मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

राम नाम का मरम है आना


राम नाम का मरम है आना


गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस के बालकांड में भगवान शिव के मुख से कुछ ‘अनमोल’ वचन कहलवाए हैं। किंतु ये वचन इतने कटु और अशोभनीय हैं कि सहज विश्वास नहीं होता कि ये रामचरितमानस जैसे महान और पवित्र काव्य के ही अंश हैं। अपशब्दों का ऐसा कवित्वमय प्रयोग विरले ही संसार के किसी अन्य महान साहित्य में देखने को मिलेगा। जरा आप भी एक बार फिर से इन अनमोल वचनों पर गौर फरमाएँ:
 
कहहि सुनहि अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच।। 114 ।।
 
अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई विषय मुकर मन लागी।।
लंपट कपटी कुटिल विसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी।।
कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानि।।
मुकर मलिन अरु नयन बिहीना। रामरूप देखहिं किमि दीना।।
जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका।।
हरिमाया बस जगत भुमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं।।
बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे।।
जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन कर कहा करिअ नहिं काना।।
 
कबीर के कई अध्येताओं का मानना है कि तुलसीदासजी द्वारा रामचरितमानस में व्यक्त किए गए उपर्युक्त विचार राम के संबंध में कबीर की अवधारणा की भर्त्सना करने के उद्देश्य से ही शिव-पार्वती संवाद के रूप में प्रस्थापित किए गए हैं। यहाँ तक कि पूरे उत्तरकांड की रचना के पीछे एकमात्र यही उद्देश्य माना जाता है। प्रश्न उठता है कि आखिर इन दो महान राम भक्त कवियों के बीच दृष्टिकोण का ऐसा घोर अतंराल कहाँ है कि तुलसीदासजी को इतने कटुतम शब्दों में कबीर की ‘बानी’ पर प्रहार करने के लिए उद्यत होना पड़ा। इतना ही नहीं, हिन्दी साहित्य के महानतम आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कबीर की राम के प्रति भक्ति को महज शुष्क ज्ञानमार्गी साधना बतलाकर उनकी रचनाओं को श्रेष्ठ साहित्य का दर्जा देने से इन्कार कर दिया। यदि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर की कविता के महत्व को पहचानने और उसे साहित्य में प्रतिष्ठित करने के लिए उत्कट प्रयास नहीं किए होते तो आज हम कबीर की रचनाओं के आस्वादान से वंचित रह गए होते। प्रस्तुत लेख में हम तुलसी के राम और कबीर के राम के बीच बुनियादी अंतर की पड़ताल करने और उसके कारणों की तह में जाने का प्रयास करेंगे।
 
कबीर के राम पुराण-प्रतिपादित अवतारी राम नहीं हैं। अवतारी राम कबीर को पसंद नहीं आते। अवतारवाद और कबीर के विचारों में कोई सामंजस्य नहीं है। कबीर के राम बुनियादी रूप से तुलसी के राम से भिन्न हैं। वह स्पष्ट रूप से कहते हैं :
 
नां दशरथ धरि औतरि आवा। नां लंका का रावं सतावा।
 
कहै कबीर विचार करि, ये ऊले व्यवहार।
 
याहीथें जे अगम है, सो वरति रह्या संसार।’
 
कबीर के राम तो अगम हैं और संसार के कण-कण में विराजते हैं। कबीर के राम इस्लाम के एकेश्वरवादी, एकसत्तावादी खुदा भी नहीं हैं। इस्लाम में खुदा या अल्लाह को समस्त जगत एवं जीवों से भिन्न एवं परम समर्थ माना जाता है। पर कबीर के राम परम समर्थ भले हों, लेकिन समस्त जीवों और जगत से भिन्न तो कदापि नहीं हैं। बल्कि इसके विपरीत वे तो सबमें व्याप्त रहने वाले रमता राम हैं। वह कहते हैं:
 
