चिंता – कामायनी
चिंता-सर्ग | |
कामायनी : जयशंकर प्रसाद | |
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर,बैठ शिला की शीतल छाँह | |
एक पुरुष, भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह | | |
नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, | |
एक तत्व की ही प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन | | |
दूर दूर तक विस्तृत था हिम स्तब्ध उसी के हृदय समान, | |
नीरवता-सी शिला-चरण से टकराता फिरता पवमान | | |
तरूण तपस्वी-सा बैठा साधन करता सुर-स्मशान, | |
नीचे प्रलय सिंधु लहरों का होता था सकरूण अवसान। | |
उसी तपस्वी-से लंबे थे देवदारू दो चार खड़े, | |
हुए हिम-धवल, जैसे पत्थर बनकर ठिठुरे रहे अड़े। | |
अवयव की दृढ मांस-पेशियाँ, ऊर्जस्वित था वीर्य्य अपार, | |
स्फीत शिरायें, स्वस्थ रक्त का होता था जिनमें संचार। | |
चिंता-कातर वदन हो रहा पौरूष जिसमें ओत-प्रोत, | |
उधर उपेक्षामय यौवन का बहता भीतर मधुमय स्रोत। | |
बँधी महावट से नौका थी सूखे में अब पड़ी रही, | |
उतर चला था वह जल-प्लावन,और निकलने लगी मही। | |
निकल रही थी मर्म वेदना करूणा विकल कहानी सी, | |
वहाँ अकेली प्रकृति सुन रही, हँसती-सी पहचानी-सी। | |
“ओ चिंता की पहली रेखा,अरी विश्व-वन की व्याली, | |
ज्वालामुखी स्फोट के भीषण प्रथम कंप-सी मतवाली। | |
हे अभाव की चपल बालिके,री ललाट की खलखेला | |
हरी-भरी-सी दौड़-धूप,ओ जल-माया की चल-रेखा। | |
इस ग्रहकक्षा की हलचल-री तरल गरल की लघु-लहरी, | |
जरा अमर-जीवन की,और न कुछ सुनने वाली, बहरी। | |
अरी व्याधि की सूत्र-धारिणी-अरी आधि, मधुमय अभिशाप | |
हृदय-गगन में धूमकेतु-सी,पुण्य-सृष्टि में सुंदर पाप। | |
मनन करावेगी तू कितना?उस निश्चित जाति का जीव | |
अमर मरेगा क्या?तू कितनी गहरी डाल रही है नींव। | |
आह घिरेगी हृदय-लहलहे खेतों पर करका-घन-सी, | |
छिपी रहेगी अंतरतम में सब के तू निगूढ धन-सी। | |
बुद्धि, मनीषा, मति, आशा,चिंता तेरे हैं कितने नाम | |
अरी पाप है तू, जा, चल जा यहाँ नहीं कुछ तेरा काम। | |
विस्मृति आ, अवसाद घेर ले,नीरवते बस चुप कर दे, | |
चेतनता चल जा, जड़ता से आज शून्य मेरा भर दे।” | |
“चिंता करता हूँ मैं जितनी उस अतीत की, उस सुख की, | |
उतनी ही अनंत में बनती जाती रेखायें दुख की। | |
आह सर्ग के अग्रदूत तुम असफल हुए, विलीन हुए, | |
भक्षक या रक्षक जो समझो, केवल अपने मीन हुए। | |
अरी आँधियों ओ बिजली की दिवा-रात्रि तेरा नतर्न, | |
उसी वासना की उपासना, वह तेरा प्रत्यावत्तर्न। | |
मणि-दीपों के अंधकारमय अरे निराशा पूर्ण भविष्य | |
देव-दंभ के महामेध में सब कुछ ही बन गया हविष्य। | |
अरे अमरता के चमकीले पुतलो तेरे ये जयनाद | |
काँप रहे हैं आज प्रतिध्वनि बन कर मानो दीन विषाद। | |
प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित हम सब थे भूले मद में, | |
भोले थे, हाँ तिरते केवल सब विलासिता के नद में। | |
वे सब डूबे, डूबा उनका विभव,बन गया पारावार | |
उमड़ रहा था देव-सुखों पर दुख-जलधि का नाद अपार।” | |
“वह उन्मुक्त विलास हुआ क्या स्वप्न रहा या छलना थी | |
देवसृष्टि की सुख-विभावरी ताराओं की कलना थी। | |
चलते थे सुरभित अंचल से जीवन के मधुमय निश्वास, | |
कोलाहल में मुखरित होता देव जाति का सुख-विश्वास। | |
सुख, केवल सुख का वह संग्रह,केंद्रीभूत हुआ इतना, | |
छायापथ में नव तुषार का सघन मिलन होता जितना। | |
सब कुछ थे स्वायत्त,विश्व के-बल,वैभव, आनंद अपार, | |
उद्वेलित लहरों-सा होता उस समृद्धि का सुख संचार। | |
कीर्ति, दीप्ती, शोभा थी नचती अरूण-किरण-सी चारों ओर, | |
सप्तसिंधु के तरल कणों में,द्रुम-दल में, आनन्द-विभोर। | |
शक्ति रही हाँ शक्ति-प्रकृति थी पद-तल में विनम्र विश्रांत, | |
कँपती धरणी उन चरणों से होकर प्रतिदिन ही आक्रांत। | |
स्वयं देव थे हम सब,तो फिर क्यों न विश्रृंखल होती सृष्टि? | |
अरे अचानक हुई इसी से कड़ी आपदाओं की वृष्टि। | |
गया, सभी कुछ गया,मधुर तम सुर-बालाओं का श्रृंगार, | |
ऊषा ज्योत्स्ना-सा यौवन-स्मित मधुप-सदृश निश्चित विहार। | |
भरी वासना-सरिता का वह कैसा था मदमत्त प्रवाह, | |
प्रलय-जलधि में संगम जिसका देख हृदय था उठा कराह।” | |
“चिर-किशोर-वय, नित्य विलासी सुरभित जिससे रहा दिगंत, | |
आज तिरोहित हुआ कहाँ वह मधु से पूर्ण अनंत वसंत? | |
कुसुमित कुंजों में वे पुलकित प्रेमालिंगन हुए विलीन, | |
मौन हुई हैं मूर्छित तानें और न सुन पडती अब बीन। | |
अब न कपोलों पर छाया-सी पडती मुख की सुरभित भाप | |
भुज-मूलों में शिथिल वसन की व्यस्त न होती है अब माप। | |
कंकण क्वणित, रणित नूपुर थे,हिलते थे छाती पर हार, | |
मुखरित था कलरव,गीतों में स्वर लय का होता अभिसार। | |
सौरभ से दिगंत पूरित था,अंतरिक्ष आलोक-अधीर, | |
सब में एक अचेतन गति थी,जिसमें पिछड़ा रहे समीर। | |
वह अनंग-पीड़ा-अनुभव-सा अंग-भंगियों का नत्तर्न, | |
मधुकर के मरंद-उत्सव-सा मदिर भाव से आवत्तर्न। | |
सुरा सुरभिमय बदन अरूण वे नयन भरे आलस अनुराग़, | |
कल कपोल था जहाँ बिछलता कल्पवृक्ष का पीत पराग। | |
विकल वासना के प्रतिनिधि वे सब मुरझाये चले गये, | |
आह जले अपनी ज्वाला से फिर वे जल में गले, गये।” | |
“अरी उपेक्षा-भरी अमरते री अतृप्ति निबार्ध विलास | |
द्विधा-रहित अपलक नयनों की भूख-भरी दर्शन की प्यास। | |
बिछुडे़ तेरे सब आलिंगन,पुलक-स्पर्श का पता नहीं, | |
मधुमय चुंबन कातरतायें,आज न मुख को सता रहीं। | |
रत्न-सौंध के वातायन, जिनमें आता मधु-मदिर समीर, | |
टकराती होगी अब उनमें तिमिंगिलों की भीड़ अधीर। | |
देवकामिनी के नयनों से जहाँ नील नलिनों की सृष्टि- | |
होती थी, अब वहाँ हो रही प्रलयकारिणी भीषण वृष्टि। | |
वे अम्लान-कुसुम-सुरभित-मणि रचित मनोहर मालायें, | |
बनीं श्रृंखला, जकड़ी जिनमें विलासिनी सुर-बालायें। | |
देव-यजन के पशुयज्ञों की वह पूर्णाहुति की ज्वाला, | |
जलनिधि में बन जलती कैसी आज लहरियों की माला।” | |
“उनको देख कौन रोया यों अंतरिक्ष में बैठ अधीर | |
व्यस्त बरसने लगा अश्रुमय यह प्रालेय हलाहल नीर। | |
हाहाकार हुआ क्रंदनमय कठिन कुलिश होते थे चूर, | |
हुए दिगंत बधिर, भीषण रव बार-बार होता था क्रूर। | |
दिग्दाहों से धूम उठे, या जलधर उठे क्षितिज-तट के | |
सघन गगन में भीम प्रकंपन, झंझा के चलते झटके। | |
अंधकार में मलिन मित्र की धुँधली आभा लीन हुई। | |
वरूण व्यस्त थे, घनी कालिमा स्तर-स्तर जमती पीन हुई, | |
पंचभूत का भैरव मिश्रण शंपाओं के शकल-निपात | |
उल्का लेकर अमर शक्तियाँ खोज़ रहीं ज्यों खोया प्रात। | |
बार-बार उस भीषण रव से कँपती धरती देख विशेष, | |
