सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

अपभ्रंश का परिचय

अपभ्रंश का परिचय


अपभ्रंश, आधुनिक भाषाओं के उदय से पहले उत्तर भारत में बोलचाल और साहित्य रचना की सबसे जीवंत और प्रमुख भाषा (समय लगभग छठी से १२वीं शताब्दी)। भाषावैज्ञानिक दृष्टि से अपभ्रंश भारतीय आर्यभाषा के मध्यकाल की अंतिम अवस्था है जो प्राकृत और आधुनिक भाषाओं के बीच की स्थिति है।
अपभ्रंश के कवियों ने अपनी भाषा को केवल ‘भासा’, ‘देसी भासा’ अथवा ‘गामेल्ल भासा’ (ग्रामीण भाषा) कहा है, परंतु संस्कृत के व्याकरणों और अलंकारग्रंथों में उस भाषा के लिए प्रायः ‘अपभ्रंश’ तथा कहीं-कहीं ‘अपभ्रष्ट’ संज्ञा का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार अपभ्रंश नाम संस्कृत के आचार्यों का दिया हुआ है, जो आपाततः तिरस्कारसूचक प्रतीत होता है। महाभाष्यकार पतंजलि ने जिस प्रकार ‘अपभ्रंश’ शब्द का प्रयोग किया है उससे पता चलता है कि संस्कृत या साधु शब्द के लोकप्रचलित विविध रूप अपभ्रंश या अपशब्द कहलाते थे। इस प्रकार प्रतिमान से च्युत, स्खलित, भ्रष्ट अथवा विकृत शब्दों को अपभ्रंश की संज्ञा दी गई और आगे चलकर यह संज्ञा पूरी भाषा के लिए स्वीकृत हो गई। दंडी (सातवीं शती) के कथन से इस तथ्य की पुष्टि होती है। उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि शास्त्र अर्थात् व्याकरण शास्त्र में संस्कृत से इतर शब्दों को अपभ्रंश कहा जाता है; इस प्रकार पालि-प्राकृत-अपभ्रंश सभी के शब्द ‘अपभ्रंश’ संज्ञा के अंतर्गत आ जाते हैं, फिर भी पालि प्राकृत को ‘अपभ्रंश’ नाम नहीं दिया गया।
 
दंडी ने इस बात को स्पष्ट करते हुए आगे कहा है कि काव्य में आभीर आदि बोलियों को अपभ्रंश नाम से स्मरण किया जाता है; इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अपभ्रंश नाम उसी भाषा के लिए रूढ़ हुआ जिसके शब्द संस्कृतेतर थे और साथ ही जिसका व्याकरण भी मुख्यतः आभीरादि लोक बोलियों पर आधारित था। इसी अर्थ में अपभ्रंश पालि-प्राकृत आदि से विशेष भिन्न थी। अपभ्रंश के संबंध में प्राचीन अलंकारग्रंथों में दो प्रकार के परस्पर विरोधी मत मिलते हैं। एक ओर रुद्रट के काव्यालंकार (२-१२) के टीकाकार नमिसाधु (१०६९ ई.) अपभ्रंश को प्राकृत कहते हैं तो दूसरी ओर भामह (छठी शती), दंडी (सातवीं शती) आदि आचार्य अपभ्रंश का उल्लेख प्राकृत से भिन्न स्वतंत्र काव्यभाषा के रूप में करते हैं। इन विरोधी मतों का समाधान करते हुए याकोगी (भविस्सयत्त कहा की जर्मन भूमिका, अंग्रेजी अनुवाद, बड़ौदा ओरिएंटल इंस्टीटयूट जर्नल, जून १९५५) ने कहा है कि शब्दसमूह की दृष्टि से अपभ्रंश प्राकृत के निकट है और व्याकरण की दृष्टि से प्राकृत से भिन्न भाषा है।
 
इस प्रकार अपभ्रंश के शब्दकोश का अधिकांश, यहाँ तक कि नब्बे प्रतिशत, प्राकृत से गृहित है और व्याकरणिक गठन प्राकृतिक रूपों से अधिक विकसित तथा आधुनिक भाषाओं के निकट है। प्राचीन व्याकरणों के अपभ्रंश संबंधी विचारों के क्रमबद्ध अध्ययन से पता चलता है कि छह सौ वर्षों में अपभ्रंश का क्रमशः विकास हुआ। भरत (तीसरी शर्त) ने इसे शाबर, आभीर, गुर्जर आदि की भाषा बताया है। चंड (छठी शती) ने ‘प्राकृतलक्षणम’ में इसे विभाषा कहा है और उसी के आसपास बलभी के राज ध्रुवसेन द्वितीय ने एक ताम्रपट्ट में अपने पिता का गुणगान करते हुए उनहें संस्कृत और प्राकृत के साथ ही अपभ्रंश प्रबंधरचना में निपुण बताया है। अपभ्रंश के काव्यसमर्थ भाषा होने की पुष्टि भामह और दंडी जैसे आचार्यों द्वारा आगे चलकर सातवीं शती में हो गई। काव्यमीमांसाकार राजशेखर (दसवीं शती) ने अपभ्रंश कवियों को राजसभा में सम्मानपूर्ण स्थान देकर अपभ्रंश के राजसम्मान की ओर संकेत किया तो टीकाकार पुरुषोत्तम (११वीं शती) ने इसे शिष्टवर्ग की भाषा बतलाया। इसी समय आचार्य हेमचंद्र ने अपभ्रंश का विस्तृत और सोदाहरण व्याकरण लिखकर अपभ्रंश भाषा के गौरवपूर्ण पद की प्रतिष्ठा कर दी। इस प्रकार जो भाषा तीसरी शती में आभीर आदि जातियों की लोकबोली थी वह छठी शती से साहित्यिक भाषा बन गई और ११वीं शती तक जाते-जाते शिष्टवर्ग की भाषा तथा राजभाषा हो गई।
 
अपभ्रंश के क्रमशः भौगोलिक विस्तारसूचक उल्लेख भी प्राचीन ग्रंथों में मिलते हैं। भरत के समय (तीसरी शती) तक यह पश्च्िामोत्तर भारत की बोली थी, परंतु राजशेखर के समय (दसवीं शती) तक पंजाब, राजस्थान और गुजरात अर्थात् समूचे पश्च्िामी भारत की भाषा हो गई। साथ ही स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल, कनकामर, सरहपा, कन्हपा आदि की अपभ्रंश रचनाओं से प्रमाणित होता है कि उस समय यह समूचे उत्तर भारत की साहित्यिक भाषा हो गई थी।
 
वैयाकरणों ने अपभ्रंश के भेदों की भी चर्चा की है। मार्कंडेय (१७वीं शती) के अनुसार इसके नागर, उपनागर और ब्राचड तीन भेद थे और नमिसाधु (११वीं शती) के अनुसार उपनागर, आभीर और ग्राम्य। इन नामों से किसी प्रकार के क्षेत्रीय भेद का पता नहीं चलता। विद्वानों ने आभीरों को व्रात्य कहा है, इस प्रकार ‘ब्राचड’ का संबंध ‘व्रात्य’ से माना जा सकता है। ऐसी स्थिति में आभीरी और ब्राचड एक ही बोली के दो नाम हुए। क्रमदीश्वर (१३वीं शती) ने नागर अपभ्रंश और शसक छंद का संबंध स्थापित किया है। शसक छंदों की रचना प्रायः पश्च्िामी प्रदेशों में ही हुई है। इस प्रकार अपभ्रंश के सभी भेदोपभेद पश्च्िामी भारत से ही संबद्ध दिखाई पड़ते हैं। वस्तुतः साहित्यिक अपभ्रंश अपने परिनिष्ठित रूप में पश्च्िामी भारत की ही भाषा थी, परंतु अन्य प्रदेशों में प्रसार के साथ-साथ उसमें स्वभावतः क्षेत्रीय विशेषताएँ भी जुड़ गईं। प्राप्त रचनाओं के आधार पर विद्वानों ने पूर्वी और दक्षिणी दो अन्य क्षेत्रीय अपभ्रंशों के प्रचलन का अनुमान लगाया है।
 