व्यापक ब्रह्म सबनिमैं एकै, को पंडित को जोगी।
 
रावण-राव कवनसूं कवन वेद को रोगी।
 
कबीर राम की किसी खास रूपाकृति की कल्पना नहीं करते, क्योंकि रूपाकृति की कल्पना करते ही राम किसी खास ढाँचे (फ्रेम) में बँध जाते, जो कबीर को किसी भी हालत में मंजूर नहीं। कबीर राम की अवधारणा को एक भिन्न और व्यापक स्वरूप देना चाहते थे। इसके कुछ विशेष कारण थे, जिनकी चर्चा हम इस लेख में आगे करेंगे। किन्तु इसके बावजूद कबीर राम के साथ एक व्यक्तिगत पारिवारिक किस्म का संबंध जरूर स्थापित करते हैं। राम के साथ उनका प्रेम उनकी अलौकिक और महिमाशाली सत्ता को एक क्षण भी भुलाए बगैर सहज प्रेमपरक मानवीय संबंधों के धरातल पर प्रतिष्ठित है।
 
कबीर नाम में विश्वास रखते हैं, रूप में नहीं। हालाँकि भक्ति-संवेदना के सिद्धांतों में यह बात सामान्य रूप से प्रतिष्ठित है कि ‘नाम रूप से बढ़कर है’, लेकिन कबीर ने इस सामान्य सिद्धांत का क्रांतिधर्मी उपयोग किया। कबीर ने राम-नाम के साथ लोकमानस में शताब्दियों से रचे-बसे संश्लिष्ट भावों को उदात्त एवं व्यापक स्वरूप देकर उसे पुराण-प्रतिपादित ब्राह्मणवादी विचारधारा के खाँचे में बाँधे जाने से रोकने की कोशिश की। इस बात को बाद में कबीर के ही टक्कर के, परंतु ब्राह्मणवादी विचारधारा के पोषक भक्त-संत तुलसीदास पचा नहीं सके और उन्होंने एक तरह से राम-नाम के साथ कबीर द्वारा संबद्ध की गई क्रांतिधर्मिता को निस्तेज करने के लिए ‘रामचरितमानस’ की रचना की। कबीर के राम-नाम की अवधारणा को अपने आस्थापरक विवेक से काफी कुछ महात्मा गाँधी ने भी समझा और आत्मसात किया था। यह अवधारणा लाख षड्यंत्रों और कुचेष्टाओं के बावजूद लोकमानस में अब भी जीवित है और आगे बनी रहने वाली है।
 
कबीर के लिए राम का वेद-पुराण सम्मत होना जरूरी नहीं है। यह अलग बात है कि तुलसीदासजी और उनके बाद से लेकर अब तक के बहुत से विद्वानों ने कबीर के राम को वेद-पुराण प्रतिपादित अवधारणा के दायरे में समेट लेने की बेहद कोशिश की है। लेकिन हैरानी और सुखद आश्चर्य की बात है कि वे लोग भी जो वेदों और पुराणों की प्रामाणिकता में विश्वास नहीं रखते, कबीर के ‘रमता राम’ की अवधारणा से न सिर्फ सहमत होते हैं, बल्कि उसे चित्त-संस्कारवश आत्मसात भी करते हैं।
 
