सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

भक्ति आंदोलन : रामचँद्र शुक्ल

भक्ति आंदोलन : रामचँद्र शुक्ल


आचार्य पं.  रामचन्द शुक्ल हिन्दी समीक्षा के प्रथम व्यवस्थित आचार्य हैं। उन्होंने अपनी समीक्षा के जितने भी प्रतिमान गढ़े हैं, वे भारतीय काव्य-शास्त्र, पाश्चात्य काव्य-शास्त्र आदि से सम्पॄक्त होने के साथ-साथ भारतीय भक्ति-शास्त्र से सबसे ज्यादा अनुप्राणित हैं । सह्रदयता का मानदंड, या लोकमंगल का मानदंड, भक्ति साहित्य से (विशेषत: मर्यादावादी राम-भक्ति से और उसके अग्रदूत तुलसी से) नि:सॄत हैं । शुक्ल जी के बाद, उनके मध्यकालीन काव्य के विश्लेषण को लेकर बहुत समीक्षाएं लिखी गयी हैं। कहीं इतिहास का आधार लेकर,काल वर्गीकरण के औचित्य का प्रश्न उठाया गया है तो कहीं कबीर, बिहारी और घनानंद को लेकर उनके द्वारा प्रदर्शित उपेक्षा तथा किये अधूरे मूल्यांकन की शिकायतें की गयी है । आज तक की जा रही इन सारी कोशिशों के बावजूद,आज भी हिन्दी-समीक्षा शुक्ल जी द्वारा स्थापित प्रतिमानों के इर्द-गिर्द मंडरा रही हैं । इसका कारण शुक्ल जी की समीक्षा की पूर्णता है।
हिन्दी-निरगुण काव्य में कबीर से आगे जाकर, कॄष्ण-काव्य मंसूर से आगे जाकर और रामकाव्य में तुलसी से आगे जाकर, कुछ खास विशेषता प्रदर्शित करना संभव नहीं था, इसलिए नवीनता के आकांक्षियों ने बाद मे निर्गुण काव्य की भास्वरता को सगुण रीतियों से ग्रस्त कर दिया था । राधाकॄष्ण के विपिनविहारी उन्मुक्त राग को महल विहारी नायक-नायिकाओं में परिणत कर दिया था मर्यादाशील राम को सरयू के कुंजों में काम के लिमग्न चित्रित कर दिया था, उसी तरह से शुक्ल जी ने विषय पर जितना कुछ लिखा है, उससे आगे जाकर उससे ज्यादा कारगर प्रतिमानों के निर्माण में अक्षम होने के कारण, कभी किसी अनामाभिन्न परंपरा की खोज के नाम पर, कभी भारतीय चिंता धारा के स्वभाविक विकास-क्रम से शुक्ल जी के अपरिचय के नाम पर, तो कभी काव्य-शास्त्रीय कला वाद के नाम पर, बहुत कुछ खींचतान का काम हो रहा है ।
शुक्ल जी के अनुसार, “भक्ति धर्म का प्राण है। वह धर्म की रसात्मक अभी-व्यक्ति हैं ।” `भक्ति के विकास’ शीर्षक अपने निबंध में (सूरदास,पॄ.  1-46) शुक्ल जी ने भारतीय चिंताधारा के स्वाभाविक विकास का अत्यंत सूक्ष्म विश्लेषण किया था । वैदिक बहुदेवोपासना के बीच एकत्व की प्रतिष्ठा, यज्ञों के विधान के साथ- साथ ह्रदय की रागात्मकता से युक्त तमाम औपनिषदिक और तमाम वैदिक चर्चाओं का विश्लेषण करते हुए शुक्ल जी ने भक्ति के संदर्भ मे भारतीय चिंता धारा के स्वाभाविक विकास की विस्तॄत छानबीन की है । विस्तॄत विश्लेषण के बाद उन्होंने निष्कर्ष दिया हैं, “धर्म का प्रवाह कर्म, ज्ञान और भक्ति इन तीन धाराओं में चलता है । भक्ति धर्म का प्राण है। वह उसकी रसात्मक अभी-व्यक्ति है । भक्ति के क्षेत्र में धर्म प्यार से पुकारने वाला पिता है । उसके सामने भक्त भोले-भाले बच्चों के समान जाता है। कभी उसके ऊपर लोटता है, कभी सिर पर चढता है और पकड़ लेता हैं ।”.
हिंन्दी-साहित्य के आदि काव्य की सामग्री के विश्लेषण में शुक्ल जी ने वीर, नीति और श्रॄंगार परक रचनाओं की सामग्री की प्राप्ति के साथ-साथ धर्म के साहित्य की प्राप्ति को भी स्वीकार किया हैं। लेकिन भक्ति-काव्य की उत्पत्ति जन्य परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए उन्होंने कहा, “देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिंदू जनता के ह्रदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश नही रह गया । इतने भारी राजनीतिक उलटफेर के पीछे हिंदू जन समुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी छायी रही । अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था ?”.
आचार्य शुक्ल की इस स्थापना का अत्यंत तीक्ष्ण खंडन, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने किया था । द्विवेदी जी के अनुसार, “इस्लाम जैसे सुगठित, धार्मिक और सामाजिक मतवाद से इस देश का पाला नहीं पड़ा था, इसीलिए नवगत समाज की राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक गतिविधि,इस देश के ऐतिहासिक का सारा ध्यान खींच लेती हैं । यह बात स्वाभाविक तौर पर उचित नहीं है। दुर्भाग्यवश हिंदी साहित्य के अध्ययन और लोक चक्षुगोचर करने का भार जिन विद्वानों ने अपने ऊपर लिया है, वे भी हिंन्दी साहित्य का संबंध, हिंदू जाति के साथ ही अधिक बतलाते हैं और इस प्रकार अनजान आदमी को दो ढंग से सोचने का मौका देते हैं । एक यह कि हिंदी साहित्य,एक हतदर्प पराजित जाति की संपत्ति हैं । वह एक निरंतर पतन-शील जाति की चिंताओं का मूल प्रतीक हैं । मैं इस्लाम के महत्त्व को भूल नहीं पा रह हूँ लेकिन जोर देकर कहना चाहता हूं कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्य का बाहर आना वैसा ही होता जैसा आज हैं । यह बात अत्यंत उप हासास्पद है कि जब मुसलमान लोग उत्तर भारत के मंदिर तोड़ रहे थे तो उसी समय अपेक्षाकॄत निरापद दक्षिण में भक्त लोगों ने भगवान की शरणागति की प्रार्थना की ।मुसलमानों के अत्याचार के कारण यदि भक्ति की भावधारा को उमड़ना था तो पहले उसे सिंध में फिर उत्तर-भारत में प्रकट होना चाहिए था, पर वह प्रकट हुई दक्षिण में ।”.
आदि काल की साहित्यिक सामग्री के विश्लेषण में, धार्मिक साहित्य की प्राप्ति के बावजुद, भक्ति काव्य के विश्लेषण में यदि शुक्लजी इस्लाम के आगमन को एक महत्त्वपूर्ण उपादान मानते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं कि वे इस्लाम के आक्रमण को “भक्ति की भावधारा के उमड़ने का” मूल कारण मानते हैं । वस्तुत: शुक्ल जी भारतीय जन-जीवन की विश्रंखलता देख रहे थे । योगियों ने, तांत्रिकों ने, उसे नाना भांती नचाया  और फंसाया था । तीर्थ, व्रत, ग्रंथ, उपवास आदि का खंडन करके किसी ने उसे पिंड में ही ब्राह्मांड और ब्रह्म को खोजने की सलाह दी थी तो किसी ने मंत्रों के चमत्कार का गान किया था । जनता ने सबको सुना