अपभ्रंश भाषा का ढाँचा लगभग वही है जिसका विवरण हेमचंद्र के सिद्धहेमशबदानुशासनम् के आठवें अध्याय के चतुर्थ पाद में मिलता है। ध्वनिपरिर्वान की जिन प्रवृत्त्िायों के द्वारा संस्कृत शब्दों के तद्भव रूप प्राकृत में प्रचलित थे, वही प्रवृतियाँ अधिकांशतः अपभ्रंश शब्दसमूह में भी दिखाई पड़ती है, जैसे अनादि और असंयुक्त क,ग,च,ज,त,द,प,य, और व का लोप तथा इनके स्थान पर उद्वृत स्वर अ अथवा य श्रुति का प्रयोग। इसी प्रकार प्राकृत की तरह (‘क्त’, ‘क्व’, ‘द्व’) आदि संयुक्त व्यंजनों के स्थान पर अपभ्रंश में भी ‘क्त’, ‘क्क’, ‘द्द’ आदि द्वित्तव्यंजन होते थे। परंतु अपभ्रंश में क्रमशः समीतवर्ती उद्वृत स्वरों को मिलाकर एक स्वर करने और द्वित्तव्यंजन को सरल करके एक व्यंजन सुरक्षित रखने की प्रवृत्त्िा बढ़ती गई। इसी प्रकार अपभ्रंश में प्राकृत से कुछ और विशिष्ट ध्वनिपरिवर्तन हुए। अपभ्रंश कारकरचना में विभक्तियाँ प्राकृत की अपेक्षा अधिक घिसी हुई मिलती हैं, जैसे तृतीया एकवचन में ‘एण’ की जगह ‘एं’ और षष्ठी एकवचन में ‘स्स’ के स्थान पर ‘ह’। इसके अतिरिक्त अपभ्रंश निर्विभक्तिक संज्ञा रूपों से भी कारकरचना की गई। सहुं, केहिं, तेहिं, देसि, तणेण, केरअ,मज्झि आदि परसर्ग भी प्रयुक्त हुए। कृदंतज क्रियाओं के प्रयोग की प्रवृत्त्िा बढ़ी और संयुक्त क्रियाओं के निर्माण का आरंभ हुआ। संक्षेप में अपभ्रंश ने नए सुबंतों और तिङंतों की सृष्टि की। अपभ्रंश साहित्य की प्राप्त रचनाओं का अधिकांश जैन काव्य है अर्थात् रचनाकार जैन थे और प्रबंध तथा मुक्तक सभी काव्यों की वस्तु जैन दर्शन तथा पुराणों से प्रेरित है। सबसे प्राचीन और श्रेष्ठ कवि स्वयंभू (नवीं शती) हैं जिन्होंने राम की कथा को लेकर ‘पउम-चरिउ’ तथा ‘महाभारत’ की रचना की है। दूसरे महाकवि पुष्पदंत (दसवीं शती) हैं जिन्होंने जैन परंपरा के त्रिषष्ठि शलाकापुरुषों का चरित ‘महापुराण’ नामक विशाल काव्य में चित्रित किया है। इसमें राम और कृष्ण की भी कथा सम्मिलित है। इसके अतिरिक्त पुष्पदंत ने ‘णायकुमारचरिउ’ और ‘जसहरचरिउ’ जैसे छोटे-छोटे दो चरितकाव्यों की भी रचना की है। तीसरे लोकप्रिय कवि धनपाल (दसवीं शती) हैं जिनकी ‘भविस्सयत्त कहा’ श्रुतपंचमी के अवसर पर कही जानेवाली लोकप्रचलित प्राचीन कथा है। कनकामर मुनि (११वीं शती) का ‘करकंडुचरिउ’ भी उल्लेखनीय चरितकाव्य है।
 
अपभ्रंश का अपना दुलारा छंद दोहा है। जिस प्रकार प्राकृत को ‘गाथा’ के कारण ‘गाहाबंध’ कहा जाता है, उसी प्रकार अपभ्रंश को ‘दोहाबंध’। फुटकल दोहों में अनेक ललित अपभ्रंश रचनाएँ हुई हैं, जो इंदु (आठवीं शती) का ‘परमात्मप्रकाश’ और ‘योगसार’, रामसिंह (दसवीं शती) का ‘पाहुड दोहा’, देवसेन (दसवीं शती) का ‘सावयधम्म दोहा’ आदि जैन मुनियों की ज्ञानोपदेशपरक रचनाएँ अधिकाशंतः दोहा में हैं। प्रबंधचिंतामणि तथा हेमचंद्ररचित व्याकरण के अपभ्रंश दोहों से पता चलता है कि श्रृंगार और शौर्य के ऐहिक मुक्तक भी काफी संख्या में लिखे गए हैं। कुछ रासक काव्य भी लिखे गए हैं जिनमें कुछ तो ‘उपदेश रसायन रास’ की तरह नितांत धार्मिक हैं, परंतु अद्दहमाण (१३वीं शती) के संदेशरासक की तरह श्रृंगार के सरस रोमांस काव्य भी लिखे गए हैं।
 
जैनों के अतिरिक्त बौद्ध सिद्धों ने भी अपभ्रंश में रचना की है जिनमें सरहपा, कन्हपा आदि के दोहाकोश महत्वपूर्ण हैं। अपभ्रंश गद्य के भी नमूने मिलते हैं। गद्य के टुकड़े उद्योतन सूरि (सातवीं शती) की ‘कुवलयमाल कहा’ में यत्रतत्र बिखरे हुए हैं। नवीन खोजों से जो सामग्री सामने आ रही है, उससे पता चलता है कि अपभ्रंश का साहित्य अत्यंत समृद्ध है। डेढ़ सौ के आसपास अपभ्रंश ग्रंथ प्राप्त हो चुके हैं जिनमें से लगभग पचास प्रकाशित हैं।
 
अपभ्रंश का साहित्य :
 
बहुत दिनों तक पंडितों को अपभ्रंश साहित्य की जानकारी बहुत कम थी। कम तो अब भी है, पर अब पहले की अपेक्षा इस भाषा का बहुत अधिक साहित्य हमारे पास है। सन् 1877 ई. में पिशेल ने हेमचंद्राचार्य के प्राकृत व्याकरण का सुसंपादित संस्करण निकाला था। इस पुस्तक के  अंत में प्राकृतों से भिन्न अपभ्रंश भाषा का व्याकरण दिया हुआ है, और अपभ्रंश के पदों के उदाहरण के लिए अपभ्रंश के कुछ पद्य अधिकतर दोहे उद्धृत किए गए हैं। हेमचंद्राचार्य जैन धर्म के महान् आचार्य थे, वे अपने समय में कलिकाल सर्वज्ञ कहे जाते थे। इनके प्राकृत व्याकरण में अपभ्रंश की चर्चा है। अन्य प्राकृतों में व्याकरण के प्रयोगों का उदाहरण देते समय तो उन्होंने एक शब्द या एक वाक्यांश को पर्याप्त समझा है, पर अपभ्रंश के पदों का उदाहरण देते समय उन्होंने पूरे-पूरे दोहे उद्धत किए हैं। इससे इस भाषा के प्रति आचार्य की ममता सूचित होती है।
 
वे उन सभी से एक शब्द या आवश्यकता प़डने पर एक ही वाक्यांश उद्धत कर सकते थे, पर उन्होंने ऐसा न करके पूरा पद्य उद्धत किया है। इस प्रकार बहुत सी अमूल्य साहित्यिक रचनाएँ लुप्त होने से बच गए हैं बहुत दिनों तक अपभ्रंश भाषा और साहित्य के अध्ययन के लिए विद्वान् लोग इन्हीं दोहों से संतोष करते आए हैं। इनमें कई कवियों की रचनाएँ हैं। कुछ रचनाएँ हेमचंद्राचार्य की भी हो सकती हैं। पिशेल ने भी जब 1902 ई. में जर्मन भाषा में अपनी पुस्तक प्रकाशित की, तो प्रधान रूप से इन दोहों का अध्ययन किया, और अन्य उपलब्ध साहित्य अर्थात् विक्रमोवर्शीय सरस्वती कंठाभरण, वैताल पंचविशांत सिंहासन द्वात्रिशतिका और प्रबंध चिंतामणि आदि ग्रंथों में प्रसंग क्रम से आई हुई कुछ अप्रभंश रचनाओं का उपयोग किया। उनका विश्वास था कि अपभ्रंश का विशाल साहित्य अब खो गया है, बहुत दिनों तक अध्ययन इससे आगे नहीं बढ़ा। गलेरी जी ने अपनी पुस्तक में कुमारपाल चरित तथा प्रबंध चिंतामणि आदि में संगृहीत पदों की चर्चा की है। पर हेमचंद्राचार्य के संगृहीत दोहे उनके भी प्रधान संबल थे। बहुत दिनों तक इन्हीं पुस्तकों में प्राप्त बिखरी हुई सामग्री से अपभ्रंश भाषा और साहित्य का मर्म समझा जाता रहा।
 
सन् 1913-14 ईं. में एक जर्मन विद्वान् हर्मन याकोवी इस देश में आए। अहमदाबाद के एक जैन ग्रंथ भंडार का अवलोकन करते हुए, एक साधु के पास उन्हें भविसयत्त कहा की एक प्रति मिली। उन्होंने इसकी भाषा देखकर समझा कि यह अपभ्रंश की रचना है। इस समाचार से विद्वानों में बड़ा उत्साह आया और अन्य अपभ्रंश ग्रंथों के पाने की आशा बलवती हुई। बाद में अनेक जैन भंडारों की खोज करने पर अनेक महत्त्वपूर्ण रचनाएँ प्राप्त हुईं। यद्यपि ये रचनाएँ अधिकांश  में जैन कवियों की लिखी थीं। परंतु इनसे लोकभाषा के अनेक काव्य रूपों पर बिल्कुल नया और चकित कर देने वाला आलोक पड़ा। स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल, जो इंदु, रामसिंह आदि प्रथम श्रेणी के जैन कवियों की तो रचनाएँ प्राप्त हुई ही, अब्दुल रहमान जैसे मुसलमान कवि की उत्तम रचना भी प्राप्त हुई। अब हमारे सामने समृद्ध अपभ्रंश साहित्य का बहुत उत्तम निदर्शन है।
 
 
जैनेतर अपभ्रंश :
 
सन् 1916 ई. में म. म. पं. हरप्रसाद शास्त्री ने नेपाल से प्राप्त अनेक बौद्ध सिद्धों के पदों और दोहों को बौद्ध गान और दोहा। नाम देकर बंगाक्षरों में प्रकाशित किया। इन पदों और दोहों की भाषा को शास्त्री जी ने बंगला कहा। बाद में डॉ. शहीदुल्ला और डॉ. प्रबोधचंद्र बागची तथा पं. प्रकाशन हुआ। वस्तुतः इन दोहों और पदों की भाषा भी अपभ्रंश ही है, पर कुछ पूर्वी प्रयोग उनमें अवश्य है। दोहों की भाषा में तो परिनिष्ठित अपभ्रंश की मात्रा अधिक है।
 
अर्थात् इनमें भी केंद्रीय भाषा के निकट जाने का प्रयत्न है। शास्त्री जी के उद्योगों से ही विद्यापति की कीर्तिलता का प्रकाशन हुआ। इस पुस्तक की और इसके साथ ही इसी कवि की लिखी हुई एक और पुस्तक कीर्तिपताका की सूचना तो ग्रियर्सन ने पहले ही दे रखी थी, पर इसे प्रकाशित करने का श्रेय शास्त्री जी को है। विद्यापति ने स्वयं इस पुस्तक की भाषा को अवहट्ठ (अपभ्रष्ट-अपभ्रंश) कहा है। इसमें भी मैथिली प्रयोग मिलते हैं। इसमें गद्य का भी प्रयोग है। अधिकांश मैथिली प्रयोग गद्य में ही मिलते हैं। पद्यों में अपभ्रंश के प्रयोग ही अधिक मिलते हैं। इस पुस्तक में भी केंद्रीय भाषा के निकट रहने का वैसा ही प्रयत्न है, जैसा बौद्ध सिद्धों के दोहों में है।

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