कबीर में अपनी राम-विषयक अवधारणा को लेकर कोई मतांधता नहीं दिखाई देती। वे इस संबंध में कोई अड़ियल रुख नहीं अपनाते। वे तुलसीदासजी की तरह कृष्ण की मूर्ति के सामने भी यह हठ नहीं करते कि धनुष-बाण लेकर आओ, तब ही मैं तुम्हारे सामने शीश नवाऊंगा। ऐसी आग्रही भक्ति का भाव न तो कबीर में दिखाई देता है और न ही किसी अन्य निर्गुण भक्त संत में। बल्कि कबीर की दृष्टि तो ठीक इसके विपरीत है। अवतारवाद से संबद्ध कुछ सामाजिक अवधारणाओं के चलते उसका विरोध करने के बावजूद कबीर अवतारों के उन लीला-प्रसंगों को मुग्ध-भाव से स्वीकार करते हैं जिनमें प्रेम और ईश्वर की सर्वव्यापकता के मार्मिक चित्रण हुए हैं। कबीर राम के पर्यायवाची के रूप में ईश्वर के उन बहुत से नामों का प्रयोग भी करते हैं जो पुराण-परंपरा और विभिन्न संप्रदाय-मज़हबों में ईश्वर के लिए प्रयुक्त किए जाते हैं। वे अपने राम को हरि, गोविन्द, केशव, माधव, नरसिंह, अल्लाह, खुदा, साहब, करीम, रहीम, रब, गोरख, विष्णु, महादेव, सिद्ध, नाथ आदि कुछ भी कह लेते थे, कहने की रौ में जो नाम सहज रूप से आ जाए। लेकिन ईश्वर के लिए वह चाहे जिस किसी नाम का प्रयोग करते हों, ऐसा करते समय ईश्वर के प्रति उनकी धारणा में कोई अंतर नहीं आता। इस मामले में सगुण भक्त कवि कुछ विशेष सजगता बरतते हैं, वे अपने आराध्य को ब्रह्म का अवतार मानते हुए भी न सिर्फ उनके किसी खास रूप के प्रति निष्ठा रखते हैं, बल्कि उनके नाम के पर्यायवाचियों का प्रयोग करते हुए भी सावधानी बरतते हैं। वे अपने आराध्य को दूसरे नाम-रूपों से भिन्न बताने की सतर्क कोशिश करते हैं। इन सबके बावजूद यह एक गंभीर अध्ययन का विषय है कि कबीर जैसे निर्गुण भक्त कवि ‘राम’ नाम पर ही विशेष बल क्यों देते हैं।
 
कबीर के राम निर्गुण-सगुण के भेद से परे हैं। दरअसल उन्होंने अपने राम को शास्त्र-प्रतिपादित अवतारी, सगुण, वर्चस्वशील वर्णाश्रम व्यवस्था के संरक्षक राम से अलग करने के लिए ही ‘निर्गुण राम’ शब्द का प्रयोग किया-‘निर्गुण राम जपहु रे भाई।’ इस ‘निर्गुण’ शब्द को लेकर भ्रम में पड़ने की जरूरत नहीं। कबीर का आशय इस शब्द से सिर्फ इतना है कि ईश्वर को किसी नाम, रूप, गुण, काल आदि की सीमाओं में बाँधा नहीं जा सकता। जो सारी सीमाओं से परे हैं और फिर भी सर्वत्र हैं, वही कबीर के निर्गुण राम हैं। इसे उन्होंने ‘रमता राम’ नाम दिया है। अपने राम को निर्गुण विशेषण देने के बावजूद कबीर उनके साथ मानवीय प्रेम संबंधों की तरह के रिश्ते की बात करते हैं। कभी वह राम को माधुर्य भाव से अपना प्रेमी या पति मान लेते हैं तो कभी दास्य भाव से स्वामी। कभी-कभी वह राम को वात्सल्य मूर्ति के रूप में माँ मान लेते हैं और खुद को उनका पुत्र। निर्गुण-निराकार ब्रह्म के साथ भी इस तरह का सरस, सहज, मानवीय प्रेम कबीर की भक्ति की विलक्षणता है। यह दुविधा और समस्या दूसरों को भले हो सकती है कि जिस राम के साथ कबीर इतने अनन्य, मानवीय संबंधपरक प्रेम करते हों, वह भला निर्गुण कैसे हो सकते हैं, पर खुद कबीर के लिए यह समस्या नहीं है। वह कहते भी हैं:
 
“संतौ, धोखा कासूं कहिये। गुनमैं निरगुन, निरगुनमैं गुन, बाट छांड़ि क्यूं बहिसे!”
 
लेकिन बाद में तुलसीदासजी ने जब ‘रामचरितमानस’ में ‘अगुनहिं सगुनहिं नहिं कछु भेदा’ कहकर कबीर के ‘रमता राम’ और अपने ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ अवतारी राम को ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था के आधिपत्यवादी उद्देश्यों के तहत एक में मिलाने की कोशिश की, तब से गड़बड़ियाँ शुरू हो गईं और यह गड़बड़ी आज तथाकथित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पीड़ादायी सामाजिक-राजनीतिक दंश के रूप में हमारे सामने है।
 
कबीर को सीधे-सीधे अवतारी राम से विशेष परेशानी नहीं है। कबीर को परेशानी है अवतारी राम के साथ जुड़ी उस पुराण-प्रतिपादित अवधारणा से, जिसके मुताबिक राम वर्णाश्रम व्यवस्था रूपी धर्म की रक्षा करने और उस व्यवस्था की ‘मर्यादा’ को न मानने वालों को दंडित करने के लिए अवतार ग्रहण करते हैं। धर्म की पुराण-प्रतिपादित अवधारणा वर्णाश्रम-व्यवस्था का ही पर्यायवाची है। जबकि कबीर इस वर्णाश्रम-व्यवस्था के घोरतम विरोधी हैं। वह वर्णाश्रम व्यवस्था कबीर को कतई मान्य नहीं है, जिसमें किसी व्यक्ति को सिर्फ इसलिए अछूत और पशु से भी हीन मान लिया जाता हो, जिसमें सिर्फ इसलिए उसे ज्ञान और भक्ति के अयोग्य ठहरा दिया जाता हो, क्योंकि वह किसी खास जाति में पैदा हुआ है। कबीर का उस वर्ण-व्यवस्था के प्रति गहरा विरोध है जिसमें बहुजन समाज के व्यक्तियों को शताब्दियों से पीढ़ी दर पीढ़ी दंडित किया जा रहा है और उन्हें इस दंड के कारण का पता तक नहीं है।
 
“कबीर के नस-नस में इस अकारण दंड के प्रति विद्रोह का भाव भरा था”- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की यह पंक्ति वर्णाश्रम व्यवस्था के प्रति कबीर के तीव्र विरोध को सटीकता से रेखांकित करती है। वर्णाश्रम-व्यवस्था के हितचिंतकों द्वारा अपने उद्देश्यों के अनुकूल राम कथा को इस सूक्ष्मता से बुना गया है कि लोकमानस में वे पूरी तरह से रच-बस गई हैं। यह परिघटना कोई थोड़े समय में घटित नहीं हुई है। निश्चय ही यह क्रम कबीर के बहुत पहले से ही, पुराणों के शुरुआती रचना-काल से ही शुरु हो गया होगा। कबीर को भी लोकपरंपरा से अवतारी राम के जीवन की वे घटनाएँ जानने-सुनने को मिली होंगी और उनपर सहज विश्वास कर लेने के कारण वह उन सबको सच भी मानते होंगे। वे घटनाएँ कबीर की मानवीय संवेदना के ठीक विपरीत थीं। कबीर कैसे स्वीकार कर सकते थे कि उन्हीं के समान एक दलित, शंबूक को सिर्फ इस अपराध के लिए कि वह शूद्र होते हुए भी आत्म-साक्षात्कार पाने की अनधिकारिक चेष्टा कर रहा था, जिस राम ने मृत्युदंड दे दिया था, वह ईश्वर के अवतार हैं, खुद परब्रह्म हैं!
 
कबीर की संवेदना में जिस ईश्वर की कल्पना और अनुभूति व्याप्त है, वह ईश्वर तो न सिर्फ सबको एक समान मानता है, बल्कि सबमें एक समान भाव से व्याप्त है। उनकी संवेदना में बसे राम तो ‘बाहर-भीतर सकल निरंतर’ हैं। ब्राह्मणवादी वर्चस्वशील व्यवस्था के स्वार्थों और हितों के अनुरूप ढाले गए, पुराण-प्रतिपादित अवतारी राम भला कबीर की विराट मानवीय संवेदना के धरातल पर कैसे प्रतिष्ठित हो सकते थे! ‘रमता राम’ एक मौलिक अवधारणा है। हालाँकि कबीर के पहले भी यह अवधारणा विद्यमान थी, लेकिन जनसामान्य में इस अवधारणा को पहली बार कबीर ने ही प्रतिष्ठित किया। ‘राम’ नाम की कुछ व्याख्याएँ पहले से प्रचलित थीं। एक व्याख्या यह थी कि निरंतर ब्रह्म के ध्यान में लीन रहने वाले योगियों के हृदय में जो रमण करते हैं, वह राम हैं। एक दूसरी व्याख्या इससे भी अधिक व्यापक थी कि जो सृष्टि के कण-कण में रमण करते हैं, वही राम हैं। भक्त प्रह्लाद ने भी इसी भाव का साक्षात कर दिखाया था। कबीर की संवेदना इसी व्याख्या के अनुकूल थी। यह ईश्वर की सबसे सहज और सरल व्याख्या थी। कबीर ने कण-कण में रमने वाले इसी ‘रमता राम’ को अपना आराध्य बनाया। राम-नाम का मंत्र तो उन्हें सदगुरु से ही मिल गया था। गुरु रामानंद की राम-नाम की अवधारणा भी व्यापक थी, वह राम को महज अवतार नहीं मानते थे, बल्कि स्वयं परात्पर ब्रह्म मानते थे। यदि यह सच है कि गुरु रामानंद से ही कबीर को भक्ति और राम-नाम की दीक्षा मिली थी, तब यह भी स्वीकार किया जा सकता है कि कबीर के रमता राम की अवधारणा में भी रामानंद का विशेष प्रभाव है। लेकिन कबीर के ‘रमता राम’ में जो धार है, जो तेजस्विता है, वह कबीर की अपनी है। उन्होंने अपने ‘रमता राम’ को वर्णाश्रम-व्यवस्था के प्रतीक ‘अवतारी राम’ के मुकाबले खड़ा कर दिया और यह एक अचूक अस्त्र साबित हुआ।
 
लोकमानस की सतत संवर्धनशील परिकल्पना भी राम को सिर्फ कथानकों और आख्यानों से कहीं बहुत व्यापक मानती आई है। आख्यानों के बाहर के राम को कबीर ने अपनी विलक्षण भक्ति के माध्यम से परिपुष्ट कर दिया। ‘रमता राम’ की, आख्यानों के बाहर के राम की, निर्गुण राम की, समस्त मूर्तियों से भी अधिक व्यापक मूर्ति की भक्ति भी संभव है, यह बात कबीर ने भली-भाँति सिद्ध कर दी। कबीर के राम को हर कोई अपनी भावना, अपनी कल्पना के अनुसार अपना सकता है। हर कोई अपना खुद का ‘राम’ गढ़ सकता है। हर कोई सहज भक्ति कर सकता है। ‘जहँ-जहँ डोलों सोई परिक्रमा, जो कछु करों सो सेवा। जब सोवों तब करों दंडवत, पूजों और न देवा।’ इस तरह कबीर ने बिना किसी से मंदिर में जाने का अधिकार माँगे सबको राम सुलभ करा दिया। अब चमार, जुलाहे और अछूत भी राम को पूज सकते हैं, पा सकते हैं। कबीर ने राम का लोकतंत्रीकरण कर दिया। दरअसल, ईश्वर का यही लोकतंत्रीकरण हिन्दी साहित्य का भक्ति आंदोलन था, जिसकी स्वतंत्रतामूलक एवं समतामूलक प्रवृत्तियों को तमाम कोशिशों के बावजूद दोबारा कभी अवरुद्ध नहीं किया जा सका। कबीर के ‘रमता राम’ की आज के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन में यही उपादेयता और प्रासंगिकता है।
 
यदि काव्य कला, सौंदर्य और संवेदना के धरातल पर भी देखें तो कबीर की रचनाओं को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जैसे महान आलोचकों द्वारा शुष्क, ज्ञानमार्गी, अटपटी, रहस्यवादी, ज्ञान की प्रकृत परंपरा और प्रक्रिया का निषेध करने वाली, लोकविरोधी आदि विशेषण दिया जाना अत्याचार ही लगता है। जिस लोकधर्म और लोकमंगल की भावना को काव्य का केन्द्रीय सरोकार बताया जाता है, उसी कसौटी पर कबीर की काव्य-संवेदना किसी भी अन्य कवि से उन्नीस नहीं ठहराई जा सकती। व्यापक मानवता के प्रति उन्मुख कबीर के काव्यगत सरोकार सिर्फ इसलिए लोकविरुद्ध नहीं हो जाते कि वह ईश्वर को किसी खास देश-काल-रूप-कथानक की सीमा में मानने की बजाय उसे सृष्टि के कण-कण में व्याप्त मानते हैं। कबीर सिर्फ इसलिए रहस्यवादी और ज्ञान की प्रकृत परंपरा का निषेध करने वाले नहीं हो जाते क्योंकि वह संस्कृत के आदिम ग्रंथों में लिखी हुई बातों को बिना कोई तर्क-विवेक किए ज्यों-का-त्यों स्वीकार करने से इन्कार कर देते हैं और अपनी ‘आँखन देखी’ सच पर डटे रहते हैं। कबीर की भाषा सिर्फ इसलिए शुष्क और अटपटी नहीं हो जाती कि वह काव्य-परंपरा से अनभिज्ञ हैं और वह उसकी परवाह भी नहीं करते। कबीर की भाषा कितनी सरस और काव्योनुकूल है इसका पता तो सिर्फ इसी से लग जाता है कि एक निरक्षर संत की वाणी होकर भी वह सैकड़ों वर्षों से लोककंठों में सुरक्षित है और आगे भी सुरक्षित रहने वाली है। और यह तो सचमुच आश्चर्य की बात है कि कबीर जैसे प्रेम के अद्भुत दीवाने को आचार्य शुक्ल जैसे उद्भट विद्वान ने ज्ञानाश्रयी शाखा के कवियों के पाले में बैठाकर उनकी रचनाओं को मानक साहित्य मानने से इन्कार कर दिया।
 
अंत में एक बात और, क्या कबीर सचमुच राम-नाम के द्वंद्व से भी ऊपर उठे हुए नहीं थे? कबीर का वह मशहूर पद ‘अलह राम की गम नहीं, तहां कबीर रहा ल्यौ लगाय’ क्या हमें नामातीत की तरफ नहीं ले जाता? ‘हमरे राम रहीम करीमा, कैसो अलह राम सति सोई। बिसमिल मटि बिसंभर एकै, और न दूजा कोई।।’-यह पद क्या हमें नामों के द्वंद्व से भी मुक्त होने की प्रेरणा नहीं देता? जिस प्रश्न पर बुद्ध कभी मौन रह जाया करते थे, उसका उत्तर देने की व्यर्थता क्या कबीर ने भी अपनी संपूर्ण मुखरता के बावजूद इस तरह के पदों के माध्यम से नहीं सिद्ध कर दी? इस धरातल पर यदि हम कबीर को देखें तो वह उतने ही ऊँचे, विराट और असाधारण नजर आते हैं जितना हमारी मानस-कल्पना में बसा कोई भी महाकवि अधिक से अधिक हो सकता है।

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