मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

चिंता – कामायनी

चिंता – कामायनी चिंता-सर्ग कामायनी : जयशंकर प्रसाद हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर,बैठ शिला की शीतल छाँह एक पुरुष, भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह | नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन | दूर दूर तक विस्तृत था हिम स्तब्ध उसी के हृदय समान, नीरवता-सी शिला-चरण से टकराता फिरता पवमान | तरूण तपस्वी-सा बैठा साधन करता सुर-स्मशान, नीचे प्रलय सिंधु लहरों का होता था सकरूण अवसान। उसी तपस्वी-से लंबे थे देवदारू दो चार खड़े, हुए हिम-धवल, जैसे पत्थर बनकर ठिठुरे रहे अड़े। अवयव की दृढ मांस-पेशियाँ, ऊर्जस्वित था वीर्य्य अपार, स्फीत शिरायें, स्वस्थ रक्त का...

Pages 91234 »