कुरुक्षेत्र
प्रथम सर्ग |
वह कौन रोता है वहाँ-इतिहास के अध्याय पर, |
जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहु का मोल है प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार का; जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है; |
जो आप तो लड़ता नहीं, कटवा किशोरों को मगर, आश्वस्त होकर सोचता, शोनित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की? |
और तब सम्मान से जाते गिने नाम उनके, देश-मुख की लालिमा है बची जिनके लुटे सिन्दूर से; देश की इज्जत बचाने के लिए या चढा जिनने दिये निज लाल हैं। |
ईश जानें, देश का लज्जा विषय तत्त्व है कोई कि केवल आवरण उस हलाहल-सी कुटिल द्रोहाग्नि का जो कि जलती आ रही चिरकाल से स्वार्थ-लोलुप सभ्यता के अग्रणी नायकों के पेट में जठराग्नि-सी। |
विश्व-मानव के हृदय निर्द्वेष में मूल हो सकता नहीं द्रोहाग्नि का; चाहता लड़ना नहीं समुदाय है, फैलतीं लपटें विषैली व्यक्तियों की साँस से। |
हर युद्ध के पहले द्विधा लड़ती उबलते क्रोध से, हर युद्ध के पहले मनुज है सोचता, क्या शस्त्र ही- उपचार एक अमोघ है अन्याय का, अपकर्ष का, विष का गरलमय द्रोह का! |
लड़ना उसे पड़ता मगर। औ’ जीतने के बाद भी, रणभूमि में वह देखता है सत्य को रोता हुआ; वह सत्य, है जो रो रहा इतिहास के अध्याय में विजयी पुरुष के नाम पर कीचड़ नयन का डालता। |
उस सत्य के आघात से हैं झनझना उठ्ती शिराएँ प्राण की असहाय-सी, सहसा विपंचि लगे कोई अपरिचित हाथ ज्यों। वह तिलमिला उठता, मगर, है जानता इस चोट का उत्तर न उसके पास है। |
सहसा हृदय को तोड़कर कढती प्रतिध्वनि प्राणगत अनिवार सत्याघात की- ‘नर का बहाया रक्त, हे भगवान! मैंने क्या किया लेकिन, मनुज के प्राण, शायद, पत्थरों के हैं बने। |
इस दंश क दुख भूल कर होता समर-आरूढ फिर; फिर मारता, मरता, विजय पाकर बहाता अश्रु है। |
यों ही, बहुत पहले कभी कुरुभूमि में नर-मेध की लीला हुई जब पूर्ण थी, पीकर लहू जब आदमी के वक्ष का वज्रांग पाण्डव भीम क मन हो चुका परिशान्त था। |
और जब व्रत-मुक्त-केशी द्रौपदी, मानवी अथवा ज्वलित, जाग्रत शिखा प्रतिशोध की दाँत अपने पीस अन्तिम क्रोध से, रक्त-वेणी कर चुकी थी केश की, केश जो तेरह बरस से थे खुले। |
और जब पविकाय पाण्डव भीम ने द्रोण-सुत के सीस की मणि छीन कर हाथ में रख दी प्रिया के मग्न हो पाँच नन्हें बालकों के मुल्य-सी। |
कौरवों का श्राद्ध करने के लिए या कि रोने को चिता के सामने, शेष जब था रह गया कोई नहीं एक वृद्धा, एक अन्धे के सिवा। |
और जब, तीव्र हर्ष-निनाद उठ कर पाण्डवों के शिविर से घूमता फिरता गहन कुरुक्षेत्र की मृतभूमि में, लड़खड़ाता-सा हवा पर एक स्वर निस्सार-सा, लौट आता था भटक कर पाण्डवों के पास ही, जीवितों के कान पर मरता हुआ, और उन पर व्यंग-सा करता हुआ- ‘देख लो, बाहर महा सुनसान है सालता जिनका हृदय मैं, लोग वे सब जा चुके।’ |
हर्ष के स्वर में छिपा जो व्यंग है, कौन सुन समझे उसे? सब लोग तो अर्द्ध-मृत-से हो रहे आनन्द से; जय-सुरा की सनसनी से चेतना निस्पन्द है। |
किन्तु, इस उल्लास-जड़ समुदाय मेंएक ऐसा भी पुरुष है, हो विकल बोलता कुछ भी नहीं, पर, रो रहामग्न चिन्तालीन अपने-आप में। |
“सत्य ही तो, जा चुके सब लोग हैं दूर ईष्या-द्वेष, हाहाकार से! मर गये जो, वे नहीं सुनते इसे; हर्ष क स्वर जीवितों का व्यंग है।” |
स्वप्न-सा देखा, सुयोधन कह रहा-”ओ युधिष्ठिर, सिन्धु के हम पार हैं; तुम चिढाने के लिए जो कुछ कहो,किन्तु, कोई बात हम सुनते नहीं। |
“हम वहाँ पर हैं, महाभारत जहाँ दीखता है स्वप्न अन्तःशून्य-सा, जो घटित-सा तो कभी लगता, मगर,अर्थ जिस्क अब न कोई याद है। |
“आ गये हम पार, तुम उस पार हो;यह पराजय कि जय किसकी हुई? व्यंग, पश्चाताप, अन्तर्दाह का अब विजय-उपहार भोगो चैन से।” |
हर्ष का स्वर घूमता निस्सार-सा लड़खड़ाता मर रहा कुरुक्षेत्र में, औ’ युधिष्ठिर सुन रहे अव्यक्त-सा एक रव मन का कि व्यापक शून्य का। |
‘रक्त से सिंच कर समर की मेदिनी हो गयी है लाल नीचे कोस-भर, और ऊपर रक्त की खर धार में तैरते हैं अंग रथ, गज, बाजि के। |
‘किन्तु, इस विध्वंस के उपरान्त भी शेष क्या है? व्यंग ही तो भग्य का? चाहता था प्राप्त करना जिसे तत्व वह करगत हुआ या उड़ गया? |
‘सत्य ही तो, मुष्टिगत करना जिसे चाहता ठा, शत्रुओं के साथ ही उड़ गये वे तत्त्व, मेरे हाथ में व्यंग, पश्चाताप केवल छोड़कर। |
‘यह महाभारत वृथा, निष्फल हुआ, उफ! ज्वलित कितना गरलमय व्यंग है? पाँच ही असहिष्णु नर के द्वेष से हो गया संहार पूरे देश का! |
‘द्रौपदी हो दिव्य-वस्त्रालंकृता, और हम भोगें अहम्मय राज्य यह, पुत्र-पति-हीना इसी से तो हुईं कोटि माताएँ, करोड़ों नारियाँ! |
‘रक्त से छाने हुए इस राज्य को वज्र-सा कुछ टूटकर स्मृति से गिरा, दब गयी वह बुद्धि जो अबतक रही खोजती कुछ तत्त्वरण के भस्म में। |
भर गया ऐसा हृदय दुख-दर्द-से, फेन य बुदबुद नहीं उसमें उठा! खींचकर उच्छ्वास बोले सिर्फ वे‘पार्थ, मैं जाता पितामह पास हूँ।’ |
और हर्ष-निनाद अन्तःशून्य-सालड़खड़ता मर रहा था वायु में। |
द्वितीय सर्ग |
आयी हुई मृत्यु से कहा अजेय भीष्म ने कि ‘योग नहीं जाने का अभी है, इसे जानकर, रुकी रहो पास कहीं’; और स्वयं लेट गये बाणों का शयन, बाण का ही उपधान कर! व्यास कहते हैं, रहे यों ही वे पड़े विमुक्त, काल के करों से छीन मुष्टि-गत प्राण कर। और पंथ जोहती विनीत कहीं आसपास हाथ जोड़ मृत्यु रही खड़ी शास्ति मान कर। |
श्रृंग चढ जीवन के आर-पार हेरते-से योगलीन लेटे थे पितामह गंभीर-से। देखा धर्मराज ने, विभा प्रसन्न फैल रही श्वेत शिरोरुह, शर-ग्रथित शरीर-से। करते प्रणाम, छूते सिर से पवित्र पद, उँगली को धोते हुए लोचनों के नीर से, “हाय पितामह, महाभारत विफल हुआ” चीख उठे धर्मराज व्याकुल, अधीर-से। |
“वीर-गति पाकर सुयोधन चला गया है, छोड़ मेरे सामने अशेष ध्वंस का प्रसार; छोड़ मेरे हाथ में शरीर निज प्राणहीन, व्योम में बजाता जय-दुन्दुभि-सा बार-बार; और यह मृतक शरीर जो बचा है शेष, चुप-चुप, मानो, पूछता है मुझसे पुकार- विजय का एक उपहार मैं बचा हूँ, बोलो, जीत किसकी है और किसकी हुई है हार? |
“हाय, पितामह, हार किसकी हुई है यह? ध्वन्स-अवशेष पर सिर धुनता है कौन? कौन भस्नराशि में विफल सुख ढूँढता है? लपटों से मुकुट क पट बुनता है कौन? और बैठ मानव की रक्त-सरिता के तीर नियति के व्यंग-भरे अर्थ गुनता है कौन? कौन देखता है शवदाह बन्धु-बान्धवों का? उत्तरा का करुण विलाप सुनता है कौन? |
“जानता कहीं जो परिणाम महाभारत का, तन-बल छोड़ मैं मनोबल से लड़ता; तप से, सहिष्णुता से, त्याग से सुयोधन को जीत, नयी नींव इतिहास कि मैं धरता। और कहीं वज्र गलता न मेरी आह से जो, मेरे तप से नहीं सुयोधन सुधरता; तो भी हाय, यह रक्त-पात नहीं करता मैं, भाइयों के संग कहीं भीख माँग मरता। |
“किन्तु, हाय, जिस दिन बोया गया युद्ध-बीज, साथ दिया मेर नहीं मेरे दिव्य ज्ञान ने; उलत दी मति मेरी भीम की गदा ने और पार्थ के शरासन ने, अपनी कृपान ने; और जब अर्जुन को मोह हुआ रण-बीच, बुझती शिखा में दिया घृत भगवान ने; सबकी सुबुद्धि पितामह, हाय, मारी गयी, सबको विनष्ट किया एक अभिमान ने। |
“कृष्ण कहते हैं, युद्ध अनघ है, किन्तु मेरे प्राण जलते हैं पल-पल परिताप से; लगता मुझे है, क्यों मनुष्य बच पाता नहीं दह्यमान इस पुराचीन अभिशाप से? और महाभारत की बात क्या? गिराये गये जहाँ छल-छद्म से वरण्य वीर आप-से, अभिमन्यु-वध औ’ सुयोधन का वध हाय, हममें बचा है यहाँ कौन, किस पाप से? |
“एक ओर सत्यमयी गीता भगवान की है, एक ओर जीवन की विरति प्रबुद्ध है; जनता हूँ, लड़ना पड़ा था हो विवश, किन्तु, लहू-सनी जीत मुझे दीखती अशुद्ध है; ध्वंसजन्य सुख याकि सश्रु दुख शान्तिजन्य, ग्यात नहीं, कौन बात नीति के विरुद्ध है; जानता नहीं मैं कुरुक्षेत्र में खिला है पुण्य, या महान पाप यहाँ फूटा बन युद्ध है। |
“सुलभ हुआ है जो किरीट कुरुवंशियों का, उसमें प्रचण्ड कोई दाहक अनल है; अभिषेक से क्या पाप मन का धुलेगा कभी? पापियों के हित तीर्थ-वारि हलाहल है; विजय कराल नागिनी-सी डँसती है मुझे, इससे न जूझने को मेरे पास बल है; ग्रहन करूँ मैं कैसे? बार-बार सोचता हूँ, राजसुख लोहू-भरी कीच का कमल है। |
“बालहीना माता की पुकार कभी आती, और आता कभी आर्त्तनाद पितृहीन बाल का; आँख पड़ती है जहाँ, हाय, वहीं देखता हूँ सेंदुर पुँछा हुआ सुहागिनी के भाल का; बाहर से भाग कक्ष में जो छिपता हूँ कभी, तो भी सुनता हूँ अट्टहास क्रूर काल का; और सोते-जागते मैं चौंक उठता हूँ, मानो शोणित पुकारता हो अर्जुन के लाल का। |
“जिस दिन समर की अग्नि बुझ शान्त हुई, एक आग तब से ही जलती है मन में; हाय, पितामह, किसी भाँति नहीं देखता हूँ मुँह दिखलाने योग्य निज को भुवन मे ऐसा लगता है, लोग देखते घृणा से मुझे, धिक् सुनता हूँ अपने पै कण-कण में; मानव को देख आँखे आप झुक जातीं, मन चाहता अकेला कहीं भाग जाऊँ वन में। |
“करूँ आत्मघात तो कलंक और घोर होगा, नगर को छोड़ अतएव, वन जाऊँगा; पशु-खग भी न देख पायें जहाँ, छिप किसी कन्दरा में बैठ अश्रु खुलके बहाऊँगा; जानता हूँ, पाप न धुलेगा वनवास से भी, छिप तो रहुँगा, दुःख कुछ तो भुलऊँगा; व्यंग से बिंधेगा वहाँ जर्जर हृदय तो नहीं, वन में कहीं तो धर्मराज न कहाऊँगा।” |
और तब चुप हो रहे कौन्तेय, संयमित करके किसी विध शोक दुष्परिमेय उस जलद-सा एक पारावार हो भरा जिसमें लबालब, किन्तु, जो लाचार बरस तो सकता नहीं, रहता मगर बेचैन है। |
भीष्म ने देखा गगन की ओर मापते, मानो, युधिष्ठिर के हृदय का छोर; और बोले, ‘हाय नर के भाग ! क्या कभी तू भी तिमिर के पार उस महत् आदर्श के जग में सकेगा जाग, एक नर के प्राण में जो हो उठा साकार है आज दुख से, खेद से, निर्वेद के आघात से?’ |
औ’ युधिष्ठिर से कहा, “तूफान देखा है कभी? किस तरह आता प्रलय का नाद वह करता हुआ, काल-सा वन में द्रुमों को तोड़ता-झकझोरता, और मूलोच्छेद कर भू पर सुलाता क्रोध से उन सहस्रों पादपों को जो कि क्षीणाधार हैं? रुग्ण शाखाएँ द्रुमों की हरहरा कर टूटतीं, टूट गिरते गिरते शावकों के साथ नीड़ विहंग के; अंग भर जाते वनानी के निहत तरु, गुल्म से, छिन्न फूलों के दलों से, पक्षियों की देह से। |
पर शिराएँ जिस महीरुह की अतल में हैं गड़ी, वह नहीं भयभीत होता क्रूर झंझावात से। सीस पर बहता हुआ तूफान जाता है चला, नोचता कुछ पत्र या कुछ डालियों को तोड़ता। किन्तु, इसके बाद जो कुछ शेष रह जाता, उसे, (वन-विभव के क्षय, वनानी के करुण वैधव्य को) देखता जीवित महीरुह शोक से, निर्वेद से, क्लान्त पत्रों को झुकाये, स्तब्ध, मौनाकाश में, सोचता, ‘है भेजती हुमको प्रकृति तूफ़ान क्यों?’ |
पर नहीं यह ज्ञात, उस जड़ वृक्ष को, प्रकृति भी तो है अधीन विमर्ष के। यह प्रभंजन शस्त्र है उसका नहीं; किन्तु, है आवेगमय विस्फोट उसके प्राण का, जो जमा होता प्रचंड निदाघ से, फूटना जिसका सहज अनिवार्य है। |
यों ही, नरों में भी विकारों की शिखाएँ आग-सी एक से मिल एक जलती हैं प्रचण्डावेग से, तप्त होता क्षुद्र अन्तर्व्योम पहले व्यक्ति का, और तब उठता धधक समुदाय का आकाश भी क्षोभ से, दाहक घृणा से, गरल, ईर्ष्या, द्वेष से। भट्ठियाँ इस भाँति जब तैयार होती हैं, तभी युद्ध का ज्वालामुखी है फूटता राजनैतिक उलझनों के ब्याज से या कि देशप्रेम का अवलम्ब ले। |
किन्तु, सबके मूल में रहता हलाहल है वही, फैलता है जो घृणा से, स्वर्थमय विद्वेष से। |
युद्ध को पहचानते सब लोग हैं, जानते हैं, युद्ध का परिणाम अन्तिम ध्वंस है! सत्य ही तो, कोटि का वध पाँच के सुख के लिए! |
किन्तु, मत समझो कि इस कुरुक्षेत्र में पाँच के सुख ही सदैव प्रधान थे; युद्ध में मारे हुओं के सामने पाँच के सुख-दुख नहीं उद्देश्य केवल मात्र थे! |
और भी ठे भाव उनके हृदय में, स्वार्थ के, नरता, कि जलते शौर्य के; खींच कर जिसने उन्हें आगे किया, हेतु उस आवेश का था और भी। |
युद्ध का उन्माद संक्रमशील है, एक चिनगारी कहीं जागी अगर, तुरत बह उठते पवन उनचास हैं, दौड़ती, हँसती, उबलती आग चारों ओर से। |
और तब रहता कहाँ अवकाश है तत्त्वचिन्तन का, गंभीर विचार का? युद्ध की लपटें चुनौती भेजतीं प्राणमय नर में छिपे शार्दूल को। |
युद्ध की ललकार सुन प्रतिशोध से दीप्त हो अभिमान उठता बोल है; चाहता नस तोड़कर बहना लहू, आ स्वयं तलवार जाती हाथ में। |
रुग्ण होना चाहता कोई नहीं, रोग लेकिन आ गया जब पास हो, तिक्त ओषधि के सिवा उपचार क्या? शमित होगा वह नहीं मिष्टान्न से। |
है मृषा तेरे हृदय की जल्पना, युद्ध करना पुण्य या दुष्पाप है; क्योंकि कोई कर्म है ऐसा नहीं, जो स्वयं ही पुण्य हो या पाप हो। |
सत्य ही भगवान ने उस दिन कहा, ‘मुख्य है कर्त्ता-हृदय की भावना, मुख्य है यह भाव, जीवन-युद्ध में भिन्न हम कितना रहे निज कर्म से।’ |
औ’ समर तो और भी अपवाद है, चाहता कोई नहीं इसको मगर, जूझना पड़ता सभी को, शत्रु जब आ गया हो द्वार पर ललकारता। |
है बहुत देखा-सुना मैंने मगर, भेद खुल पाया न धर्माधर्म का, आज तक ऐसा कि रेखा खींच कर बाँट दूँ मैं पुण्य औ’ पाप को। |
जानता हूँ किन्तु, जीने के लिए चाहिए अंगार-जैसी वीरता, पाप हो सकता नहीं वह युद्ध है, जो खड़ा होता ज्वलित प्रतिशोध पर। |
छीनता हो सत्व कोई, और तू त्याग-तप के काम ले यह पाप है। पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे बढ रहा तेरी तरफ जो हाथ हो। |
बद्ध, विदलित और साधनहीन को है उचित अवलम्ब अपनी आह का; गिड़गिड़ाकर किन्तु, माँगे भीख क्यों वह पुरुष, जिसकी भुजा में शक्ति हो? |
युद्ध को तुम निन्द्य कहते हो, मगर, जब तलक हैं उठ रहीं चिनगारियाँ भिन्न स्वर्थों के कुलिश-संघर्ष की, युद्ध तब तक विश्व में अनिवार्य है। |
और जो अनिवार्य है, उसके लिए खिन्न या परितप्त होना व्यर्थ है। तू नहीं लड़ता, न लड़ता, आग यह फूटती निश्चय किसी भी व्याज से। |
पाण्डवों के भिक्षु होने से कभी रुक न सकता था सहज विस्फोट यह ध्वंस से सिर मारने को थे तुले ग्रह-उपग्रह क्रुद्ध चारों ओर के। |
धर्म का है एक और रहस्य भी, अब छिपाऊँ क्यों भविष्यत् से उसे? दो दिनों तक मैं मरण के भाल पर हूँ खड़ा, पर जा रहा हूँ विश्व से। |
व्यक्ति का है धर्म तप, करुणा, क्षमा, व्यक्ति की शोभा विनय भी, त्याग भी, किन्तु, उठता प्रश्न जब समुदाय का, भूलना पड़ता हमें तप-त्याग को। |
जो अखिल कल्याणमय है व्यक्ति तेरे प्राण में, कौरवों के नाश पर है रो रहा केवल वही। किन्तु, उसके पास ही समुदायगत जो भाव हैं, पूछ उनसे, क्या महाभारत नहीं अनिवार्य था? हारकर धन-धाम पाण्डव भिक्षु बन जब चल दिये, पूछ, तब कैसा लगा यह कृत्य उस समुदाय को, जो अनय का था विरोधी, पाण्डवों का मित्र था। |
और जब तूने उलझ कर व्यक्ति के सद्धर्म में क्लीव-सा देखा किया लज्जा-हरण निज नारि का, (द्रौपदी के साथ ही लज्जा हरी थी जा रही उस बड़े समुदाय की, जो पाण्डवों के साथ था) और तूने कुछ नहीं उपचार था उस दिन किया; सो बता क्या पुण्य था? य पुण्यमय था क्रोध वह, जल उठा था आग-सा जो लोचनों में भीम के? |
कायरों-सी बात कर मुझको जला मत; आज तक है रहा आदर्श मेरा वीरता, बलिदान ही; जाति-मन्दिर में जलाकर शूरता की आरती, जा रहा हूँ विश्व से चढ युद्ध के ही यान पर। |
त्याग, तप, भिक्षा? बहुत हूँ जानता मैं भी, मगर, त्याग, तप, भिक्षा, विरागी योगियों के धर्म हैं; याकि उसकी नीति, जिसके हाथ में शायक नहीं; या मृषा पाषण्ड यह उस कापुरुष बलहीन का, जो सदा भयभीत रहता युद्ध से यह सोचकर ग्लानिमय जीवन बहुत अच्छा, मरण अच्छा नहीं |
त्याग, तप, करुणा, क्षमा से भींग कर,व्यक्ति का मन तो बली होता, मगर, हिंस्र पशु जब घेर लेते हैं उसे, काम आता है बलिष्ठ शरीर ही। |
और तू कहता मनोबल है जिसे,शस्त्र हो सकता नहीं वह देह का; क्षेत्र उसका वह मनोमय भूमि है,नर जहाँ लड़ता ज्वलन्त विकार से। |
कौन केवल आत्मबल से जूझ करजीत सकता देह का संग्राम है? पाश्विकता खड्ग जब लेती उठा,आत्मबल का एक बस चलता नहीं। |
जो निरामय शक्ति है तप, त्याग में,व्यक्ति का ही मन उसे है मानता; योगियों की शक्ति से संसार में,हारता लेकिन, नहीं समुदाय है। |
कानन में देख अस्थि-पुंज मुनिपुंगवों का दैत्य-वध का था किया प्रण जब राम ने; “मातिभ्रष्ट मानवों के शोध का उपाय एक शस्त्र ही है?” पूछा था कोमलमना वाम ने। नहीं प्रिये, सुधर मनुष्य सकता है तप, त्याग से भी,” उत्तर दिया था घनश्याम ने, “तप का परन्तु, वश चलता नहीं सदैव पतित समूह की कुवृत्तियों के सामने।” |
तृतीय सर्ग |
समर निंद्य है धर्मराज, पर,कहो, शान्ति वह क्या है, जो अनीति पर स्थित होकर भी बनी हुई सरला है? |
सुख-समृद्धि क विपुल कोषसंचित कर कल, बल, छल से, किसी क्षुधित क ग्रास छीन, धन लूट किसी निर्बल से। |
सब समेट, प्रहरी बिठला कर कहती कुछ मत बोलो, शान्ति-सुधा बह रही, न इसमें गरल क्रान्ति का घोलो। |
हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त अपना मुझको पीने दो, अचल रहे साम्रज्य शान्ति का, जियो और जीने दो। |
सच है, सत्ता सिमट-सिमट जिनके हाथों में आयी, शान्तिभक्त वे साधु पुरुष क्यों चाहें कभी लड़ाई? |
सुख का सम्यक्-रूप विभाजन जहाँ नीति से, नय से संभव नहीं; अशान्ति दबी हो जहाँ खड्ग के भय से, |
जहाँ पालते हों अनीति-पद्धति को सत्ताधारी, जहाँ सुत्रधर हों समाज के अन्यायी, अविचारी; |
नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के जहाँ न आदर पायें; जहाँ सत्य कहनेवालों के सीस उतारे जायें; |
जहाँ खड्ग-बल एकमात्र आधार बने शासन का; दबे क्रोध से भभक रहा हो हृदय जहाँ जन-जन का; |
सहते-सहते अनय जहाँ मर रहा मनुज का मन हो; समझ कापुरुष अपने को धिक्कार रहा जन-जन हो; |
अहंकार के साथ घृणा का जहाँ द्वन्द्व हो जारी; ऊपर शान्ति, तलातल में हो छिटक रही चिनगारी; |
आगामी विस्फोट काल के मुख पर दमक रहा हो; इंगित में अंगार विवश भावों के चमक रहा हो; |
पढ कर भी संकेत सजग हों किन्तु, न सत्ताधारी; दुर्मति और अनल में दें आहुतियाँ बारी-बारी; |
कभी नये शोषण से, कभी उपेक्षा, कभी दमन से, अपमानों से कभी, कभी शर-वेधक व्यंग्य-वचन से। |
दबे हुए आवेग वहाँ यदि उबल किसी दिन फूटें, संयम छोड़, काल बन मानव अन्यायी पर टूटें; |
कहो, कौन दायी होगा उस दारुण जगद्दहन का अहंकार य घृणा? कौन दोषी होगा उस रण का? |
तुम विषण्ण हो समझ हुआ जगदाह तुम्हारे कर से। सोचो तो, क्या अग्नि समर की बरसी थी अम्बर से? |
अथवा अकस्मात् मिट्टी से फूटी थी यह ज्वाला? या मंत्रों के बल जनमी थी यह शिखा कराला? |
कुरुक्षेत्र के पुर्व नहीं क्या समर लगा था चलने? प्रतिहिंसा का दीप भयानक हृदय-हृदय में बलने? |
शान्ति खोलकर खड्ग क्रान्ति का जब वर्जन करती है, तभी जान लो, किसी समर का वह सर्जन करती है। |
शान्ति नहीं तब तक, जब तक सुख-भाग न नर का सम हो, नहीं किसी को अधिक हो, नहीं किसी को कम हो। |
ऐसी शान्ति राज्य करती है तन पर नहीं, हृदय पर, नर के ऊँचे विश्वासों पर,श्रद्धा, भक्ति, प्रणय पर। |
न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है,जबतक न्याय न आता, जैसा भी हो, महल शान्ति का सुदृढ नहीं रह पाता। |
कृत्रिम शान्ति सशंक आप अपने से ही डरती है, खड्ग छोड़ विश्वास किसी का कभी नहीं करती है। |
और जिन्हेँ इस शान्ति-व्यवस्था में सिख-भोग सुलभ है, उनके लिए शान्ति ही जीवन-सार, सिद्धि दुर्लभ है। |
पर, जिनकी अस्थियाँ चबाकर,शोणित पीकर तन का, जीती है यह शान्ति, दाह समझो कुछ उनके मन का। |
सत्व माँगने से न मिले,संघात पाप हो जायें, बोलो धर्मराज, शोषित वे जियें या कि मिट जायें? |
न्यायोचित अधिकार माँगने से न मिलें, तो लड़ के, तेजस्वी छीनते समर को जीत, या कि खुद मरके। |
किसने कहा, पाप है समुचित सत्व-प्राप्ति-हित लड़ना ? उठा न्याय क खड्ग समर में अभय मारना-मरना ? |
क्षमा, दया, तप, तेज, मनोबल की दे वृथा दुहाई, धर्मराज, व्यंजित करते तुम मानव की कदराई। |
हिंसा का आघात तपस्या ने कब, कहाँ सहा है ? देवों का दल सदा दानवों से हारता रहा है। |
मनःशक्ति प्यारी थी तुमको यदि पौरुष ज्वलन से, लोभ किया क्यों भरत-राज्य का? फिर आये क्यों वन से? |
पिया भीम ने विष, लाक्षागृह जला, हुए वनवासी, केशकर्षिता प्रिया सभा-सम्मुख कहलायी दासी |
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल, सबका लिया सहारा; पर नर-व्याघ्र सुयोधन तुमसे कहो, कहाँ कब हारा? |
क्षमाशील हो रिपु-समक्ष तुम हुए विनत जितना ही, दुष्ट कौरवों ने तुमको कायर समझा उतना ही। |
अत्याचार सहन करने का कुफल यही होता है, पौरुष का आतंक मनुज कोमल होकर खोता है। |
क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो। उसको क्या, जो दन्तहीन, विषरहित, विनीत, सरल हो ? |
तीन दिवस तक पन्थ माँगते रघुपति सिन्धु-किनारे, बैठे पढते रहे छन्द अनुनय के प्यारे-प्यारे। |
उत्तर में जब एक नाद भी उठा नहीं सागर से, उठी अधीर धधक पौरुष की आग राम के शर से। |
सिन्धु देह धर ‘त्राहि-त्राहि’ करता आ गिरा शरण में, चरण पूज, दासता ग्रहण की,बँधा मूढ बन्धन में। |
सच पूछो, तो शर में ही बसती है दीप्ति विनय की, सन्धि-वचन संपूज्य उसी का जिसमें शक्ति विजय की। |
सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है, बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है। |
जहाँ नहीं सामर्थ्य शोध की, क्षमा वहाँ निष्फल है। गरल-घूँट पी जाने का मिस है, वाणी का छल है। |
फलक क्षमा का ओढ छिपाते जो अपनी कायरता, वे क्या जानें ज्वलित-प्राण नर की पौरुष-निर्भरता ? |
वे क्या जानें नर में वह क्या असहनशील अनल है, जो लगते ही स्पर्श हृदय से सिर तक उठता बल है? |
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