा स्वरुप का साक्षी है तो दूसरी तरफ कीर्तिलता, एवं कीर्तिपताका महाकवि के अवह भाषा पर सम्यक ज्ञान के सूचक होने के साथ-साथ ऐतिहासिक साहित्यिक एवं भाषा सम्बन्धी महत्व रखनेवाला आधुनिक भारतीय आर्य भाषा का अनुपम ग्रन्थ है। परन्तु विद्यापति के अक्षम कीर्ति का आधार, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, है मैथिली पदावली जिसमें राधा एवं कृष्ण का प्रेम प्रसंग सर्वप्रथम उत्तरभारत में गेय पद के रुप में प्रकाशित है। इनकी पदावली मिथिला के कवियों का आदर्श तो है ही, नेपाल का शासक, सामंत, कवि एवं नाटककार भी आदर्श बन उनसे मैथिली में रचना करवाने लगे बाद में बंगाल, असम तथा उड़ीसा के वैष्णभक्तों में भी नवीन प्रेरणा एवं नव भावधारा अपने मन में संचालित कर विद्यापति के अंदाज में ही पदावलियों का रचना करते रहे और विद्यापति के पदावलियों को मौखिक परम्परा से एक से दूसरे लोगों में प्रवाहित करते रहे।
कवि कोकिल की कोमलकान्त पदावली वैयक्तिकता, भावात्मकता, संश्रिप्तता, भावाभिव्यक्तिगत स्वाभाविकता, संगीतात्मकता तथा भाषा की सुकुमारता एवं सरलता का अद्भुत निर्देशन प्रस्तुत करती है। वर्ण्य विषय के दृष्टि से इनकी पदावली अगर एक तरफ से इनको रससिद्ध, शिष्ट एवं मर्यादित श्रृंगारी कवि के रुप में प्रेमोपासक, सौन्दर्य पारसी तथा पाठक के हृदय को आनन्द विभोर कर देने वाला माधुर्य का स्रष्टा, सिद्धहस्त कलाकार सिद्ध करती है तो दूसरी ओर इन्हें भक्त कवि के रुप में शास्रीय मार्ग एवं लोकमार्ग दोनों में सामंजस्य उपस्थित करने वाला धर्म एवं इष्टदेव के प्रति कवि का समन्वयात्मक दृष्टिकोण का परिचय देने वाला एक विशिष्ट भक्त हृदय का चित्र उपस्थित करती है साथ ही साथ लोकाचार से सम्बद्ध व्यावहारिक पद प्रणेता के रुप में इनको मिथिला की सांस्कृतिक जीवन का कुशल अध्येता प्रमाणित करती है। इतना ही नहीं, यह पदावली इनके जीवन्त व्यक्तित्व का भोगा हुआ अनुभूति का साक्षी बन समाज की तात्कालीन कुरीति, आर्थिक वैषम्य, लौकिक अन्धविश्वास, भूत-प्रेत, जादू-टोना, आदि का उद्घाटक भी है। इसके अलावे इस पदावली की भाषा-सौष्ठव, सुललित पदविन्यास, हृदयग्राही रसात्मकता, प्रभावशाली अलंकार, योजना, सुकुमार भाव व्यंजना एवं सुमधुर संगीत आदि विशेषता इसको एक उत्तमोत्तम काव्यकृति के रुप में भी प्रतिष्ठित किया है। हालांकि यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि महाकवि विद्यापत् अपनी अमर पदावली के रचना के लिए अपने पूर्ववर्ती संस्कृत कवियों खासकर भारवि, कालिदास, जयदेव, हर्ष अमरुक, गोवर्द्धनाचार्य आदि से कम ॠणि नहीं हैं। क्योंकि जिस विषयों को महाकवि ने अपनी पदावली में प्रस्तुत किया वे विषय पूर्व से ही संस्कृत के कवियों की रचनाओं में प्रस्तुत हो चुका था । विद्यापति की मौलिकता इसमें निहित है कि इन्होने उन रचनाओं की विषय उपमा अलंकार परिवेश आदि का अन्धानुकरण न कर उसमें अपने दीर्ध जीवन का महत्वपूर्ण एवं मार्मिक नानाविध अनुभव एवं आस्था को अनुस्यूत कर अप्रतिम माधुर्य एवं असीम प्राणवत्ता से युक्त मातृभाषा में यो प्रस्तुत किया कि वह इनके हृदय से न:सृक वल्कु लबजही मानव के हृदय में प्रवेश कर जाता है। यही कारण है कि महाकवि की काव्य प्रतिमा की गुञ्ज मात्र मिथिलांचल तक नहीं अपितु समस्त पूर्वांचल में, पूर्वांचल में भी क्यों समस्त भारतवर्ष में, समस्त भारतवर्ष में ही क्यों अखिल विश्व में व्याप्त है। राजमहल से लेकर पर्णकुटी तक में गुंजायमान विद्यापति का कोमलकान्त पदावली वस्तुत: भारतीय साहित्य की अनुपम वैभव है।
विद्यापति के प्रसंग में स्वर्गीय डॉ. शैलेन्द्र मोहन झा की उक्ति वस्तुत: शतप्रतिशत यथार्थ हैष वे लिखते हैं:
“नेपालक पार्वत्य नीड़ रटओ अथवा कामरुपक वनवीचिका, बंगालक शस्य श्यामला भूमि रहओ अथवा उतकलक नारिकेर निकुंज, विद्यापतिक स्वर सर्वत्र समान रुप सँ गुंजित होइत रहैत छनि। हिनक ई अमर पदावली जहिना ललनाक लज्जावृत कंठ सँ, तहिना संगीतज्ञक साधित स्वरसँ, राजनर्तकीक हाव-भाव विलासमय दृष्टि निक्षेपसँ, भक्त मंडलीक कीर्तन नर्तन सँ, वैष्णव-वैश्णवीक एकताराक झंकारसँ नि:सृत होइत युग-युगसँ श्रोतागणकें रस तृप्त करैत रहल अछि एवं करत। मिथिला मैथिलक जातीय एवं सांस्कृतिक गरिमाक मान-बिन्दु एवं साहित्यिक जागरणक प्रतीक चिन्हक रुप में आराध्य एवं आराधित महाकवि विद्यापतिक रचना जरिना मध्यकालीन मैथिली साहित्यिक अनुपम निधि आछि तहिना मध्यकाल में रचित समस्त मैथिली साहित्य सेहो हिनके प्रभावक एकान्त प्रतिफल अछि।”
महाकवि विद्यापति का जन्म वर्तमान मधुबनी जनपद के बिसपू नामक गाँव में एक सभ्रान्त मैथिल ब्राह्मण गणपति ठाकुर (इनके पिता का नाम) के घर हुआ था। बाद में यसस्वी राजा शिवसिंह ने यह गाँव विद्यापति को दानस्वरुप दे दिया था। इस दानपत्र कि प्रतिलिपि आज भी विद्यापति के वंशजों के पास है जो आजकल सौराठ नामक गाँव में रहते हैं। उपलब्ध दस्तावेजों एवं पंजी-प्रबन्ध की सूचनाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि महाकवि अभिनव जयदेव विद्यापति का जन्म ऐसे यशस्वी मैथिल ब्राह्मण परिवार में हुआ था, जिस पर विद्या की देवी सरस्वती के साथ लक्ष्मी की भी असीम कृपा थी। इस विख्यात वंश में (विषयवार विसपी) एक-से-एक विद्धान्, शास्रज्ञ, धर्मशास्री एवं राजनीतिज्ञ हुए। महाकवि के वृहृप्रपितामह देवादिव्य कर्णाटवंशीय राजाओं के सन्धि, विग्रहिक थे तथा देवादिव्य के सात पुत्रों में से धीरेश्वर, गणेश्वर, वीरेश्वर
आदि महराज हरिसिंहदेव की मन्त्रिपरिषद् में थे। इनके पितामह जयदत्त ठाकुर एवं पिता गणपति ठाकुर राजपण्डित थे। इस तरह पाण्डिल्य एवं शास्रज्ञान कवि विद्यापति को सहज उत्तराधिकार में मिला था। अनेक शास्रीय विषयों पर कालजयी रचना का निर्माण करके विद्यापति ने अपने पूर्वजों की परम्परा को ही आगे बढ़ाया।
ऐसे किसी भी लिखित प्रमाण का अभाव है जिससे यह पता लगाया जा सके कि महाकवि कोकिल विद्यापति ठाकुर का जन्म कब हुआ था। यद्यपि महाकवि के एक पद से स्पष्ट होता है कि लक्ष्मण-संवत् २९३, शाके १३२४ अर्थात् मन् १४०२ ई. में देवसिंह की मृत्यु हुई और राजा शिवसिंह मिथिला नरेश बने। मिथिला में प्रचलित किंवदन्तियों के अनुसार उस समय राजा शिवसिंह की आयु ५० वर्ष की थी और कवि विद्यापति उनसे दो वर्ष बड़े, यानी ५२ वर्ष के थे। इस प्रकार १४०२-५२उ१३५० ई. में विद्यापति की जन्मतिथि मानी जा सकती है। लक्ष्मण-संवत् की प्रवर्त्तन तिथि के सम्बन्ध में विवाद है। कुछ लोगों ने सन् ११०९ ई. से, तो कुथ ने १११९ ई. से इसका प्रारंभ माना है। स्व. नगेन्द्रनाथ गुप्त ने लक्ष्मण-संवत् २९३ को १४१२ ई. मानकर विद्यापत् की जन्मतिथि १३६० ई. में मानी है। ग्रिपर्सन और महामहोपाध्याय उमेश मिश्र की भी यही मान्यता है। परन्तु श्रीब्रजनन्दन सहाय “ब्रजवल्लभ”, श्रीराम वृक्ष बेनीपुरी, डॉ. सुभद्र झा आदि सन् १३५० ई. को उनका जन्मतिथि का वर्ष मानते हैं। डॉ. शिवप्रसाद के अनुसार “विद्यापति का जन्म सन् १३७४ ई. के आसपास संभव मालूम होता है।” अपने ग्रन्थ विद्यापति की भूमिका में एक ओर डॉ. विमानविहारी मजुमदार लिखते है कि “यह निश्चिततापूर्वक नहीं जाना जाता है कि विद्यापति का जन्म कब हुआ था और वे कितने दिन जीते रहे” (पृ। ४३) और दूसरी ओर अनुमान से सन् १३८० ई. के आस पास उनकी जन्मतिथि मानते हैं।
हालांकि जनश्रुति यह भी है कि विद्यापति राजा शिवसेंह से बहुत छोटे थे। एक किंवदन्ती के अनुसार बालक विद्यापति बचपन से तीव्र और कवि स्वभाव के थे। एक दिन जब ये आठ वर्ष के थे तब अपने पिता गणपति ठाकुर के साथ शिवसेंह के राजदरबार में पहुँचे। राजा शिवसिंह के कहने पर इन्होने निम्नलिखित दे पंक्तियों का निर्माण किया:
पोखरि रजोखरि अरु सब पोखरा।
राजा शिवसिंह अरु सब छोकरा।।
यद्यपि महाकवि की बाल्यावस्था के बारे में विशेष जानकारी नहीं है। विद्यापति ने प्रसिद्ध हरिमिश्र से विद्या ग्रहण की थी। विख्यात नैयायिक जयदेव मिश्र उर्फ पक्षधर मिश्र इनके सहपाठी थे। जनश्रुतियों से ऐसा ज्ञात होता है।
लोगों की धारणा यह है कि महाकवि अपने पिता गणपति ठाकुर के साथ बचपन से ही राजदरबार में जाया करते थे। किन्तु चौदहवीं सदी का शेषार्ध मिथिला के लिए अशान्ति और कलह का काल था। राजा गणेश्वर की हत्या असलान नामक यवन-सरदार ने कर दी थी। कवि के समवयस्क एवं राजा गणेश्वर के पुत्र कीर्तिसिंह अपने खोये राज्य की प्राप्ति तथा पिता की हत्या का बदला लेने के लिए प्रयत्नशील थे। संभवत: इसी समय महाकवि ने नसरतशाह और गियासुद्दीन आश्रमशाह जैसे महपुरुषों के लिए कुछ पदों की रचना की। राजा शिवसिंह विद्यापति के बालसखा और मित्र थे, अत: उनके शासन-काल के लगभग चार वर्ष का काल महाकवि के जीवन का सबसे सुखद समय था। राजा शिवसिंह ने उन्हें यथेष्ठ सम्मान दिया। बिसपी गाँव उन्हें दान में पारितोषिक के रुप में दिया तथा ‘अभिनवजयदेव’ की उपाधि से नवाजा। कृतज्ञ महाकवि ने भी अपने गीतों द्वारा अपने अभिन्न मित्र एवं आश्रयदाता राजा शिवसिंह एवं उनकी सुल पत्नी रानी लखिमा देवी (ललिमादेई) को अमर कर दिया। सबसे अधिक लगभग २५० गीतों में शिवसिंह की भणिता मिलती है।
किन्तु थोड़े ही समय में ही पुन: मिथिला पर दुर्दैव का भयानक कोप हुआ। यवनों के आसन्न आक्रमण का आभाष पाकर राजा शिवसिंह ने विद्यापति के संरक्षण में अपने परिजनों को नेपाल-तराई-स्थित द्रोणवार के अधिपति पुरादित्य के आश्रम में रजाबनौली भेज दिया। युद्ध क्षेत्र में सम्भवत: शिवसिंह मारे गये। विद्यापति लगभग १२ वर्ष तक पुरादित्य के आश्रम में रहे। वहीं इन्होने लिखनावली की रचना की उस समय के एक पद से ज्ञात होता है कि उनके लिए यह समय बड़ा दु:खदायी था। शिवसिंह के छोटे भाई पद्मसिंह को राज्याधिकार मिलने पर औइनवार-वंशीय राजाओं का आश्रय पुन: महाकवि को प्राप्त हुआ और वे मिथिला वापस लौट आए। पद्मसिंह के केवल एक वर्ष के शासन के बाद उनकी धर्मपत्नी विश्वासदेवी मिथिला के राजसिंहासन पर बैठी, जिनके आदेश से उन्होने दो महत्वपूर्ण ग्रन्थः शैवसर्वस्वसार तथा गंगावाक्यावली लिखे। विश्वासदेवी के बाद राजा नरसिंहदेव ‘दपंनारायण’, महारानी धीरमती, महाराज धीरसिंह ‘हृदयनारायण’, महाराज भैरवसिंह ‘हरिनारायण’ तथा चन्द्रसिंह ‘रुपनारायण’ के शासनकाल में महाकवि को लगातार राज्याश्रय प्राप्त होता रहा था।
जन्मतिथि की तरह महाकवि विद्यापति ठाकुर की मृत्यु के सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतभेद है। इतना स्पष्ट है और जनश्रुतियाँ बताती है कि आधुनिक बेगूसराय जिला के मउबाजिदपुर (विद्यापतिनगर) के पास गंगातट पर महाकवि ने प्राण त्याग किया था। उनकी मृत्यु के सम्बन्ध में यह पद जनसाधारण में आज भी प्रचलित है:
‘विद्यापतिक आयु अवसान
कातिक धवल त्रयोदसि जान।’
यहाँ एक बात स्पषट करना अनिवार्य है। विद्यापति शिव एवं शक्ति दोनों के प्रबल भक्त थे। शक्ति के रुप में उन्होंने दुर्गा, काली, भैरवि, गंगा, गौरी आदि का वर्णन अपनी रचनाओं में यथेष्ठ किया है। मिथिला के लोगों में यह बात आज भी व्याप्त है कि जब महाकवि
विद्यापति काफी उम्र के होकर रुग्न हो गए तो अपने पुत्रों और परिजनों को बुलाकर यह आदेश दिया:
“अब मैं इस शरीर का त्याग करना चाहता हूँ। मेरी इच्छा है कि मैं गंगा के किनारे गंगाजल को स्पर्श करता हुआ अपने दीर्ध जीवन का अन्तिम सांस लूं। अत: आप लोग मुझे गंगालाभ कराने की तैयारी में लग जाएं। कहरिया को बुलाकर उस पर बैठाकर आज ही हमें सिमरिया घाट (गंगातट) ले चलें।”
अब परिवार के लोगों ने महाकवि का आज्ञा का पालन करते हुए चार कहरियों को बुलाकर महाकवि के जीर्ण शरीर को पालकी में सुलाकर सिमरिया घाट गंगालाभ कराने के लिए चल पड़े – आगे-आगे कहरिया पालकी लेकर और पीछे-पीछे उनके सगे-सम्बन्धी। रात-भर चलते-चलते जब सूर्योदय हुआ तो विद्यापति ने पूछा: “भाई, मुझे यह तो बताओं कि गंगा और कितनी दूर है?”
