नदी के द्वीप
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन “अज्ञेय” |
हम नदी के द्वीप है। |
हम नही कहते कि हमको छोड कर स्रोतस्विन बह जाय। |
वह हमें आकार देती है। |
हमारे कोण, गलियां, अन्तरीप, उभार, सैकत-कूल, |
सब गोलाइयां उसकी गढी है ! |
मां है वह । है, इसी से हम बने है। |
किन्तु हम है द्वीप । हम धारा नहीं है । |
स्थिर समर्पण है हमारा । हम सदा से द्वीप है स्रोतस्विनी के |
किन्तु हम बहते नहीं है । क्योंकि बहना रेत होना है । |
हम बहेंगे तो रहेंगे ही नही। |
पैर उखडेंगे। प्लवन होगा । ढहेंगे । सहेंगे । बह जायेंगे । |
और फ़िर हम चूर्ण हो कर भी कभी क्या धार बन सकते ? |
रेत बनकर हम सलिल को तनिक गंदला ही करेंगे- |
अनुपयोगी ही बनायेंगे । |
द्वीप है हम । यह नहीं है शाप । यह अपनी नियति है । |
हम नदी के पुत्र है । बैठे नदी के क्रोड में । |
वह वृहद् भूखण्ड से हम को मिलाती है । |
और वह भूखण्ड अपना पितर है । |
नदी, तुम बहती चलो । |
भूखण्ड से जो दाय हमको मिला है, मिलता रहा है, |
मांजती, संस्कार देती चलो । यदि ऐसा कभी हो - |
तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के किसी स्वैराचार से, अतिचार स्र, |
तुम बढो, प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे- |
यह स्रोतस्विनी ही कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर काल-प्रवाहिनी बन |
जाय- |
तो हमें स्वीकार है वह भी । उसी में रेत होकर |
फ़िर छनेंगे हम । जमेंगे हम । कहीं फ़िर पैर टेकेंगे । |
कहीं भी खडा होगा नये व्यक्तित्व का आकार । |
मातः, उसे फ़िर संस्कार तुम देना । |
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें