सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

संत कवि

संत कवि

निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख संत कवियों का परिचय
कबीर, कमाल, रैदास या रविदास, धर्मदास, गुरू नानक, दादूदयाल, सुंदरदास, रज्जब, मलूकदास, अक्षर अनन्य, जंभनाथ, सिंगा जी, हरिदास निरंजनी ।

कबीर

कबीर का जन्म 1397 ई. में माना जाता है. उनके जन्म और माता-पिता को लेकर बहुत विवाद है. लेकिन यह स्पष्ट है कि कबीर जुलाहा थे, क्योंकि उन्होंने अपने को कविता में अनेक बार जुलाहा कहा है. कहा जाता है कि वे विधवा ब्राह्मणी के पत्र थे, जिसे लोकापवाद के भय से जन्म लेते ही काशी के लहरतारा ताल के पास फेंक दिया गया था. अली या नीरू नामक जुलाहा बच्चे को अपने यहाँ उठा लाया. इस प्रकार कबीर ब्राह्मणी के पेट से उत्पन्न हुए थे, लेकिन उनका पालन-पोषण जुलाहे के यहाँ हुआ. बाद में वे जुलाहा ही प्रसिद्ध हुए. कबीर की मृत्यु के बारे में भी कहा जाता है कि हिन्दू उनके शव को जलाना चाहते थे और मुसलमान दफ़नाना. इस पर विवाद हुआ, किन्तु पाया गया कि कबीर का शव अंतर्धान हो गया है. वहाँ कुछ फूल हैं. उनमें कुछ फूलों को हिन्दुओं ने जलाया और कुछ को मुसलमानों ने दफ़नाया.
कबीर की मृत्यु मगहर जिला बस्ती में सन् 1518 ई. में हुई.
कबीर का अपना पंथ या संप्रदाय क्या था, इसके बारे में कुछ भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता. वे रामानंद के शिष्य के रूप में विख्यात हैं, किन्तु उनके ‘राम’ रामानंद के ‘राम’ नहीं हैं. शेख तकी नाम के सूफी संत को भी कबीर का गुरू कहा जाता है, किन्तु इसकी पुष्टि नहीं होती. संभवत: कबीर ने इन सबसे सत्संग किया होगा और इन सबसे किसी न किसी रूप में प्रभावित भी हुए होंगे.
इससे प्रकट होता है कि कबीर की जाति के विषय में यह दुविधा बराबर बनी रही है. इसका कारण उनके व्यक्तित्व, उनकी साधना और काव्य में कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जो हिन्दू या मुसलमान कहने-भर से नहीं प्रकट होतीं. उनका व्यक्तित्व दोनों में से किसी एक में नहीं समाता.
उनकी जाति के विषय में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपनी पुस्तक ‘कबीर’ में प्राचीन उल्लेखों, कबीर की रचनाओं, प्रथा, वयनजीवी अथवा बुनकर जातियों के रीति-रिवाजों का विवेचन-विश्लेषण करके दिखाया है.:
आज की वयनजीवी जातियों में से अधिकांश किसी समय ब्राह्मण श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं करती थी. जागी नामक आश्रम-भ्रष्ट घरबारियों की एक जाति सारे उत्तर और पूर्वी भारत में फैली थी. ये नाथपंथी थे. कपड़ा बुनकर और सूत कातकर या गोरखनाथ और भरथरी के नाम पर भीख माँग कर जीविका चलाया करते थे. इनमें निराकार भाव की उपासना प्रचलित थी, जाति भेद और ब्राह्मण श्रेष्ठता के प्रति उनकी कोई सहानुभूति नहीं थी और न अवतारवाद में ही कोई आस्था थी. आसपास के वृहत्तर हिन्दू-समाज की दृष्टि में ये नीच और अस्पृश्य थे. मुसलमानों के आने के बाद ये धीरे-धीरे मुसलमान होते रहे. पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल में इनकी कई बस्तियों ने सामूहिक रूप से मुसलमानी धर्म ग्रहण किया. कबीर दास इन्हीं नवधर्मांतरित लोगों में पालित हुए थे.


रज्जब
(17वीं शती)

रज्जब दादू के शिष्य थे. ये भी राजस्थान के थे. इनकी कविता में सुंदरदास की शास्त्रीयता का तो अभाव है, किन्तु पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार:
रज्जब दास निश्चय की दादू के शिष्यों में सबसे अधिक कवित्व लेकर उत्पन्न हुए थे. उनकी कविताएँ भावपन्न, साफ और सहज हैं. भाषा पर राजस्थानी प्रभाव अधिक है और इस्लामी साधना के शब्द भी अपेक्षाकृत अधिक हैं.

अक्षर अनन्य

सन् 1653 में इनके वर्तमान रहने का पता लगता है. ये दतिया रियासत के अंतर्गत सेनुहरा के कायस्थ थे और कुछ दिनों तक दतिया के राजा पृथ्वीचंद के दीवान थे. पीछे ये विरक्त होकर पन्ना में रहने लगे. प्रसिद्ध छत्रसाल इनके शिष्य हुए. एक बार ये छत्रसाल से किसी बात पर अप्रसन्न होकर जंगल में चले गए. पता लगने पर जब महाराज छत्रसाल क्षमा प्रार्थना के लिए इनके पास गए तब इन्हें एक झाड़ी के पास खूब पैर फैलाकर लेटे हुए पाया. महाराज ने पूछा- ‘पाँव पसारा कब से?’ चट से उत्तर मिला- ‘हाथ समेटा जब से’.
ये विद्वान थे और वेदांत के अच्छे ज्ञाता थे. इन्होंने योग और वेदांत पर कई ग्रंथ लिखे.
कृतियाँ  — 1. राजयोग 2. विज्ञानयोग 3. ध्यानयोग 4. सिद्धांतबोध 5. विवेकदीपिका 6. ब्रह्मज्ञान 7. अनन्य प्रकाश आदि.
‘दुर्गा सप्तशती’ का भी हिन्दी पद्यों में अनुवाद किया.

मलूकदास


मलूकदास का जन्म लाला सुंदरदास खत्री के घर में वैशाख कृष्ण 5, सन् 1574ई. में कड़ा, जिला इलाहाबाद में हुआ.
इनकी मृत्यु 108 वर्ष की अवस्था में सन् 1682 में हुई. वे औरंगज़ेब के समय में दिल के अंदर खोजने वाले निर्गुण मत के नामी संतों में हुए हैं और उनकी गद्दियाँ कड़ा, जयपुर, गुजरात, मुलतान, पटना, नेपाल और काबुल तक में कायम हुई. इनके संबंध में बहुत से चमत्कार और करामातें प्रसिद्ध हैं. कहते है कि एक बार इन्होंने एक डूबते हुए शाही जहाज को पानी के ऊपर उठाकर बचा लिया था और रूपयों का तोड़ा गंगाजी में तैरा कर कड़े से इलाहबाद भेजा था.
आलसियों का यह मूल मंत्र :

अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम I
दास मलूका कहि गए, सबको दाता राम II
इन्हीं का है. हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों को उपदेश में प्रवृत्त होने के कारण दूसरे निर्गुणमार्गी संतों के समान इनकी भाषा में भी फ़ारसी और अरबी शब्दों का प्रयोग है. इसी दृष्टि से बोलचाल की खड़ीबोली का पुट इस सब संतों की बानी में एक सा पाया जाता है. इन सब लक्षणों के होते हुए भी इनकी भाषा सुव्यवस्थित और सुंदर है. कहीं-कहीं अच्छे कवियों का सा पदविन्यास और कवित्त आदि छंद भी पाए जाते हैं. कुछ पद बिल्कुल खड़ीबोली में हैं. आत्मबोध, वैराग्य, प्रेम आदि पर इनकी बानी बड़ी मनोहर है.

कृतियाँ  –  1. रत्नखान  2. ज्ञानबोध

सुंदरदास
(1596 ई.- 1689ई.)


सुंदरदास 6 वर्ष की आयु में दादू के शिष्य हो गए थे. उनका जन्म 1596ई. में जयपुर के निकट द्यौसा नामक स्थान पर हुआ था. इनके पिता का नाम परमानंद और माता का नाम सती था. दादू की मृत्यु के बाद एक संत जगजीवन के साथ वे 10 वर्ष की आयु में काशी चले आए. वहाँ 30 वर्ष की आयु तक उन्होंने जमकर अध्ययन किया. काशी से लौटकर वे राजस्थान में शेखावटी के निकट फतहपुर नामक स्थान पर गए. वे फ़ारसी भी बहुत अच्छी जानते थे.
उनका देहांत सांगामेर में 1689 ई. में हुआ.
निर्गुण संत कवियों में सुंदरदास सर्वाधिक शास्त्रज्ञ एवं सुशिक्षित थे. कहते हैं कि वे अपने नाम के अनुरूप अत्यंत सुंदर थे. सुशिक्षित होने के कारण उनकी कविता कलात्मकता से युक्त और भाषा परिमार्जित है. निर्गुण संतों ने गेय पद और दोहे ही लिखे हैं. सुंदरदास ने कवित्त और सवैये भी रचे हैं. उनकी काव्यभाषा में अलंकारों का प्रयोग खूब है. उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ ‘सुंदरविलास’ है.
काव्यकला में शिक्षित होने के कारण उनकी रचनाएँ निर्गुण साहित्य में विशिष्ट स्थान रखती हैं. निर्गुण साधना और भक्ति के अतिरिक्त उन्होंने सामाजिक व्यवहार, लोकनीति और भिन्न क्षेत्रों के आचार-व्यवहार पर भी उक्तियाँ कही हैं. लोकधर्म और लोक मर्यादा की उन्होंने अपने काव्य में उपेक्षा नहीं की है.
व्यर्थ की तुकबंदी और ऊटपटाँग बानी इनको रूचिकर न थी. इसका पता इनके इस कवित्त से लगता है:

बोलिए तौ तब जब बोलिबे की बुद्धि होय,
ना तौ मुख मौन गहि चुप होय रहिए I
जोरिए तौ तब जब जोरिबै को रीति जानै,
तुक छंद अरथ अनूप जामे लहिए II
गाइए तौ तब जब गाइबे को कंठ होय,
श्रवन के सुनतहीं मनै जाय गहिए I
तुकभंग, छंदभंग, अरथ मिलै न कछु,
सुंदर कहत ऐसी बानी नहिं कहिए II

कृतियाँ–1. सुंदरविलास

दादूदयाल
(1544ई. – 1603ई.)

कबीर की भाँति दादू के जन्म और उनकी जाति के विषय में विवाद और अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित है. कुछ लोग उन्हें गुजराती ब्राह्मण मानते हैं, कुछ लोग मोची या धुनिया. प्रो. चंद्रिकाप्रसाद त्रिपाठी और क्षितिमोहन सेन के अनुसार दादू मुसलमान थे और उनका नाम दाऊद था. कहते हैं दादू बालक रूप में साबरमती नदी में बहते हुए लोदीराम नामक नागर ब्राह्मण को मिले थे. दादू के गुरू का भी निश्चित रूप से पता नहीं लगता. कुछ लोग मानते हैं कि वे कबीर के पुत्र कमाल के शिष्य थे. पं. रामचंद्र शुक्ल का विचार है कि उनकी बानी में कबीर का नाम बहुत जगह आया है और इसमें कोई संदेह नहीं कि वे उन्हीं के मतानुयायी थे. वे आमेर, मारवाड़, बीकानेर आदि स्थानों में घूमते हुए जयपुर आए. वहीं के भराने नामक स्थान पर 1603 ई. में शरीर छोड़ा. वह स्थान दादू पंथियों का केन्द्र है. दादू की रचनाओं का संग्रह उनके दो शिष्यों संतदास और जगनदास ने ‘हरडेवानी’ नाम से किया था. कालांतर में रज्जब ने इसका सम्पादन ‘अंगवधू’ नाम से किया.
दादू की कविता जन सामान्य को ध्यान में रखकर लिखी गई है, अतएव सरल एवं सहज है. दादू भी कबीर के समान अनुभव को ही प्रमाण मानते थे. दादू की रचनाओं में भगवान के प्रति प्रेम और व्याकुलता का भाव है. कबीर की भाँति उन्होंने भी निर्गुण निराकार भगवान को वैयक्तिक भावनाओं का विषय बनाया है. उनकी रचनाओं में इस्लामी साधना के शब्दों का प्रयोग खुलकर हुआ है. उनकी भाषा पश्चिमी राजस्थानी से प्रभावित हिन्दी है. इसमें अरबी-फ़ारसी के काफ़ी शब्द आए हैं, फिर भी वह सहज और सुगम है.
कृतियाँ  — 1. हरडेवानी 2. अंगवधू

गुरू नानक

गुरू नानक का जन्म 1469 ईसवी में कार्तिक पूर्णिमा के दिन तलवंडी ग्राम, जिला लाहौर में हुआ था.
इनकी मृत्यु 1531 ईसवी में हुई.
इनके पिता का नाम कालूचंद खत्री और माँ का नाम तृप्ता था. इनकी पत्नी का नाम सुलक्षणी था. कहते हैं कि इनके पिता ने इन्हें व्यवसाय में लगाने का बहुत उद्यम किया, किन्तु इनका मन भक्ति की ओर अधिकाधिक झुकता गया. इन्होंने हिन्दू-मुसलमान दोनों की समान धार्मिक उपासना पर बल दिया. वर्णाश्रम व्यवस्था और कर्मकांड का विरोध करके निर्गुण ब्रह्म की भक्ति का प्रचार किया. गुरू नानक ने व्यापक देशाटन किया और मक्का-मदीना तक की यात्रा की. कहते हैं मुग़ल सम्राट बाबर से भी इनकी भेंट हुई थी. यात्रा के दौरान इनके साथी शिष्य रागी नामक मुस्लिम रहते थे जो इनके द्वारा रचित पदों को गाते थे.
गुरू नानक ने सिख धर्म का प्रवर्त्तन किया. गुरू नानक ने पंजाबी के साथ हिन्दी में भी कविताएँ की. इनकी हिन्दी में ब्रजभाषा और खड़ीबोली दोनों का मेल है. भक्ति और विनय के पद बहुत मार्मिक हैं. गुरू नानक ने उलटबाँसी शैली नहीं अपनाई है. इनके दोहों में जीवन के अनुभव उसी प्रकार गुँथे हैं जैसे कबीर की रचनाओं में. ‘आदिगुरू ग्रंथ साहब’ के अंतर्गत ‘महला’ नामक प्रकरण में इनकी बानी संकलित है. उसमें सबद, सलोक मिलते हैं.
गुरू नानक की ही परम्परा में उनके उत्तराधिकारी गुरू कवि हुए. इनमें है–
गुरू अंगद (जन्म 1504 ई.)
गुरू अमरदास (जन्म 1479 ई.)
गुरू रामदास (जन्म 1514 ई.)
गुरू अर्जुन (जन्म 1563ई.)
गुरू तेगबहादुर (जन्म 1622ई.) और
गुरू गोविन्द सिंह (जन्म 1664ई.).

गुरू नानक की रचनाएँ  — 1. जपुजी 2. आसादीवार 3. रहिरास 4. सोहिला

धर्मदास

ये बांधवगढ़ के रहनेवाले और जाति के बनिए थे. बाल्यावस्था में ही इनके हृदय में भक्ति का अंकुर था और ये साधुओं का सत्संग, दर्शन, पूजा, तीर्थाटन आदि किया करते थे. मथुरा से लौटते समय कबीरदास के साथ इनका साक्षात्कार हुआ. उन दिनों संत समाज में कबीर पूरी प्रसिद्धि हो चुकी थी. कबीर के मुख से मूर्तिपूजा, तीर्थाटन, देवार्चन आदि का खंडन सुनकर इनका झुकाव ‘निर्गुण’ संतमत की ओर हुआ. अंत में ये कबीर से सत्य नाम की दीक्षा लेकर उनके प्रधान शिष्यों में हो गए और सन् 1518 में कबीरदास के परलोकवास पर उनकी गद्दी इन्हीं को मिली. कबीरदास के शिष्य होने पर इन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति, जो बहुत अधिक थी, लुटा दी. ये कबीर की गद्दी पर बीस वर्ष के लगभग रहे और अत्यंत वृद्ध होकर इन्होंने शरीर छोड़ा. इनकी शब्दावली का भी संतों में बड़ा आदर है. इनकी रचना थोड़ी होने पर भी कबीर की अपेक्षा अधिक सरल भाव लिए हुए है, उसमें कठोरता और कर्कशता नहीं है. इन्होंने पूर्वी भाषा का ही व्यवहार किया है. इनकी अन्योक्तियों के व्यंजक चित्र अधिक मार्मिक हैं क्योंकि इन्होंने खंडन-मंडन से विशेष प्रयोजन न रख प्रेमतत्व को लेकर अपनी वाणी का प्रसार किया है.
उदाहरण के लिए ये पद देखिए

मितऊ मड़ैया सूनी करि गैलो II
अपना बलम परदेश निकरि गैलो, हमरा के किछुवौ न गुन दै गैलो I
जोगिन होइके मैं वन वन ढूँढ़ौ, हमरा के बिरह बैराग दै गैलो II
सँग की सखी सब पार उतरि गइलो, हम धनि ठाढ़ि अकेली रहि गैलो I
धरमदास यह अरजु करतु है, सार सबद सुमिरन दै गैलो II

रैदास या रविदास


रामानंद जी के बारह शिष्यों में रैदास भी माने जाते हैं. उन्होंने अपने एक पद में कबीर और सेन का उल्लेख किया है, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि वे कबीर से छोटे थे. अनुमानत: 15वीं शती उनका समय रहा होगा. धन्ना और मीराबाई ने रैदास का उल्लेख आदरपूर्वक किया है. यह भी कहा जाता है कि मीराबाई रैदास की शिष्या थीं. रैदास ने अपने को एकाधिक स्थलों पर चमार जाति का कहा है:
  • कह रैदास खलास चमारा
  • ऐसी मेरी जाति विख्यात चमार
रैदास काशी के आसपास के थे. रैदास के पद आदि गुरूग्रंथ साहब में संकलित हैं. कुछ फुटकल पद सतबानी में हैं.
रैदास की भक्ति का ढाँचा निर्गुणवादियों का ही है, किन्तु उनका स्वर कबीर जैसा आक्रामक नहीं. रैदास की कविता की विशेषता उनकी निरीहता है. वे अनन्यता पर बल देते हैं. रैदास में निरीहता के साथ-साथ कुंठाहीनता का भाव द्रष्टव्य है. भक्ति-भावना ने उनमें वह बल भर दिया था जिसके आधार पर वे डंके की चोट पर घोषित कर सकें कि उनके कुटुंबी आज भी बनारस के आस-पास ढोर (मूर्दा पशु) ढोते हैं और दासानुदास रैदास उन्हीं का वंशज है:
जाके कुटुंब सब ढोर ढोवंत
फिरहिं अजहुँ बानारसी आसपास I
आचार सहित बिप्र करहिं डंडउति
तिन तनै रविदास दासानुदासा II
रैदास की भाषा सरल, प्रवाहमयी और गेयता के गुणों से युक्त है.

सिंगाजी

चार सौ अस्सी वर्ष पूर्व की बात है। भामगढ़ (मध्य प्रदेश) के राजा के यहां एक निरक्षर युवा सेवक का काम करता था। एक दिन वह डाकघर से आ रहा था। रास्ते में उसने परमविरक्ति के भाव में रंगी कुछ पंक्तियां सुनीं-
‘समझि लेओ रे मना भारि!
अंत न होय कोई आपना।
यही माया के फंद मे
नर आज भुलाना॥’
यह विलक्षण सुरीली तान तीर की तरह उस युवक के हृदय में गहरे पैठ गई। वह सोचने लगा इक जब हमारा नाता इस दुनिया से टूटना ही है, यहां अपना कोई नहीं होगा, तो फ़िर हम इस मायाजाल के भ्रम में क्यों फंसें? इसके बाद वह संत मनरंग के पास पहुंचा, जो संत व्रह्मगिरि के शिष्य थे। संत मनरंइगइर के समीप पहुंचते ही उसने उनके चरण स्पशर्ा इकए। यह प्रणाम उसके युवा जीवन का सम्पूर्ण समर्पण इसद्ध हुआ। इसके बाद उसने भामगढ़ के राजा की नौकरी छोड़ दी। यह युवक थे, ‘सिंगा जी’, जो सेवक की नौकरी करने के पहले हरसूद में रहते हुए वन में गाय-भैंसें चराने का काम करते थे। सिंगा जी का जन्म संवत्‌ १५७६ में ग्राम पीपला के भीमा जी गौली के यहां हुआ था। उनकी जन्मदायनी थीं माता गौराबाई। सिंगा जी की बाल्यावस्था बड़वानी के खजूरी ग्राम में व्यतीत हुई। तत्पशचात्‌ निका परिवार हरसूद में आकर बस गया। यहीं सिंगा जी बड़े हुए। और कुछ दिन बाद भामगढ़ के राजा के यहां इनको सेवक की नौकरी मिल गई, परन्तु अब वे विरक्त होकर महात्मा मनरंग को समर्पित हो गए। इस सेवा, समर्पण तथा साधना ने सेवक और चरवाहा रहे सिंगा जी का जीवन समग्रत: बदल दिया। आध्यात्मिक साधनारत रहते-रहते निरक्षर सिंगा जी को अदृष्ट के अंतराल से वाणी आयी और अपढ़ सिंगा जी की वाणी से एक के बाद एक भक्ति पद और भजन मुखरित होने लगे। वे स्वरचित पद गाया करते थे। सिंगा जी के तमाम पद निमाड़ी बोली में हैं। यात्राओं में निमाड़ी पथिकों के काफ़िले बैलगाड़यों पर बैठे-बैठे आज भी इनहें गुंजाते रहते हैं। निमाड़ में ग्राम-ग्राम और घर-घर में ये गाए जाते हैं। परन्तु सिंगा जी इतने भावुक तथा विइचत्र मानस के संत थे इक निका जीवनान्त अभूतपूर्व तरीके से हुआ। एक बार जब श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी पड़ी तो श्रीकृष्ण जन्मोत्सव के पूर्व ही इनके गुरुदेव को नींद आने लगी। अत: निसे उन्होंने कहा ‘जब मध्य रात्र (१२ बजे) आए तो हमें जगा देना।’ और वे सो गए। सिंगा जी बैठे-बैठे जागते रहे, पर जब १२ बजे तो सिंगा जी ने सोचा गुरुदेव को क्यों जगाएं? उनहें सोने दें। मैं ही भगवान की आरती-अर्चना आदि सम्पन्न कर देता हूं। कुछ देर बाद जब मनरंग जागे, तो जन्मोत्सव की बेला बीत चुकी थी। वे बड़े क्रुद्ध हुए और क्रोध में ही गुरु ने शिष्य सिंगा जी को दुत्कार कर निकाल दिया, कहा-‘यहां से जा, इफर कभी जीवन में मुंह मत दिखाना।’ सिंगा जी गुरु के आदेश का पालन कर चले तो गए परन्तु उन्होंने सोचा, अब इस शरीर को रखें क्यों? इसकी अब जरूरत क्या है? यही सोचकर सिंगा जी पीपला चले गए, जहां वे जन्मे थे। वहीं ११ मास व्यतीत किए। संवत्‌ १६१६ की श्रावणी पूर्णिमा आयी तो उन्होंने पिपराहट नदी-तट पर अपने लिए एक समाधि तैयार की।  एक हाथ में कपूर जलाकर दूसरे हाथ में जप-माला लेकर उसी समाइध की खोखली जगह में जा बैठे और वहां जीवित ही समाइधस्थ हो गए। तब वे केवल ४० वर्ष के थे। जब यह समाचार उनके गुरु को मिला तो वे बहुत्ा पछताए, दु:खी हुए।
आज भी निमाड़ के चरवाहे और इकसान ढोलक-मृदंग बजाते हुए गाया करते हैं-
‘सिंगा बड़ा औइलया पीर,
जिसको सुमेर राव अमीर।’
निमाड़ के मुसलमान उसे ‘औ्लिया’ और पहुंचा हुआ ‘पीर’ ही मानते हैं। वहां के गूजर समाज की पंचायतें दंइडत अपराधी को यह कहकर छोड़ देती हैं कि, ‘जा सिंगा जी महाराज के पांव लाग ले।’ और वह अपराधी सिंगा जी की समाधि का स्पर्श कर, उसे प्रणाम कर अपराध-मुक्त और शुद्ध हो जाता है। हिन्दू-मुसलमान सभी बैल आदि कुछ भी खो जाने पर सिंगा जी की समा्धि पर आकर मनौती मानते हैं। आज खंडवा-हरदा रेलवे मार्ग पर ‘सिंगा जी’ नाम का रेलवे स्टेशन भी है। निमाड़ ही नहीं, दूरस्थ स्थानों से भी लाखों आस्थावान यात्री प्रतिवर्ष  सिंगा जी की समाधि पर एकत्र होते हैं। मुसलमान दुआ करते हैं, तो हिन्दू यात्री मनौइतयां मानते-प्रसाद चढ़ाते हैं।

 

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