“ठाकुरजी, करीब पौने दो कोस।” कहरियों ने जवाब दिया। इस पर आत्मविश्वास से भरे महाकवि यकाएक बोल उठे: “मेरी पालकी को यहीं रोक दो। गंगा यहीं आएंगी।”
“ठाकुरजी, ऐसा संभव नहीं है। गंगा यहाँ से पौने दो कोस की दूरी पर बह रही है। वह भला यहाँ कैसे आऐगी? आप थोड़ी धैर्य रक्खें। एक घंटे के अन्दर हम लोग सिमरिया घाट पहुँच जाएंगे।”
“नहीं-नहीं, पालकी रोके” महाकवि कहने लगे, “हमें और आगे जाने की जरुरत नहीं। गंगा यहीं आएगी। आगर एक बेटा जीवन के अन्तिम क्षण में अपनी माँ के दर्शन के लिए जीर्ण शरीर को लेकर इतने दूर से आ रहा है तो क्या गंगा माँ पौने दो कोस भी अपने बेटे से मिलने नहीं आ सकती? गंगा आएगी और जरुर आएगी।”
इतना कहकर महाकवि ध्यानमुद्रा में बैठ गए। पन्द्रह-बीस मिनट के अन्दर गंगा अपनी उफनती धारा के प्रवाह के साथ वहाँ पहुँच गयी। सभी लोग आश्चर्य में थे। महाकवि ने सर्वप्रथम गंगा को दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया, फिर जल में प्रवेश कर निम्नलिखित गीत की रचना की:
बड़ सुखसार पाओल तुअ तीरे।
छोड़इत निकट नयन बह नीरे।।
करनोरि बिलमओ बिमल तरंगे।
पुनि दरसन होए पुनमति गंगे।।
एक अपराध घमब मोर जानी।
परमल माए पाए तुम पानी।।
कि करब जप-तप जोग-धेआने।
जनम कृतारथ एकहि सनाने।।
भनई विद्यापति समदजों तोही।
अन्तकाल जनु बिसरह मोही।।
इस गंगा स्तुति का अर्थ कुछ इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है:
“हे माँ पतित पावनि गंगे, तुम्हारे तट पर बैठकर मैंने संसार का अपूर्व सुख प्राप्त किया। तुम्हारा सामीप्य छोड़ते हुए अब आँखों से आँसू बह रहे हैं। निर्मल तरंगोवानी पूज्यमती गंगे! मैं कर जोड़ कर तुम्हारी विनती करता हूँ कि पुन: तुम्हारे दर्शन हों।”
ठमेरे एक अपराध को जानकर भी समा कर देना कि हे माँ! मैंने तुम्हें अपने पैरों से स्पर्श कर दिया। अब जप-तप, योग-ध्यान की क्या आवश्यकता? एक ही स्नान में मेरा जन्म कृतार्थ हो गया। विद्यापति तुमसे (बार-बार) निवेदन करते है कि मृत्यु के समय मुझे मत भूलना।”
इतना ही नहीं, कवि विद्यापति ने अपनी पुत्री दुल्लहि को सम्बोधित करते हुए गंगा नदी के तट पर एक और महत्वपूर्ण गीत का निर्माण किया। यह गीत कुछ इस प्रकार है:
दुल्लहि तोर कतय छथि माय।
कहुँन ओ आबथु एखन नहाय।।
वृथा बुझथु संसार-विलास।
पल-पल नाना भौतिक त्रास।।
माए-बाप जजों सद्गति पाब।
सन्नति काँ अनुपम सुख आब।।
विद्यापतिक आयु अवसान।
कार्तिक धबल त्रयोदसि जान।।
इसका सारांश यह है कि महाकवि वयोवद्ध हो चुके हैं। अपने जीवन का अंत नजदीक देखकर इस नश्वर शरीर का त्याग करने के पवित्र तट पर अपने सखा-सम्बन्धियों के साथ पहुँच गये हैं। पूज्यशलीला माँ गंगा अपने इस महान यशस्वी पुत्र को अंक में समेट लेने के लिए प्रस्तुत हो गई हैं। इसी क्षण महाकवि विद्यापति अपनी एकलौती पुत्री को सम्बोधित करते हुए कहते हैं, अही दुलारि, तुम्हारी माँ कहाँ है.? कहो न कि अब जल्दी से स्नान करके चली आएं। भाई, देरी करने से भला क्या होगा? इस संसार के भोग-विलास आदि को व्यर्थ समझें। यहाँ पल-पल नाना प्रकार का भय, कष्ट आदि का आगमन होता रहता है। अगर माता-पिता को सद्गति मिल जाये तो उसके कुल और परिवार के लोगों को अनुपम सुख मिलना चाहिए। क्या तुम्हारी माँ नहीं जानती हैं जो आज जति पवित्र कार्तिक युक्त त्रयोदशी तिथि है। अब मेरे जीवन का अन्त निश्चित है।” इस तरह से गंगा के प्रति महाकवि ने अपनी अटूट श्रद्धा दिखाया। और इसके बाद ही उन्होंने जीवन का अन्तिम सांस इच्छानुसार गंगा के किनारे लिया।
नगेन्द्रनाथ गुप्त सन् १४४० ई. को महाकवि की मृत्यु तिथि का वर्ष मानते हैं। म.म. उमेश मिश्र के अनुसार सन् १४६६ ई. के बाद तक भी विद्यापति जीवित थे। डॉ. सुभद्र झा का मानना है कि “विश्वस्त अभिलेखों के आधार पर हम यह कहने की स्थिति में है कि हमारे कवि का मसय १३५२ ई. और १४४८ ई. के मध्य का है। सन् १४४८ ई. के बाद के व्यक्तियों के साथ जो विद्यापति की समसामयिकता को जोड़ दिया जाता है वह सर्वथा भ्रामक हैं।” डॉ. विमानबिहारी मजुमदार सन् १४६० ई. के बाद ही महाकवि का विरोधाकाल मानते हैं। डॉ. शिवप्रसाद सिंह विद्यापति का मृत्युकाल १४४७ मानते है।
महाकवि विद्यापति ठाकुर के पारिवारिक जीवन का कोई स्वलिखित प्रमाण नहीं है, किन्तु मिथिला के उतेढ़पोथी से ज्ञात होता है कि इनके दो विवाह हुए थे। प्रथम पत्नी से नरपति और हरपति नामक दो पुत्र हुए थे और दूसरी पत्नी से एक पुत्र वाचस्पति ठाकुर तथा एक पुत्री का जन्म हुआ था। संभवत: महाकवि की यही पुत्री ‘दुल्लहि’ नाम की थी जिसे मृत्युकाल में रचित एक गीत में महाकवि अमर कर गये हैं।
कालान्तर में विद्यापति के वंशज किसी कारणवश (शायद यादवों एवं मुसलमानों के उपद्रव से तंग आकर) विसपी को त्यागकर सदा के लिए सौराठ गाँव (मधुबनी जिला में स्थित समागाछी के लिए प्रसिद्ध गाँ) आकर बस गए। आज महाकवि के सभी वंशज इसी गाँव में निवास करते हैं।
काव्य और साहित्य के क्षेत्र में महाकवि ने निम्नलिखित ग्रन्थों की रचना की-
(क) पुरुषपरीक्षा
(
ख) भूपरिक्रमा
(
ग) कीर्तिलता
(
घ) कीर्तिपताका
(
च) गोरक्षविजयांटक तथा
(
छ) मणिमंजरीनाटिका।
इन ग्रन्थों के सम्बन्ध में संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है:
(क) पुरुषपरीक्षा