था, सबकापालन किया था, लेकिन उसने देखा कि पुरा -का- पुरा समाज जंजीरों में जकड़ता चला गया, मंदिर टूट रहे हैं, मठ ढहाये जा रहे हैं, योगी खदेड़े जा रहे हैं और सारे साधन काम नहीं आ रहे हैं, समूचे समाज को संचालित करने वाला कोई मूल तत्त्व नहीं रह गया हैं, जब उसका ध्यान भक्ति की ओर केन्द्रित होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस हताश में और इस निराशा में कोई नीलोत्पन श्याम होना चाहिए, जिस पर हमारी कामना की गोपियां न्योछावर हो सकें । कोई रणरंगधीर, वनवास का वरण करने वाला राम होना चाहिए जो अत्याचार, अनाचार,पापाचार के विरुद्ध खड़ा होकर घोषणा कर सके-`निशिचर हीन करौ मही’-जो गीध को, शबरी को, केवट को, शिलाबनी अहल्या को, समाज के हर पीड़ित, दलित और उपेक्षित वर्ग को अपनी करुणा से सराबोर कर सके, जो ऋषियों को अपने धनुष की छाया दे सके और आश्वस्त करते हुए कहे, “निर्भय यज्ञ करहु तुम्हरे साईं” तत्कालीन समाज की अपेक्षा का दबाव ही वह मूल कारण है जिससे प्रेरित होकर शुक्लजी भक्ति की सामाजिक भूमिका को विशेष आदर देते हैं।
भक्ति की दो धारणाएं हैं एक धारणा के अनुसार वह ईश्वर से परम अनुरिक्त है । इस धारणा के बलवान होने पर, भक्ति एकान्तिक राग अधिष्ठान बन जाती है । दूसरी धारणा के अनुसार भक्ति का अर्थ है ईश्वर के कार्यो में हिस्सा लेना (टू पार्टीसिपेट इन द वर्क आफ गाड-आनंद कुमार स्वामी)। इसी धारणा के अनुसार विभक्ति शब्द में भक्ति कार्य करती है । काव्य-शास्त्रीय ग्रंथों में `हिस्सा लेने’ के गुण के कारण ही `लक्षणा’ को भक्ति कहा गया है । आचार्य शुक्ल ने इसी द्वितीय धारणा को भक्ति का वास्तविक क्षेत्र घोषित किया है । उन्होंने भक्तों के समक्ष, एक मूर्ति विशेष को स्थान देने के साथ-साथ, ईश्वर के परम विराट (लेकिन परम यथार्थ)रुप की प्रतिष्ठा की है । तुलसी, शुक्ल जी को अकारण ही प्रिय नही है । दशरथनंदन श्रीराम को व्रह्म मानने का अतिशय आग्रह करने वाले तुलसीदास का वक्तव्य है कि भगवान का अनन्य सेवक वह है, जो यह मानता है कि यह चराचर, जड़चेतनमय जगत, ईश्वर का रुप है और मैं इस ईश्वर-रुपी जगत का सेवक हूँ :
सो अनन्य जाके असि मति न टरिअ हनुमंत ।
मैं सेवक सचराचर रुप स्वामि भगवंत ।।
इतना सब होने के बाबजूद (भारतीय चिंताधारा के स्वाभाविक विकास से पूर्णत: परिचित होने के बावजूद) शुक्ल जी जब इस्लाम के आगमन को महत्त्वपूर्ण मानते हैं तो इसका कुछ अर्थ होना चाहिए । मेरी समझ से इसका अर्थ यह है कि शुक्ल जी इस्लाम के आगमन को, भक्ति के प्रवाह के उजड़ने का `त्वराकारककरण’ मानते हैं । भारतीय चिंताधारा का शास्त्रीय एवं लोकोन्मुखी प्रवाह जिधर जा रहा था, उसकी स्वाभाविक परिणति भक्ति में ही थी, लेकिन इस्लाम जैसे सुसंगठित धार्मिक मतवाद के आक्रमण ने उसमे उसी त्वरा का काम था,जिस त्वरा का काम द्वितीय विश्व-युद्ध ने भारतीय स्वतंत्रता की प्राप्ति में किया था । धार्मिक साहित्य आदिकाव्य में था हीं । इस्लाम ने जब परिस्थितियों को बदल दिया तो फिर वीर-काव्य से प्रवॄत्ति हट गयी । मन धार्मिक साहित्य पर जाकर टिक गया ।
