
चिंता – कामायनी
चिंता-सर्ग
कामायनी : जयशंकर प्रसाद
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर,बैठ शिला की शीतल छाँह
एक पुरुष, भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह |
नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन |
दूर दूर तक विस्तृत था हिम स्तब्ध उसी के हृदय समान,
नीरवता-सी शिला-चरण से टकराता फिरता पवमान |
तरूण तपस्वी-सा बैठा साधन करता सुर-स्मशान,
नीचे प्रलय सिंधु लहरों का होता था सकरूण अवसान।
उसी तपस्वी-से लंबे थे देवदारू दो चार खड़े,
हुए हिम-धवल, जैसे पत्थर बनकर ठिठुरे रहे अड़े।
अवयव की दृढ मांस-पेशियाँ, ऊर्जस्वित था वीर्य्य अपार,
स्फीत शिरायें, स्वस्थ रक्त का...