मानो नील व्योम उतरा हो आलिंगन के हेतु अशेष। | |
उधर गरजती सिंधु लहरियाँ कुटिल काल के जालों सी, | |
चली आ रहीं फेन उगलती फन फैलाये व्यालों-सी। | |
धसँती धरा, धधकती ज्वाला, ज्वाला-मुखियों के निस्वास | |
और संकुचित क्रमश: उसके अवयव का होता था ह्रास। | |
सबल तरंगाघातों से उस क्रुद्ध सिंद्धु के, विचलित-सी- | |
व्यस्त महाकच्छप-सी धरणी ऊभ-चूम थी विकलित-सी। | |
बढ़ने लगा विलास-वेग सा वह अतिभैरव जल-संघात, | |
तरल-तिमिर से प्रलय-पवन का होता आलिंगन प्रतिघात। | |
वेला क्षण-क्षण निकट आ रही क्षितिज क्षीण, फिर लीन हुआ | |
उदधि डुबाकर अखिल धरा को बस मर्यादा-हीन हुआ। | |
करका क्रंदन करती और कुचलना था सब का, | |
पंचभूत का यह तांडवमय नृत्य हो रहा था कब का।” | |
“एक नाव थी, और न उसमें डाँडे लगते, या पतवार, | |
तरल तरंगों में उठ-गिरकर बहती पगली बारंबार। | |
लगते प्रबल थपेडे़, धुँधले तट का था कुछ पता नहीं, | |
कातरता से भरी निराशा देख नियति पथ बनी वहीं। | |
लहरें व्योम चूमती उठतीं,चपलायें असंख्य नचतीं, | |
गरल जलद की खड़ी झड़ी में बूँदे निज संसृति रचतीं। | |
चपलायें उस जलधि-विश्व में स्वयं चमत्कृत होती थीं। | |
ज्यों विराट बाड़व-ज्वालायें खंड-खंड हो रोती थीं। | |
जलनिधि के तलवासी जलचर विकल निकलते उतराते, | |
हुआ विलोड़ित गृह, तब प्राणी कौन! कहाँ! कब सुख पाते? | |
घनीभूत हो उठे पवन, फिर श्वासों की गति होती रूद्ध, | |
और चेतना थी बिलखाती,दृष्टि विफल होती थी क्रुद्ध। | |
उस विराट आलोड़न में ग्रह,तारा बुद-बुद से लगते, | |
प्रखर-प्रलय पावस में जगमग़,ज्योतिर्गणों-से जगते। | |
प्रहर दिवस कितने बीते,अब इसको कौन बता सकता, | |
इनके सूचक उपकरणों का चिह्न न कोई पा सकता। | |
काला शासन-चक्र मृत्यु का कब तक चला, न स्मरण रहा, | |
महामत्स्य का एक चपेटा दीन पोत का मरण रहा। | |
किंतु उसी ने ला टकराया इस उत्तरगिरि के शिर से, | |
देव-सृष्टि का ध्वंस अचानक श्वास लगा लेने फिर से। | |
आज अमरता का जीवित हूँ मैं वह भीषण जर्जर दंभ, | |
आह सर्ग के प्रथम अंक का अधम-पात्र मय सा विष्कंभ!” | |
“ओ जीवन की मरू-मरिचिका, कायरता के अलस विषाद! | |
अरे पुरातन अमृत अगतिमय मोहमुग्ध जर्जर अवसाद! | |
मौन नाश विध्वंस अँधेरा शून्य बना जो प्रकट अभाव, | |
वही सत्य है, अरी अमरते तुझको यहाँ कहाँ अब ठाँव। | |
मृत्यु, अरी चिर-निद्रे तेरा अंक हिमानी-सा शीतल, | |
तू अनंत में लहर बनाती काल-जलधि की-सी हलचल। | |
महानृत्य का विषम सम अरी अखिल स्पंदनों की तू माप, | |
तेरी ही विभूति बनती है सृष्टि सदा होकर अभिशाप। | |
अंधकार के अट्टहास-सी मुखरित सतत चिरंतन सत्य, | |
छिपी सृष्टि के कण-कण में तू यह सुंदर रहस्य है नित्य। | |
जीवन तेरा क्षुद्र अंश है व्यक्त नील घन-माला में, | |
सौदामिनी-संधि-सा सुन्दर क्षण भर रहा उजाला में।” | |
पवन पी रहा था शब्दों को निर्जनता की उखड़ी साँस, | |
टकराती थी, दीन प्रतिध्वनि बनी हिम-शिलाओं के पास। | |
धू-धू करता नाच रहा था अनस्तित्व का तांडव नृत्य, | |
आकर्षण-विहीन विद्युत्कण बने भारवाही थे भृत्य। | |
मृत्यु सदृश शीतल निराश ही आलिंगन पाती थी दृष्टि, | |
परमव्योम से भौतिक कण-सी घने कुहासों की थी वृष्टि। | |
वाष्प बना उड़ता जाता था या वह भीषण जल-संघात, | |
सौरचक्र में आवतर्न था प्रलय निशा का होता प्रात। |