आदिकाव्य में धार्मिक साहित्य की धारा प्रमुख नहीं थी, इधर उसी की प्रमुखता हो गयी । वीर-गाथाओं के सॄजन के मूल में, इस्लाम द्वारा उत्पन्न नवीन परिस्थिति ही थी। युद्धरत राजाओं के दरबारी कवि उनकी वीरता का बढ़ा-चढ़ा कर गान कर रहे थे । जब परिस्थिति पराजय में परिणत हो गयी तो वीरगाथाएं कम होते-होते लुप्त हो गयी और आदिकाव्य की धार्मिक काव्य धारा, भक्ति काव्य के रुप में फूट पड़ी । शुक्ल जी का यही कहना है कि ईश्वर के अलावा और कहीं आश्रय-प्राप्ति की संभावना नहीं थी । शुक्ल जी एक ब्रह्म त्वराकारककरण’ के रुप में इस्लाम को पहचान रहे हैं । उनका वक्तव्य न तो उपहासास्पद है और न भारतीय चिंताधारा के स्वाभाविक विकास से अपरिचित होने के कारण ही है ।
शुक्ल जी ने भक्ति काव्य की समस्त काव्यधाराओं का पूर्ण आकलन एवं मूल्यांकन किया है । निर्गुण काव्यधारा ने जातिहीन, वर्गहीन,कर्मकांडहीन, आडंबर-हीन भक्ति-पद्धति का प्रचार करके, समाज के पिछड़े वर्ग के एक बहुत बड़े हिस्से को संभाल लिया था, शुक्ल जी ने इसके लिए कबीर की बड़ी सराहना की है । कॄष्ण-भक्ति काव्य के उच्छल राग की गहराई (श्रॄंगार और वात्सल्य के कुरुक्षेत्र में विशेष रुप से) का उन्होंने पूर्णरुपेण महत्त्वांकन किया है । सूफी काव्य-धाराके अवदान को उन्होंने पूर्णरूपेण स्वीकारा । हाँ शुक्ल जी, राम-भक्ति की मर्यादावादी धारा के प्रति विशेष अभिरूचि रखने के कारण, राम-भक्ति में प्रवाहित रसिक संप्रदाय को स्वीकार नहीं कर सके । इस पर उन्होनें अपना आक्रोश व्यक्त किया है । इसे वे कॄष्ण भक्ति का अनुकरण मानते थे । रसिक संप्रदाय द्वारा उल्लिखित प्राचीन ग्रंथो को वे जाली मानते थे ।
अयोध्या के कुछ खास लोगों द्वारा अचानक किसी प्राचीन पांडु-लिपि की अन्वेषण को वे संदेह की दॄष्टि से देखते थे । शुक्ल जी को इसके लिए यदि कोई दोषी कहना चाहे तो कह सकता है । लेकिन शुक्ल जी के आदर्श रामराज्य के निर्माता श्रीराम की बांकी अदा, तिरछी चितवन, उनके द्वारा सीता की नीबी खोलने की बरजोरी, उनकी रस लंपटता, झाऊ के झुरमुट में उनके द्वारा स्वच्छंद परकीया-विहार आदि का चित्रण उनके मर्यादाशील मानस को भला नहीं लगता था । इन बातों को वे लीला पुरूषोत्तम के साथ स्वीकार करते थे लेकिन मर्यादा पुरूषोत्तम के साथ नहीं । कुछ लोगों की मान्यता हैं कि भक्ति के लिए तन्मयता आवश्यक है । इस तन्मयता काम, क्रोध, वैर, भय आदि भावों के द्वारा भी प्राप्त की जा सकती हैं। भागवत् में एक स्थान पर स्वीकार किया गया है—काम, क्रोध, भय आदि के द्वारा ईश्वर से जितनी तन्मयता प्राप्त की जा सकती है, उतनी भक्ति द्वारा भी नहीं । काम से गोपियों ने, क्रोध से कंस ने और वैर से शिशुपाल ने तन्मयता क्या तदरूपता प्राप्त की थी ।.