कुकुरमुत्ता
आया मौसम खिला फ़ारस का गुलाब, | |
बाग पर उसका जमा था रोबोदाब | |
वहीं गंदे पर उगा देता हुआ बुत्ता | |
उठाकर सर शिखर से अकडकर बोला कुकुरमुत्ता | |
अबे, सुन बे गुलाब | |
भूल मत जो पाई खुशबू, रंगोआब, | |
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट, | |
डाल पर इतरा रहा है कैपिटलिस्ट; | |
बहुतों को तूने बनाया है गुलाम, | |
माली कर रक्खा, खिलाया जाडा घाम; | |
हाथ जिसके तू लगा, | |
पैर सर पर रखकर वह पीछे को भगा, | |
जानिब औरत के लडाई छोडकर, | |
टट्टू जैसे तबेले को तोडकर। | |
शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारा, | |
इसलिए साधारणों से रहा न्यारा, | |
वरना क्या हस्ती है तेरी, पोच तू; | |
काँटों से भरा है, यह सोच तू; | |
लाली जो अभी चटकी | |
सूखकर कभी काँटा हुई होती, | |
घडों पडता रहा पानी, | |
तू हरामी खानदानी। | |
चाहिये तूझको सदा मेहरुन्निसा | |
जो निकले इत्रोरुह ऐसी दिसा | |
बहाकर ले चले लोगों को, नहीं कोई किनारा, | |
जहाँ अपना नही कोई सहारा, | |
ख्वाब मे डूबा चमकता हो सितारा, | |
पेट मे डंड पेलते चूहे, जबाँ पर लफ़्ज प्यारा। | |
देख मुझको मै बढा, | |
डेढ बालिश्त और उँचे पर चढा, | |
और अपने से उगा मै, | |
नही दाना पर चुगा मै, | |
कलम मेरा नही लगता, | |
मेरा जीवन आप जगता, | |
तू है नकली, मै हूँ मौलिक, | |
तू है बकरा, मै हूँ कौलिक, | |
तू रंगा, और मै धुला, | |
पानी मैं तू बुलबुला, | |
तूने दुनिया को बिगाडा, | |
मैने गिरते से उभाडा, | |
तूने जनखा बनाया, रोटियाँ छीनी, | |
मैने उनको एक की दो तीन दी। | |
चीन मे मेरी नकल छाता बना, | |
छत्र भारत का वहाँ कैसा तना; | |
हर जगह तू देख ले, | |
आज का यह रूप पैराशूट ले। | |
विष्णु का मै ही सुदर्शन चक्र हूँ, | |
काम दुनिया मे पडा ज्यों, वक्र हूँ, | |
उलट दे, मै ही जसोदा की मथानी, | |
और भी लम्बी कहानी, | |
सामने ला कर मुझे बैंडा,देख कैंडा, | |
तीर से खींचा धनुष मै राम का, | |
काम का | |
पडा कंधे पर हूँ हल बलराम का; | |
सुबह का सूरज हूँ मै ही, | |
चाँद मै ही शाम का; | |
नही मेरे हाड, काँटे, काठ या | |
नही मेरा बदन आठोगाँठ का। | |
रस ही रस मेरा रहा, | |
इस सफ़ेदी को जहन्नुम रो गया। | |
दुनिया मे सभी ने मुझ से रस चुराया, | |
रस मे मै डुबा उतराया। | |
मुझी मे गोते लगाये आदिकवि ने, व्यास ने, | |
मुझी से पोथे निकाले भास-कालिदास ने | |
देखते रह गये मेरे किनारे पर खडे | |
हाफ़िज़ और टैगोर जैसे विश्ववेत्ता जो बडे। | |
कही का रोडा, कही का लिया पत्थर | |
टी.एस.ईलियट ने जैसे दे मारा, | |
पढने वालो ने जिगर पर हाथ रखकर | |
कहा कैसा लिख दिया संसार सारा, | |
देखने के लिये आँखे दबाकर | |
जैसे संध्या को किसी ने देखा तारा, | |
जैसे प्रोग्रेसीव का लेखनी लेते | |
नही रोका रुकता जोश का पारा | |
यहीं से यह सब हुआ | |
जैसे अम्मा से बुआ । |
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें