सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

हिन्दी मे वर्तनी

हिन्दी मे वर्तनी
किसी शब्द को किस प्रकार वर्णों से अभिव्यक्त किया जाए, यह समस्या काफी समय तक हिंदी में नहीं समझी जाती थी; जबकि अंग्रेजी व उर्दू में इसका महत्त्व था। अंग्रेजी व उर्दू में अर्धशताब्दी पहले भी स्पेलिंग/हिज्जों की रटाई की जाती थी और आज भी। हिंदी भाषा का पहला और बड़ा गुण ध्वन्यात्मकता है। हिंदी में उच्चरित ध्वनियों को व्यक्त करना बड़ा आसान है। जैसा बोला जाए, वैसा ही लिख जाए। देवनागरी लिपि की बहुमुखी विशेषता के कारण यह संभव था और है। यह बात शत प्रतिशत अब ठीक नहीं है। इसके अनेक कारण है-क्षेत्रीय आंचलिक उच्चारण का प्रभाव, अनेकरूपता, भ्रम परंपरा का निर्वाह आदि।

जब यह अनुभव किया जाने लगा कि एक ही शब्द की कई-कई वर्तनी मिलती हैं तो इनको अभिव्यक्त करने के लिए किसी सार्थक शब्द की तलाश हुई (‘हुई’ शब्द की विविधता द्रष्टव्य है-हुइ, हुई, हुवी)।

हिंदी शब्दसागर तथा संक्षिप्त हिंदी शब्दसागर के प्रारंभिक संस्करणों में ही नहीं, सन् 1950 में प्रकाशित प्रामाणिक हिंदी कोश (आचार्य रामचंद्र वर्मा) में इसका प्रयोग न होना यह सिद्ध करता है कि इस शताब्दी के मध्य तक इस शब्द की कोई आवश्यकता नहीं समझी गई। डॉ. बदरीनाथ कपूर ने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है-हमें स्मरण है कि उन्हीं दिनों (1950 के आसपास) आचार्य किशोरीदास वाजपेयी से जब वर्तनी शब्द के संबंध में चर्चा हुई थी तो वे बौखला उठे थे। उन्होंने कहा था कि हम जो बोलते हैं, वही लिखते हैं इसलिए हमें शब्दों की वर्तनी रटने की कभी आवश्यकता नहीं पड़ी।”
लगता है कि छठे दशक में यह ‘वर्तनी’ शब्द हिंदी में आ धमका; क्योंकि इस दशक में ही आगे-पीछे दो पुस्तकें प्रकाशित हुईं :
(1) शुद्ध अक्षरी कैसे सीखें-प्रो. मुरलीधर श्रीवास्तव, भारती भवन, पटना।
(2) हिंदी की वर्तनी-प्रो. रमापति शुक्ल, शब्दलोक प्रकाशन, वाराणसी।

पहली पुस्तक में प्रो. मुरलीधर श्रीवास्तव ने लेखक के इन विचारों को उद्धत किया-डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया के अनुसार, हिंदी की वर्णमाला पूर्णतः ध्वन्यात्मक होने के कारण हिंदी की वर्तनी की समस्या उतनी गंभीर नहीं जितनी अंग्रेजी की; क्योंकि हिंदी में आज भी लिखित रूप से शब्द अपने उच्चरित रूप से अधिक भिन्न नहीं।”
प्रो. मुरलीधरजी ने ‘अक्षरी’ शब्द का प्रयोग किया, जो चल नहीं सका; क्योंकि उसी समय लेखक ने ‘सिलेबिल’ के लिए ‘अक्षर’ का प्रयोग अपने डी. लिट्. के ग्रंथ ‘हिंदी भाषा’ में ‘अक्षर’ तथा शब्द की सीमा’ में स्थिर कर दिया। उस समय तक बिहार में ‘विवरण’ बंगाल में ‘बनान’ शब्द हिज्जे स्पेलिंग के लिए चल रहे हैं। कुछ अन्य शब्द थे।

अक्षरन्यास
अक्षर विन्यास
वर्णन्यास
वर्ण विन्यास

‘विवरण’ का यह अर्थ न ‘शब्दसागर’ में है, न (शब्द गठन) में ही प्रकट होता है; जबकि अक्षरी का अर्थ वर्तनी/हिज्जे दिया हुआ है।
‘अक्षर विन्यास’ :
शिक्षा के प्रोफेसर कृष्ण गोपाल रस्तोगी इस शब्द का प्रयोग बहुत तक करते रहे। यही ‘वर्ण विन्यास’ है। अमरकोश में लिपि के लिए अक्षर विन्यासः’ तथा ‘लिखितम्’ का प्रयोग भी पर्याय के रूप में मिलता है (लिखिताक्षर-विन्यासे लिपिः)।

उपर्युक्त सभी शब्दों के होते हुए भी अब इस अर्थ में ‘वर्तनी’ ही मान्य हो गया और भारत सरकार के केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली ने न केवल इस शब्द को मान्यता दी, वरन् एकरूपता की दृष्टि से कुछ नियम भी स्थिर किए हैं (हिंदी वर्तनी का मानकीकरण।)
वर्तनी शब्द भी संस्कृत का है, जिसकी व्युत्पत्तियाँ देते हुए आचार्य निशांतकेतु ने ‘वर्तनी’ शब्द के कोशगत अर्थ दिए हैं :

मार्ग, पथ, जीना, जीवन
पीसना, चूर्ण बनाना, तकुआ (आप्टे का कोश)

ज्ञानमंडल, वाराणसी द्वारा प्रकाशित ‘बृहद् हिंदी कोश’ में पहली बार वर्तनी का अर्थ हिज्जे दिया गया। काफी विवेचन के बाद वर्तनी की बड़ी व्यापक परिभाषा स्थिर की :
‘‘भाषा-साम्राज्य के अंतर्गत भी शब्दों की सीमा में अक्षरों की जो आचार सहिता अथवा उनका अनुशासनगत संविधान है, उसे ही हम वर्तनी की संज्ञा दे सकते हैं।….वर्तनी भाषा का वर्तमान है। वर्तनी भाषा का अनुशासित आवर्तन है, वर्तनी शब्दों का संस्कारिता पद विन्यास है। वर्तनी अतीत और भविष्य के मध्य का सेतु सूत्र है। यह अक्षर संस्थान और वर्ण क्रम विन्यास है।”

आचार्य रघुनाथ प्रसाद चतुर्वेदी ने संस्कृत व्याकरण के वार्तिक से इसका संबंध स्थापित करते हुए व्यक्त किया।
वार्तिक एवं वर्तनी दोनों शब्दों में ध्वनिसाम्य के साथ अर्थसाम्य भी एक जैसा ही है। सूत्र के द्वारा शब्द साधना का वैज्ञानिक विश्लेषण होता है तथा वार्तिक में सूत्रों द्वारा त्रुटिपूर्ण कथन पर पूर्ण विचार किया जाता है। वर्तनी भी इसी समानांतर प्रक्रिया से गुजरती है। वर्तनी का भी सामूहिक विशुद्ध स्वरूप ही भाषा की समृद्धि के लिए ग्राहृय है।

‘वर्तनी’ शब्द के विरोधी होते हुए भी आचार्य वाजपेयी आजीवन इस समस्या से जूझते रहे, पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर लिखते रहे और पुस्तकें भी प्रकाशित करते रहे, जिनमें से शब्द मीमांसा प्रथम संस्करण, 1958 ई.) तथा हिंदी की वर्तनी तथा शब्द विश्लेषण उल्लेखनीय हैं। शब्द मीमांसा के निवेदनि का अंतिम वाक्य है :‘‘भाषा में शब्दों की एकरूपता और वाक्य में शब्दों के सही प्रयोगों का निर्दशन इस पुस्तक में आप पाएँगे।”
पुस्तक में बड़े विस्तार से ‘हिंदी की प्रकृति’, ‘हिंदी के अपने शब्द’, ‘संस्कृत से शब्द ग्रहण करने की पद्धति’, ‘हिंदी में विदेशी भाषाओं के शब्द’, ‘वाक्य विन्यास’ तथा परिशिष्ट में ‘अर्थ संबंधी भ्रम’ पर विचार किया गया है।

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