इस आधार पर राम-भक्ति में भी गोपी भाव का प्रवेश की दॄष्टि से उचित हीं है । यह मात्र व्यक्तिक साधन की विधि हो सकती है । इसमें समुचे समाज की मुक्ति-कामना नहीं है । शुक्ल जी का मर्यादावादी मन ऐसी भक्ति-पद्धति और काव्य-पद्धति का पोषक है, जिसमें “सुरसरि सम कर हित” की कामना भरी हुई हो । शुक्लजी पूरे समाज की मुक्ति चाहते थे । शुक्ल जी का समय भारतीय जनता की मुक्ति-कामना का समय था । गांधी पूरे भारतीय जीवन की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई कर रहे थे । गांधी को भी आदर्श राज्य-व्यवस्था के रुप में रामराज्य ही दिखायी पड़ रहा था । शुक्ल जी ने अपना इतिहास प्रस्तुत करते हुए कहा था कि इसमें जो भी अशु-द्धियाँ हुई हो, उनके लिए क्षमा और जो कमियां रह गयी हों उनकी पूर्ति-कामना के साथ ही मैं अपना श्रम सार्थक समझ सकता हूँ । शुक्ल जी के चिंतन की कमियों (?) को दूर करने के लिए अधिक श्रम की आवश्यकता है । चालू मूहावरों से यह काम पूरा नहीं होगा । चालू मूहावरों में चिंतन का परिणाम है कि लोगों को भक्ति-धारा में भी उच्च वर्ग और निम्न वर्ग का संघर्ष दिखायी पड़ता हैं ।
“मुक्ति बोध की मुख्य स्थापना यह है कि निचली जातियों के बीच से पैदा होने वाले संतो के द्वारा निर्गुण भक्ति के रुप में भक्ति आंदोलन एक क्रांतिकारी आंदोलन के रुप में पैदा हुआ किंतु आगे चलकर ऊंची-जाति वालों ने इसकी शक्ति को पहचान कर इसे अपनाया और उसे विचारों के अनुरुप ढालकर कॄष्ण और राम की सगुण भक्ति का रुप दे डाला जिससे उसके क्रांतिकारी दांत उखाड़ लिए गये । इस प्रक्रिया में कॄष्ण-भक्ति में तो कुछ क्रांतिकारी तत्त्व बचे रह गये लेकिन रामभक्ति में जाकर तो रहे-सहे तत्त्व भी गायब हो गये । इस विश्लेषण में यह नहीं दिया गया कि निर्गुण भक्ति धारा, सगुण धारासे पूर्ववर्ती नहीं है । दक्षिण के आलवार भक्त सगुण आराधक थे, निर्गुण नहीं । उत्तर भारत में (हिन्दी में) निर्गुण भक्ति काव्य का प्रवाह नामदेव से प्रारंभ हुआ था । नाम-देव पहले सगुणोपासक थे, बिठोवा के भक्त । उन्हें यत्नपूर्वक निर्गुण साधनों की ओर मोड़ा गया था । आलवार भक्त अधिकतर निम्न वर्ग के और सगुणोपासक हैं । नामदेव भी निम्नवर्ग के हैं (दरजी हैं) लेकिन प्रारंभ में वे बिठोवा के भक्त थे उस भक्ति से उन्हें विमुख करने के लिए उनके गुरु को लंबा नाटक करना पड़ा था। अत: निम्न वर्ग के लोगों द्वारा क्रांतिकारी निर्गुण भक्ति के प्रवाह की बात ऐतिहासिक और तात्त्विक दोनों दॄष्टियों से अशुद्ध और अपूर्ण हैं ।
शुक्ल जी मर्यादावादी रामभक्ति के समर्थक हैं इसलिए नहीं कि वह उच्च-वर्णीय तुलसीदास द्वारा प्रचारित हैं बल्कि इसलिए कि उस भक्ति-पद्धति में समस्त समाज के मुक्ति की कामना है । समाज के प्रत्येक वर्ग का कल्याण भरा हुआ है । शुक्ल जी के समस्त प्रतिमान इसी से संपॄक्त हैं।

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