महाकवि विद्यापति ठाकुर ने पुरुष परीक्षा की रचना महाराजा शिवसिंह के निर्देशन पर किया था। यह ग्रन्थ पश्चिम के समाजशास्रियों के इस भ्रान्त कि “भारत में concept of man in Indian Tradition नामक विषय पर पटना विश्वविद्यालय के महान समाजशास्री प्रो. हेतुकर झा ने एक उत्तम कोटि की ग्रन्थ की रचना की है। यह ग्रन्थ समाजशास्रियों, इतिहासकारों, मानव वैज्ञानिको, राजनीतिशास्रियों के साथ-साथ दर्शन एवं साहित्य के लोगों के लिए भी एक अपूर्व कृति है। पुरुषपरीक्षा की कथा दी गयी है। वीरकथा, सुबुद्धिकथा, सुविद्यकथा और पुरुषार्थकथा- इन चार वर्गों पञ्चतन्त्र की परम्परा में शिक्षाप्रद कथाएँ प्रस्तुत की गयी हैं।
(ख) भूपरिक्रमा
भूपरिक्रमा नामक एक अत्यन्त प्रभावकारी ग्रन्थ की रचना महाकवि विद्यापति ठाकुर ने महाराज देवसिंह की आज्ञा से की थी। इस ग्रन्थ में बलदेवजी द्वारा की गयी भूपरिक्रमा का वर्णन है और नैमिषारण्य से मिथिला तक के सभी तीर्थ स्थलों का वर्णन है। भूपरिक्रमा को महाकवि का प्रथम ग्रन्थ माना जाता है। कारण, औइनवारवंशीय जिन राजा या रानियों के आदेश से कविश्रेष्ठ विद्यापति ठाकुर ने ग्रन्थ रचना की, उनमें सबसे वयोवृद्ध देवसिंह ही थे। भाषा और शैली की दृष्टि से भी मालूम होता है कि यह कवि की प्रथम रचना है।
(ग) कीर्तिलता
परवर्ती अपभ्रंश को ही संभवत: महाकवि ने अवहट्ठ नाम दिया है। ज्ञातव्य है कि महाकवि के पूर्व अद्दहयाण (अब्दुल रहमान) ने भी ‘सन्देशरासक’ की भाषा को अबहट्ठ ही कहा था। कीर्तिलता की रचना महाकवि विद्यापति ठाकुर ने अवहट्ठ में की है और इसमें महाराजा कीर्तिसिंह का कीर्तिकीर्तन किया है। ग्रन्थ के आरम्भ में ही महाकवि लिखते है:
… श्रोतुर्ज्ञातुर्वदान्यस्य कीर्तिसिंह महीपते:।
करोतु कवितु: काव्यं भव्यं विद्यापति: कवि:।।
अर्थात् महाराज कीर्तिसिंह काव्य सुननेवाले, दान देनेवाले, उदार तथा कविता करनेवाले हैं। इनके लिए सुन्दर, मनोहर काव्य की रचना कवि विद्यापति करते हैं। यह ग्रन्थ प्राचीन काव्यरुढियों के अनुरुप शुक-शुकी-संवाद के रुप में लिखा गया है।
कीर्तिसिंह के पिता राम गणेश्वर की हत्या असलान नामक पवन सरदार ने छल से करके मिथिला पर अधिकार कर लिया था। पिता की हत्या का बदला लेने तथा राज्य की पुनर्प्राप्ति के लिए कीर्तिसिंह अपने भाई वीरसिंह के साथा जौनापुर (जौनपुर) गये और वहाँ के सुलतान की सहायता से असलान को युद्ध में परास्त कर मिथिला पर पुन: अधिकार किया। जौनपुर की यात्रा, वहाँ के हाट-बाजार का वर्णन तथा महाराज कीर्तिसिंह की वीरता का उल्लेख कीर्तिलता में है। इसके वर्णनों में यर्थाध के साथ शास्राय पद्धति का प्रभाव भी है। वर्णन के ब्यौरे पर ज्योतिरीश्वर के वर्णरत्नाकर की स्पष्ट धाप है। तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति के अध्ययन के लिए कीर्तिलता से बहुत सहायता ली जा सकती है। इस ग्रन्थ की रचना तक महाकवि विद्यापति ठाकुर का काव्यकला प्रौढ़ हो चुकी थी। इसी कारण इन्होंने आत्मगौरवपरक पंक्तियाँ लिखी:
बालचन्द विज्जावड़ भासा, दुहु नहिं लग्गइ दुज्जन हासा।
ओ परमेसर हर सिर सोहइ, ई णिच्चई नाअर मन मोहइ।।
चतुर्थ पल्लव के अन्त में महाकवि लिखते हैं:
“…माधुर्य प्रसवस्थली गुरुयशोविस्तार शिक्षासखी।
यावद्धिश्चमिदञ्च खेलतु कवेर्विद्यापतेर्भारती।।”
म.म. हरप्रसाद शास्री ने भ्रमवश ‘खेलतु कवे:’ के स्थान पर ‘खेलनकवे:’ पढ़ लिया और तब से डॉ. बाबूराम सक्सेना, विमानविहारी मजुमदार, डॉ. जयकान्त मिश्र, डॉ. शिवप्रसाद सिंह प्रभृति विद्धानों ने विद्यापति का उपनाम ‘खेलन कवि’ मान लिया। यह अनवमान कर लिया गया कि चूँकि कवि अपने को ‘खेलन कवि’ कहता है, अर्थात् उसके खेलने की ही उम्र है, इसलिए कीर्तिलता महाकवि विद्यापति ठाकुर की प्रथम रचना है। अब इस भ्रम की कोई गुंजाइश नहीं है और कीर्तिलता में कवि की विकसित काव्य-प्रतिमा के दर्शन होते हैं।
(घ) कीर्तिपताका
महाकवि विद्यापति ठाकुर ने बड़े ही चतुरता से महाराजा शिवसिंह का यशोवर्णन किया है। इस ग्रन्थ की रचना दोहा और छन्द में की गयी है। कहीं-कहीं पर संस्कृत के श्लोकों का भी प्रयोग किया गया है। कीर्तिपताका ग्रन्थ की खण्डित प्रति ही उपलब्ध है, जिसके बीच में ९ से २९ तक के २१ पृष्ठ अप्राप्त हैं। ग्रन्थ के प्रारंभ में अर्द्धनारीश्वर, चन्द्रचूड़ शिव और गणेश की वन्दना है। कीर्तिपताका ग्रन्थ के ३० वें पृष्ठ से अन्त तक शिवसिंह के युद्ध पराक्रम का वर्णन है। इसलिए डॉ. वीरेन्द्र श्रीवास्तव अपना वक्तव्य कुछ इस तरह लिखते हैं कि “अत: निर्विवाद रुप से पिछले अंश को विद्यापति-विरचित कीर्तिपताका कहा जा सकता है, जो वीरगाथा के अनुरुप वीररस की औजस्विता से पूर्ण है” (विद्यापति-अनुशीलन एवं मूल्यांकन खण्ड-१, पृ.३०)।
(च) गोरक्षविजय
गोरक्षविजय के रुप में विद्यापति ने एक नूतन प्रयोग किया है। यह एक एकांकी नाटक है। इसके कथनोपकथन में संस्कृत और प्राकृत भाषा का प्रयोग है। गीत कवि की मातृभाषा मैथिली में है। गोरक्षनाथ और मत्स्येन्द्रनाथ की प्रसिद्ध कथा पर यह नाटक आधारित है। कहते हैं कि महाकवि ने इस नाटक की रचना महाराजा शिवसिंह की आज्ञा से किया था।
(छ) मणिमंजरा नाटिका
यह एक लघु नाटिका है। इस नाटिका में राजा चन्द्रसेन और मणिमंजरी के प्रेम का वर्णन है।

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें