सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

बुन्देली

बुन्देली


बुंदेलखंड की भौगोलिक, सांस्कृतिक और भाषिक इकाइयों में अद्भुत समानता है । भूगोलवेत्ताओं का मत है कि बुंदेलखंड की सीमाएँ स्पष्ट हैं, और भौतिक तथा सांस्कृतिक रुप में निश्चित हैं। वह भारत का एक ऐसा भौगोलिक क्षेत्र है, जिसमें न केवल संरचनात्मक एकता, भौम्याकार की समानता और जलवायु की समता है, वरन् उसके इतिहास, अर्थव्यवस्था और सामाजिकता का आधार भी एक ही है। वास्तव में समस्त बुंदेलखंड में सच्ची सामाजिक, आर्थिक और भावनात्मक एकता है ।
 
बुंदेलखंड के उत्तर में यमुना नदी है और इस सीमारेखा को भूगोलविदों, इतिहासकारों, भाषाविदों आदि सभी ने स्वीकार किया है । पश्चिमी सीमा-चम्बल नदी को भी अधिकांश वीद्वानों ने माना है, परंतु ऊपरी चम्बल इस प्रदेश से बहुत दूर हो जाती है और निचली चम्बल इसके निकट पड़ती है । वस्तुत: मध्य और निचली चम्बल के दक्षिण में स्थित मध्यप्रदेश के मुरैना और भिण्ड जिलों में बुंदेली संस्कृति और भाषा का मानक रुप समाप्त-सा हो जाता है । चम्बल के उस पार इटावा, मैनपुरी, आगरा जिलों के दक्षणी भागों का कोई प्रश्न ही नहीं उठता । भाषा और संस्कृति की दृष्टि से ग्वालियर और शिवपुरी का पूर्वी भाग बुंदेलखंड में आता है और साथ ही उत्तर प्रदेश के जालौन जिले से लगा हुआ भिण्ड का पूर्वी हिस्सा (लहर तहसील का दक्षिणी भाग) भी, जिसे भूगोलविदों ने बुंदेलखंड क्षेत्र में सम्मिलित किया है । अतएव इस प्रदेश की उत्तर-पशचिम सीमा में मुरैना और शिवपुरी के पठार तथा चम्बल-सिंध जलविभाजक, जोकि उच्च साभूमि है, आते हैं । वास्तव में, यह सीमा सिंध के निचले बेसिन तक जाती है और वह स्थायी अवरोधक नहीं है । ऐसा प्रतीत होता है कि चम्बल और कुमारी नदियों के खारों और बीहड़ों तथा दुर्गम भागों के कारण एवं मुरैना और शिवपुरी के घने जगलों के होने से बुंदेली भाषा और संस्कृति का प्रसार उस पार नहीं जा सका । बुंदेलखंड का पश्चिमी सीमा पर ऊपरी बेतवा और ऊपरी सिंध नदियाँ तथा सीहोर से उत्तर में गुना और शिवपुरी तक फैला मध्यभारत का पठार है । मध्यभारत के पठार के समानांतर विध्यश्रेणियाँ भोपाल से लेकर गुना तथा शिवपुरी के कुछ भाग तक फैली हुई हैं और अवरोधक का कार्य करती हैं ।-२१ इस प्रकार पश्चिम में रायसेन जिले की रायसेन और गौहरगंज तहसीलों के पूर्वी भाग, विदिशा जिले की विदिशा, बासौदा और सिरोंज तहसीलों के पूर्वी भाग; जिनकी सीमा बेतवा बनाती है; गुना जिले की अशोकनगर (पिछोर) और मुंगावली तथा शिवपुरी की पिछोर और करैरा तहसीलें, जिनकी सीमा अपर सिंध बनाती है, बुंदेलखंड के पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्र हैं । इनमें विदिशा और पद्मावती (पवायाँ) के क्षेत्र इतिहासप्रसिद्ध रहे हैं । विदिशा दशार्णी संस्कृति का प्रमुख केन्द्र रहा है । वैदिश और पद्मावती कै नागों की संस्कृति बुंदेलखंड के एक बड़े भू-भाग में प्रसरित रही है । चंदेलों के समय वे इस जनपद के अंग रहे हैं । सिद्ध है कि इन क्षेत्रों की संस्कृति और भाषा जितनी इस जनपद से मेल खाती है, उतना ही उनका प्राकृतिक परिवेश और वातावरण ।
 
भौतिक भूगोल में बुंदेलखंड की दक्षिणी सीमा विंध्यपहाड़ी श्रेणियाँ बताई गयी हैं, जो नर्मदा नदी के उत्तर में फैली हुई हैं ।-२२ लेकिन संस्कृति और भाषा की दृष्टि से यह उपयुक्त नहीं है, क्येंकि सागर प्लेटो के दक्षिण-पूर्व से जनपदीय संस्कृति और भाषा का प्रसार विंध्य-श्रेणियों के दक्षिण में हुआ है । इतिहासकारों ने नर्मदा नदी को दक्षिणी सीमा मान लिया है, संभवत: छत्रसाल बुंदेला की राज्य-सीमा को केन्द्र में रखकर; लेकिन जनपदीय संस्कृति और भाषा विंध्य-श्रेणियों और नर्मदा नदी से प्राकृतिक अवरोधक पार कर होशंगाबाद और नरसिंहपुर जिलों तक पहुँच गई है । भूगोलवेत्ता सर थामस होल्डिच के अनुसार सभी प्राकृतिक तत्त्वों में एक निश्चित जलविभाजक रेखा, जो एक विशिष्ट पर्वतश्रेणी द्वारा निर्धारित होती है, अधिक स्थायी और सही होती है ।-२३ अतएव प्रदेश की दक्षिणी सीमा महादेव पर्वतश्रेणी (गोंडवाना हिल्स) और दक्षिण-पूर्व में मैकल पर्वतश्रेणी उचित ठहरती है । इस आधार पर होशंगाबाद जिले की होशंगाबाद और सोहागपुर तहसीलें तथा नरसिंहपुर का पूरा जिला बुंदेलखंड के अंतर्गत आता है । कुछ भाषाविदों ने इन क्षेत्रों के दक्षिण में बैतूल, छिंदवाड़ा, सिवनी, बालाघाट और मंडला जिलों अथवा उनके कुछ भागों को भी सम्मिलित कर लिया है, पर उनकी भाषा शुद्ध बुंदेली नहीं है, और न ही उनकी संस्कृति बुंदेलखंड से मेल खाती है । इतना अवश्य है कि बुंदेली संस्कृति और भाषा का यत्किचिंत प्रभाव उन पर पड़ा है । ऊँचाई पर श्थित होने से कारण वे पृथक् हो गये हैं । महादेव-मैकल पर्वतश्रेणियाँ उन्हें कई स्थलों पर अलग करती हैं और अवरोधक सिद्ध हुई हैं ।
 
दक्षिणी सीमा के संबंध में एक प्रश्न उठाया जा सकता है कि विंधयश्रेणियों और नर्मदा नदी को पार कर बुंदेली संस्कृति और भाषा यहाँ कैसे आई ? इस समस्या का उत्तरह इतिहास में खोजा जा सकता है । इतिहासकार डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल का मत है कि भारशिवों (नवनागों) और वाकगटकों के इस क्षेत्र में बसने से कारण दक्षिण के इस भाग का संबंध बुंदेलखंड से इतना घनिष्ट हो गया था कि दोनों मिलकर एक हो गये थे और उस समय इन दोनों प्रदेशों में जो एकता स्थापित हुई थी, वह आज तक बराबर चली आ रही है । साठ वर्षीं तक नागों के यहाँ रहने के इतिहास के यह परिणाम निकला है कि यहाँ के निवासी भाषा और संस्कृति के विचार से पूरे उत्तरी हो गये हैं ।-२४ गुप्तों के समय वाकाटक भी यहाँ रहे। कुछ विद्वान् झाँसी जिले के बागाट या बाघाट को, जो बिजौर या बीजौर के पास है, वाकाटकों का आदिस्थान सिद्ध करते हैं, जबकि कुछ इतिहासकार पुराणों में कथित किलकिला प्रदेश का समीकरण पन्ना प्रदेश से करते हुए उसे वाकाटकों की आदि भूमि मानते हैं । वाकाटकों के बाद जेजाभुक्ति के चंदेलों और त्रिपुरी के कलचुरियों के राज्यकाल में भी यह क्षेत्र बुंदेलखंड से जुड़ा रहा । इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि बुंदेलखंड की दक्षिणी सीमा महादेव पर्वतश्रेणी की गोंडवाना हिल्स है, जो जबलपुर के पूर्व में मैकल पर्वतश्रेणी से मिल जाती है ।
 
बुंदेलखंड के पूर्व में मैकल पर्वतश्रेणियाँ, भानरेर श्रेणियाँ, कैमूर श्रेणियाँ और निचली केन नदी है । दक्षिण-पूर्व में मैकल पर्वत है, इस कारण नरसिंहपुर जिले के पूर्व में स्थित जबलपुर जिले के दक्षिण-पश्चिमी समतल भाग अर्थात् पाटन और जबलपुर तहसीलों का दक्षिण-पश्चिमी भाग बुंदेलखंड के अंतर्गत आ गया है । उनकी भाषा और संस्कृति बुंदेली के अधिक निकट है, किंतु दमोह पठार के दक्षिण-पूर्व में स्थित भानरेर रेंज पाटन और जबलपुर तहसीलों के उत्तरी और उत्तरपूर्वी भागों को बुंदेलखंड से विलग कर देती है । भानरेर श्रेणियों के उत्तर-पूर्व में कैमूर श्रेणियाँ स्थित हैं, जिनके पश्चिम में स्थित पन्ना बुंदेलखंड में है और पूर्व में बघेलखंड है । पन्ना जिले की तहसीलों पवई और पन्ना के पूर्व सँकरी पट्टी में बुंदेली भाषा और संस्कृति का प्रसार है । टोंस और सोन नदियों के उद्गम का भूभाग दक्षिण-पश्चिम की उस संस्कृति से अधिक प्रभावित है, -२५ जो कि बुंदेलखंड से मिलती-जुलती है । पन्ना जिले के उत्तर में पन्ना-अजयगढ़ की पहाड़ियों का सिलसिला चित्रकूट तक चला गया है । इसलिए बाँदा जिले का वह भाग जो छतरपुर जिले के उत्तर-पूर्वी कोने और पन्ना जिले के उत्तरी कोने से बिलकुल सटा हुआ है, जो उत्तर में गौरिहार (जिला-छतरपुर) से लेकर चित्रकूट (जिला-बाँदा) तक पहाड़ी क्षेत्र की एक सीमा-रेखा बनाता है और जिसके उत्तर में बाँदा का मैदानी भाग प्रारम्भ हो जाता है, बुंदेलखंड के अंतर्गत आता है । बाँदा जिले का शेष मैदानी भाग उससे बाहर पड़ जाता है । इस तरह बुंदेलखंड की उत्तर-पूर्वी सीमा निचली केन बनाती है ।
 
भू-संरचना और राजनीति की दृष्टि से बाँदा जिला बुंदेलखंड का एक भाग माना गया है, पर उसके अधिकांश भाग की भाषा बुंदेली नहीं है और उसकी संस्कृति बुंदेली संस्कृति से कुछ बातों में भिन्न है । प्राचीन काल में बाँदा चेदि में सम्मिलित नहीं था, भारशिवों और नवनागों के साम्राज्य से बाहर था और वाकाटकों की संस्कृति यहाँ तक पहुँच नहीं पाई; किंतु उसका कालिंजर से लेकर चित्रकूट तक का भाग बहुत प्राचीन समय से ही इस संस्कृति का अंग रहा है । बाँदा के उत्तर-पूर्व में चिल्ला नामक ग्राम में आल्हा-ऊदल का निवास खोजा गया है ।-२६ विंध्यवासिनी देवी का मंदिर बुंदेलों का तीर्थस्थल रहा है । चंदेलों के समय बाँदा का अधिकांश भाग बुंदेली प्रभाव में रहा और बुंदेलों ने भी टोंस नदी तक अपना शासन फैलाया । संभवत: इसी कारण बाँदा जिले से उत्तर-पश्चिमी भाग में भी बुंदेली भाषा और संस्कृति की पैठ है । इस प्रकार बुंदेलखंड के उत्तर-पूर्व में निचली केन नदी की तटीय पट्टी का क्षेत्र, बाँदा जिले से नरैनी और करबी तहसीलों का क्रमश: दक्षिणी और दक्षिण-पश्चिमी भाग, सम्मिलित है। पूर्व में पन्ना और दमोह जिले तथा दक्षिण-पूर्व में जबलपुर जिले की पाटन और जबलपुर तहसीलों का क्रमश: दक्षिणी और दक्षिण-पश्चिमी भाग, जो मैकल श्रेणियों तक चला गया है, बुंदेलखंड में आता है । इसके अतिरिक्त सोन और टोंस की उद्गम घाटी, जो नर्मदा की तरफ दक्षिण की ओर खुलती है और जिसमें पाटन, जबलपुर, सिहोरा और मुड़वारा तहसीलों की लंबी-सी पट्टी का क्षेत्र है, बुंदेलखंड के अंतर्गत आता है ।
 
उपर्युक्त आधार पर बुंदेलखंड प्रदेश में निम्नलिखित जिले और उनके भाग आते हैं और उनसे इस प्रदेश की एक भौगोलिक, भाषिक एवं सांस्कृतिक इकाई बनती है ।
 
(१) उत्तर प्रदेश के जालौन, झाँसी, ललितपुर, हमीरपुर जिले और बाँदा जिले की नरैनी एवं करबी तहसीलों का दक्षिणी और दक्षिण-पश्चिमी भाग ।
 
(२) मध्यप्रदेश के पन्ना, छतरपुर, टीकमगढ़, दतिया, सागर, दमोह, नरसिंहपुर जिलेतथा जबलपुर जिले की जबलपुर एवं पाटन तहसीलों का दक्षिणी और दक्षिण-पश्चिमी भाग; होशंगाबाद जिले की होशंगाबाद और सोहागपुर तहसीलें; रायसेन जिले की उदयपुर, सिलवानी, गौरतगंज, बेगमगंज, बरेली तहसीलें एवं रायसेन, गौहरगंज तहसीलों का पूर्वी भाग; विदिशा जिले की कुरवई तहसील और विदिशा, बासौदा, सिरोंज तहसीलों के पुर्वी भाग; गुना जिले की अशोकनगर (पिछोर) और मुंगावली तहसीलों; शिवपुरी जिले की पिछोर और करैरा तहसीलें, ग्वालियर की पिछोर, भांडेर तहसीलों और ग्वालियर गिर्द का उत्तर-पूर्वी भाग; किंभड जिले की लहर तहसील का दक्षिणी भाग ।
 
उपर्युक्त भूभाग कै अतिरिक्त उसके चारों ओर की पेटी मिश्रित भाषा और संस्कृति की है, अतएव उसे किसी इकाई के साथ रखना ही होगा । इस कारण जो जिले (जिनके भूभाग विशुद्ध इकाई में सम्मिलित हैं) अपने को बुंदेलखंड का अंग मानते हैं, उन्हें बुंदेलखंड में सम्मिलित किया जा सकता है । ऐसे जिलों में बाँदा, जबलपुर और गुना तो आते हैं, पर अन्य के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता । मैंने तो हाण विशुद्ध इकाई को ही महत्त्व दिया है ।
 
 इनमें से  शुद्ध बुन्देली जिले टीकमगढ़, जालौन जिल का अधिकांश भाग, हमीरपुर, ग्वालियर क्षत्र के चन्दरी एवं मुंगावली इलाक, भोपाल व विदिशा जिल का आधा पश्चिमी भाग एवं दतिया की सीमा के भाग है। शेष बुन्देली भाषी जिले छतरपुर, पन्ना, दमोह, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, सिवनी, बालाघाट, छिन्दवाड़ा तथा दुर्ग के कुछ भाग है। ऐतिहासिक परम्पराएं, सांस्कृतिक एकता, सामाजिक समानताएं, भौगोलिक सुगमता और विकास की अनुकूलता किसी भी आदर्श राज्य के गुण माने जाते है। बुन्देलखंड राज्य के स्वरूप में य सभी गुण विघमान है। बुन्देलखण्ड का आकार प्रकार स्थापित करने में अनक विद्वानों के जो विभिन्न मत है, उनमें अन्तर बहुत कम है। इन सभी का जो एक सामान्य निष्कर्ष निकलता है उसक अनुसार बुन्देलखंड राज्य के अन्तर्गत 32 जिले आते हैं। व इस प्रकार हैं-
हमीरपुर, झांसी, बांदा, ललितपुर, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, दमोह, सागर, नरसिंहपुर, भिंड, दतिया, ग्वालियर, शिवपुरी, मुरैना, गुना, विदिशा, सीहोर, भोपाल, रायसन, होशंगाबाद, हरदा, बैतुल, छिंदवाड़ा, सिवनी, मण्डला, बालाघाट, कटनी और जबलपुर।
 
बुन्देली की व्याकरणगत विशेषताएं
 बुन्देली भाषा का बुनियादी शब्द भंडार और व्याकरण अपने जन समाज की भाषा संबंधी हर आवश्यकता पूरी करने योग्य है। यह भाषा समाज के हर प्रकार के विकास के लिए महान अस्त्र है और उसक ऐतिहासिक विकास की महान सफलता भी है।
 
बुन्देली ध्वनि में 10 स्वर 27 व्यंजन हैं। देवनागरी के शेष 16 अक्षर इसमें नही हैं। इन दस स्वरों में से उच्चारण हिन्दी साहित्य से भिन्न हैं।बुनियादी 750 शब्दों में से मुश्किल से 50 शब्द दोनों भाषाआं में समान होगं। इतने ही और शब्दों को खींच तान कर समानता ढूंढी जा सकती है। बाकी बुनियादी तौर पर प्रथक हैं
 
​ क्रि्याओं के विभिन्न काल बनाने के प्रत्ययों में सब एक दूसर से भिन्न  है, और कोई समानता नही है। धातुओं में विकार भी भिन्न प्रकार से होता है।
 
क्रि्याओं में जुड़ने वाल सब प्रत्ययों का हिन्दी में अभाव है। हिन्दी प्रत्यय संस्कृत से लेती है। जो बुंदेली से बिल्कुल नही मिलते हैं।
 
बुन्देली संज्ञा शब्दां की भी हिन्दी से भिन्नता है ।यह भिन्नता भाव वाचक और व्यक्ति वाचक नामों में तो बहुत है ही जाति वाचक नाम भी काफी भिन्न प्रकार के हैं। कारक के चिन्हों में से केवल 4 चिन्ह समान हैं शेष 10 भिन्न हैं। कारण सम्बन्धी विकार भी हिन्दी से भिन्न होता है।
 
बुन्देली सर्वनाम 33 हैं ।10 मूल और 23 रूपंातर क। इनमें केवल 7 एक मूल और 6 रूपांतरों के हिन्दी से समानता रखते हैं ,शेष 26 भिन्न हैं।
 
विशेषण, क्रियाविशेषण, सम्बन्ध बोधक, समुच्चय बोधक और विस्मयाधि बोधक शब्द अधिकतर हिन्दी से भिन्न है।
 
भाषा में प्रयत्न लाधव के नियम बुंदेली भाषा हिन्दी से बहुत आग निकल गई है। उसक संज्ञा, सर्वनाम, क्रियाओं आदि सब शब्द अति संक्षिप्त होते हैं। स्वरों का भारी उपयोग होता है। अधिकांश मूल शब्द एक दो अक्षरों के ही रह गए हैं। तीन अक्षरों से अधिक वाल शब्द केवल सात हैं। चार से ज्यादा तो बिरल ही होते है। इसक मुकाबल हिन्दी के शब्द अधिकतर भारी भरकम होते हैं।
 
संस्कृत उपसंर्गो का बुंदेली में कोई स्थान नही है।
 
बुन्देली की व्याकरणगत विशेषताएं :-
 
बुंदेली की ज्ञात 750 मूल क्रियायं, जिसकी धातुएं 2550 से अधिक हैं। एक – एक क्रि्रया से बंुदली भाषा के लिंग -पुरूष वाच्य और काल भेद से 288 रूप या शब्द बनते हैं। और य रूप 2550 धातुओं के सात लाख से अधिक होते हैं।
 
वकाल वाचक रूपोंं या शब्दों के अलावा इन्हीं धातु मात्र से दो हजार से अधिक भाव वाचक संज्ञाएं बनती है। सामान्य भूत और सामान्य वर्तमान काल वाचक शब्दों के 1530 विशेषण होते हैं।
 
वधातु में ने प्रत्यय जोड़ने से तत्संबंधी विशेष ढंग बताने वाल 600 से अधिक शब्द बनते हैं।
 
इसी प्रकार एक दो अक्षर वाल प्रत्यय जोड़ने से इनक विभिन्न कर्ता वाचक, कर्म वाचक, करण वाचक, विश्ाष क्रिया विशेषण, विशेष आदत वाल, विशेष स्वभाव वाल ,विशेष काम वाल ,पूर्व कालिक क्रिया, सामान्य सिलसिला, सिलसिल का प्रारम्भ, निश्चितता, अभ्यास तथा विशेष अवसर वाची शब्द नियमित रूप से बनते हैं। य सब शब्द शक्ति प्रकरण के अनुसार 15000 से अधिक होते हैं।
 
इसी प्रकार यह भाषा संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण,क्रिया विशेषण, सम्बंध वाचक, समुच्यवाचक विस्मयादि बोधक आदि बुंदेली शब्दों से भरपूर हैं। प्रत्यक संज्ञा शब्द से उस सम्बन्धी विशेषण और क्रिया शब्द अलग होते है। इसी प्रकार विशेषण शब्द की भाव वाचक संज्ञायं और क्रिया शब्द होते है जिनकी संख्या लाखों में पंहुचती है।
 
बुंदेली भाषा जीवंत वैज्ञानिक भाषा है जबकि हिन्दी किसी भी क्षत्र की मातृभाषा नही हैं। यह खड़ी बोली संस्कृत, अंग्रजी की खिचड़ी भाषा हैं ।सच्ची ठोस एकता जनभाषाओं के द्वारा स्वाभाविक रूप से विकसित होती है।
 
बुंदेली का बुनियादी शब्द भंडार और व्याकरण का सांगोंपांग ढांचा शीघ्र प्रकाश में लाने से बंदली गद्य का विकास हो सकगा। इसस एक जीवन्त क्रियाशीलता का विकास होगा। इसस बुंदेली साहित्य की कमी पूरी हो सकगी।
 
 
बुन्देल खंडी और हिन्दी भाषा
 
बुँदलखण्डी में दस स्वर और सत्ताइस व्यंजन हैं । हिन्दी के 16 अक्षर इसमें नहीं हैं। इसक 10 स्वरों में भी 8 स्वरों का उच्चारण बिल्कुल अलग है। इस मुख्य भेद को दखकर हमें चौंकना ने चाहिय क्योंकि 2500 वर्ष पहल ब्राम्ही भाषा की वर्णमाला में 33 अक्षर हैं जिसमें स्वर केवल 6 ही हैं। 250 ई.पू. अशोक के धर्म ले खों से विदित होता हैकि अ,ई,ए,औ ैक  लिए कोई अक्षर नहीं, ऋ, लृ तो हैं ही नहीं। एक हजार ई.पू. की अवस्था भाषा जो संस्कृति की बहिन है, उसमें 13 स्वर और 34 व्यंजन हैं जो सार के सार हलन्त हैं ही। 1000 ई.पू. की फिनौशियन भाषा में भी केवल 22 अक्षर हैं। इसक और पूर्व की इजिप्शयन भाषा के भाव चित्रों में सिफ‍र् 24 व्यंजन ही है और स्वर दिखते ही नहीं । यूं तो मिश्र की इजिप्शन लिपि तीन खण्डों में चलती है। प्रथम काल पहिल राज्यवश से दसव राज्यवंश 100-1700 ई.पू. तक भावचित्रों में 203 संकत हैं । द्वितीय खण्ड में 14 राज्यवंश से 17वं राज्यवंश तक 1700-525 ई.पू.  में जिस ”हरोटिक” कहते हैं, कुल 24 व्यन्जनों  की वर्णमाला थी। अन्त के काल को ‘कोआप्टिक’ भाषा  525 ई.पू से 638 ईस्वी तक तक आते हुए केवल 7 अक्षर और जुड़ । याने 11 सौ वर्षो में 31 अक्षर वाली भाषा बनी और अंत में लुप्त हो गई। इसी तरह 3 हजार ई.पू. के करीब सुमरी लिपि को अक्कादियों ने अपनी सिमैटिक भाषा के लिए अपना लिया। सुमरी कीलाक्षर लिपि में 41 संकते हैं। जिसमें 36 ध्वनि संकतों से प्राप्त हैं। अक्कादियों के अक्षर से यह मसोपोटमियां और सार पश्चिम एशिया में फैल गई तथा इसी कीलाक्षर लिपि को अनातोली, कनानी, ह्रिवू और हितियों ने अपना लिया। फिर पूर्व की ओर की बाढ़ ने इस एलाम और समस्त ईरान ने अपना लिया। भिन्न-भिन्न भौगोलिक स्थलों ने और दशों ने इस पर भी जरूर असर डाला, परिवर्तन भी किया इसीलिए इसक भावचित्र सिकुड़ और कम होते गए। चित्रात्मक से आरम्भ हुई यह लिपि भावात्मक, ध्वनिआत्मक  तथा अक्षरात्मक स्वरूपों को लांघती हुई वर्णात्मक के स्वरूप में पहुंच गई। असीरी के अक्कदी  में 600 संकत थ।  जिसमें भावचित्र भी भर पड़ थ व सुमर और एलाम पहुँचने पर केवल 120 चिन्हों में रह गई। आखिर 600 ई.पू. में ईरान के अखमानी साम्राज्य ने इन्हीं कीलाक्षरों अर्धवर्णात्मक में जन्म दिया। केवल 41 संकत ही रह गए। यह सब परिव ‍र्‍र्तन 3000 ई. पू. से 600 ई.पू. तक याने 2400 वर्षो में सम्पन्न हुआ। याने कीलाक्षर सुमरी में कुल 41 संकत है जो 36 ध्वनियों से प्राप्त होते हैं । जैस चार संकत राजा, प्रांत, भूमि और अहुर-मज्दा शुद्व भावचित्र हैं । सभी व्यन्जनों में अ स्वर निहित है और जिन व्यंजनों में इ, उ हैं उनक चिन्ह  अलग हैं। इसी तरह सिन्धु-घाटी मोहन-जो-दारो और हरप्पा भाषा में श्री सुधाँषु शंकर राय द्वारा 48 वर्ण अक्षरों को ढूँढा गया है और डा. राव के अनुसार सिंध वर्णमाला में 15 व्यन्जन और सिफ‍र् 5 स्वर ही हैं।
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अगर हम आधुनिक प्रथम शताब्दी  के वैद्याकर्णी वरूरूचि की महाप्राकृत पर नजर डालं तो उनकी परिपाटी के शिष्य आचार्य हमेंन्द्र ने अपभ्रंंश में 9 स्वर और 26 व्यंजन बताए हैं। इसलिय यह स्पष्ट है कि बुन्देली ने तो हिन्दी की बहन है और ने तो संस्कृत की पुत्री। इसको स्वयं स्वतन्त्र भाषा होने का श्रय प्राप्त है। हाँ हो सकता है संस्कृत से बुन्देली ने ठीक उसी प्रकार शब्द लिए हों जैस कन्नड़, तुलुगू, मलयालम भाषाओं ने अपने 1 लाख शब्दों के अनुपात में 60 से 70 हजार शब्द उधार लिए हैं और तमिल ने तो लाख में सिफ‍र् 40 हजार ही संस्कृत शब्द पचाए हैं।
 
 बुन्देली का व्याकरण
 
हिन्दी भाषा ने अपनी  व्याकरण का सारा कलवर संस्कृत से उधार लिया है। इस प्रकार की बात बुन्देली में नहीं है। बुन्देली का प्रारम्भिक युग में कोई व्याकरण अवश्य रहा होगा। जो या तो अब लुप्त हो गया या छानबीन का मोहताज है। लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि यह कातन्त्र व्याकरण की परम्परा में पली है। साथ ही महश्वर परम्परा याने पाणिनी व्याकरण से बहुत दूर तक अलग है। गम्भीरता से दखन पर महर्षि पाणिनी की व्याकरण शैली लगातार 2468 वर्षो से संस्कृत को अपने पन्ज में जकड़ हुय है, जकड़ं रखगी। जब तक भविष्य युग की मांग के अनुसार टक्कर में दूसरा पाणिनी नहीं  पैदा होता। आज तो भयंकर गति से बढ़ता हुआ आधुनकि ज्ञान हजारों नूतन शब्द तथा नई वाक्य रचना की मांग कर रहा है। नय संदर्भ में नय ज्ञान  को नई व्याकरण परिपाटी भी चाहिय। कैस.. ? कब.. ? यह तो भविष्य के गर्भ में है । पर आभास होने लगा है कि संस्कृत को पाणिनी के स्थान पर नय पाणिनी की आवश्यकता है। पाणिनी की जकड़ में फंसी संस्कृत अब छटपटाने लगी हैं। लेकिन बुन्देली ने पहल से ही इस प्रकार की परिधि में घिरना अस्वीकार कर दिया और बोलचाल की परिपाटी वाली कातन्त्र व्याकरण को सहज अपनाया। इसलिए कि बोलचाल की भाषा सदा गिरती पड़ती सदा गतिमान रहती है तथा  वह सदा-सदा आम जन समुदाय के निकट से निकट ही रहगी, इसी कारण बुन्देली का दामन कातन्त्र की हवा में हिलोंर ले ता है।
 
कातन्त्र की परम्परा ऐन्द्र व्याकरण से प्रारम्भ होती है जिस कुमार व्याकरण भी कहते हैं। युधिष्ठर मीमांसक ने ” व्याकरण शास्त्र का इतिहास” में आदि व्याकर्णी इन्द्र को आठ हजार ई.पू. माना है। शायद यह तिथि अनिश्चित हो, कालगणना में अतिशयोक्ति हो, लेकिन इसस आदि पुरानापन तो विदित होता ही है। इन्द्र के बाद वायु, भारद्वाज, भागुरी, पोषकर, चारायण और काषकृत्सन हैं। अन्तिम तीन समकालीन हैं। काषकृत्सन का व्याकरण तो 24 हजार श्लोकों में था। लक्ष्य रह पाणिनी की व्याकरण से कहीं बड़ी ,दुर्भाग्य से यह अब अप्राप्त है, फिर भी इसक 141 सूत्र मिलते हैं । इसका सम्पूर्ण धातु पाठ कन्नड़ भाषा में मिला है। जिस बाद में फिर से संस्कृत में उल्था किया गया है। सातवाहन काल के एक ब्राण शर्ववर्मा ने काषक्रत्सन का अत्यन्त प्रारम्भिक रूप सरली करण कर ”कातन्त्र” के नाम से लिखा हैं। यही ”कातन्त्र” बुन्देली भाषा की शिक्षा परिपाटी का स्रोत है। जिसकी उर्धवक्ता जड़ं वदकालीन संस्कृत से कहीं आग पूर्वकाल में बिखरी पड़ी है। प्रश्न फिर भी खड़ा है कि ‘कातन्त्र’ का विस्तार काल कितना है.. ? आचार्य इन्द्र, वायु, भारद्वाज आदिकाल से प्रथम, द्वितीय और तृतीय युग लपट हैं तथा अंत में चतुर्थ काल में पोषकर चारायण और काषकृत्सन है। आदिकालीन आचार्य इन्द्र की परिपाटी आठ सौवर्षोंं से कम प्रतीत नहीं होती हैं क्योंकि आदिकाल कभी भी लम्बा होता है। बुद्धि का विकास जैस-जैस बढ़ता है उसी तरह अन्य सुधार के काल कमोवश छोट होते चल जाते हैं। फिर आश्चर्य वायु और भारद्वाज द्वितीय तथा तृतीय युग लगभग 500 और 400 वर्णां का निश्चित रहा होगा। तब कहीं आचार्य पोषकर, चारायण और काषकृत्सन ने एक ही युग के समकक्ष विराजमान हो अपनी परिपाटी को संजोगा- संवारा होगा। जिसका प्रारम्भ से अन्त तक का काल अवश्य से तीन सौ वर्षो तक चलता रहा होगा। अगर इसी काल को आचार्य पाणिनी के काल 480 ई.पू.‍र् जोड़ दिया जाय तो 2480 ई.पू. होता है। यान बुन्देली अपनी काषकृत्सन परिपाटी की पुरानी जड़ों में सूक्ष्म रूप से निश्चित विद्यमान चली आ रही है। फर्क इतना है कि उन बदलते गुणों में इसका  क्या नाम था ..? पता नहीं। नामांकरण हुआ  भी था या नहीं.. ? इसका कोई ज्ञान नहीं । शायद भविष्य की खोजों में कहीं मिल।
 
कातन्त्र के परिपक्व होने की उपरोक्त गणना कतिपय विद्वितजन कपलां  कल्पित भी कह सकते हैं। लेकिन पाणिनी की परिपाटी के विषय में स्वयं पाणिनी का वर्णन इस सन्दर्भ में हमारा मार्गदर्शक होगा। उन्होंने लिखा है कि उनक पहिल 65 व्याकरण‍रचार्य  गुजर है। अगर इन समस्त आचार्यो  का काल 30 वर्ष प्रति व्यक्ति रखं तो काल 1950 वर्ष बैठता है ।इसी काल में पाणिनी का काल जोड़ दं तो 2430 ई.पू. होता है। साथ ही पाणिनी ने अपने पहल 10 आचार्यो  की भिन्न-भिन्न परिपाटी का उल्लख किया है। इनक नाम है- शकटायन, शाकल्य, आदिशाली, गाग्र्य, गालव, भारद्वाज, काश्यप, सनक, स्फोटायन और चक्रवर्यण। एक परिपाटी का सुधार दूसरी में पहुँत तो पहुंचते काफी समय व्यतीत होता है । अगर औसतन प्रत्यक का समय 200 वर्ष रखं तो काल दो हजार वर्षो का होता है। और इसमें पाणिनी का समय 480 ई.पू.  का समय निकलता है। उपरोक्त 55 व्याकर्णाचार्यो और दस भिन्न-भिन्न परिपाटियों का काल एक ही चक्र में समान्तर चलते हैं और एक दूसर की बराबरी पर उतर आते हैं और तिथियां भी एक सी दर्शाते हैं।
 
 बुन्देली का स्वर स्फुर्ण भेद
 
प्रथम हम स्वरों के उच्चारण को ही पकड़ते है।  बुंदेली में दस स्वरों का उच्चरण हिन्दी के आठ स्वरों बिल्कुल भिन्न है। यह कैस जाना जाव.. ? इसक लिए हमें ध्वनिशास्त्र पर नजर डालनी होगी। ध्वनि में केवल भेद ही नहीं वजन भी होता है। हमार भाषा-शास्त्रियों ने इस बड़ी बारीकी से नापा है। शब्द ध्वनि को 8 परमाणुओं की एक मात्रा कहा है। व्यन्जनों में एक मात्रा 8 परमाणुओं की होती है। डढ़ मात्रा 12 परमाणुआंं की। 2 मात्रा 16 परमाणुआंं  की ,ढाई  मात्रा 20 परमाणुआं की और 3 मात्रा 24 परमाणुओंं की होती है। इस क्रम में बुन्देली का स्वर उच्चारण वैभिन्न समझनं के लिय हम केवल ‘अ’ स्वर को ले ते हैं। और इसक उच्चार्णो के पांचों अलगाव को मात्राओं में दर्शाते हैं।
 
स्वर नामाकरण मात्रा परमाणु संख्या
 
1.लघुउत्तर(अ-अनमर्ति)18
 
2.लघु(अ-क) हस्व112
 
3.गुरू(अ) दीर्घ2्!!16
 
4.गुरूतर(अ) अतदीर्घ2!!20
 
5.गुरूतम प्लुत324
 
इस तालिका को दखकर हम ठीक-ठीक समझ सकंग कि ध्वनि भेद कैसा होता है। हिन्दी के इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ और औ का उच्चरण 2!! से 3 मात्रा  का होता है जबकि बुंदेली में इनकी ध्वनियां 1 से 2 मात्राओं, याने 8 से 16 परमाणुओं के माध्य से स्फुरिट होता है। इन्हीं मात्राओं  की वहज से बुंदेली काव्य तथा संगीत में कितनी सरसता आती होगी इसका अन्दाजा लगाया नहीं जा सकता । अभी तक बुन्देली जगत ने ईश्वरी सरीख कवियों को इस मापदण्ड पर तौला नहीं है और ने उनकी स्वर ध्वनियों को संगीत लहरी में लखबद्ध किया है।
 
बुन्देली में ई, ए, इ, ओ, औ, ऐ प्रत्यय हैं जब य प्रत्यय बुन्देली धातु से जुड़ते हैं तो  हिन्दी और बुन्देली का एक समान उच्चारण हो जाता है। जैस बुन्देली चर धातु से चल शब्द और उसमें जब उपरोक्त प्रत्यय जुड़ते हैं तो इनका रूप चलो, चल, चली इत्यादि हिन्दी के समान ही होता है। लेकिन याद रह इनकी बनावट में जमीन आसमान का फर्क है। क्योंकि फर्क ‘अ’ की पूर्व ध्वनि का है। बुँदलखण्डी उच्चारण में ‘अ’ इस ध्वनि की कमी हो जाती है। सबस विचित्र बात यह है कि बुन्देली में संस्कृत जैसी संधि अमान्य है। इसी अक्षर स्वर और व्यंजन एक दूसर के सामन या बाद में स्वच्छन्दता से आत और व्यंजन एक दूसर के सामने या बाद में स्वच्छन्दता से आत और बन रहते हैं। पास-पास रहन से उनक उच्चारण में कोई फर्क पड़ता ही नहीं।
 
बुन्देली में हिन्दी के अक्षर ऋ  ल  अं अ:  ड, , ढ, ष, य, व, क्ष, त्र ज्ञ नहीं है। और स्वरों में अ आ को छोड़कर इ, ई उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ को संयुक्त अक्षर माना है। इसलिय इनक उच्चारण में बड़ा फर्क पड़ गया है। उदाहरण लीजिय-
‘ई’ स्वतन्त्र स्वर ने होकर अ+ईअी है इसी तरह ‘उ’ पूणाँस्वर नहीं बल्कि अ+उअु अथवा अ+ऐअै, अ+ओअऔ इत्यादि । इसी संदर्भ में उपरोक्त ‘इ’ की लिपि का कुछ इतिहास भी दखं। दक्षिण भारत के मदुरा तथा तिरूनलवली जिल के सित्तनवासल स्थान के गुफा लेखों से  क. व्ही. सुब्रामण्यम अययर ने यह सिद्ध किया कि इनमें ‘इ’ अक्षर के लिए एक दण्ड  और दोनों ओर दो बिन्दुओं का चिन्ह मिलता है। इस ‘इ’ के लिए उत्तर भारत में इस प्रकार का चिन्ह 300 ई.पू. तक के ब्राी लेखकोंं में कहीं भी प्राप्त नहीं होता। लेकिन कालांतर में यही चिन्ह उत्तर और पश्चिम भारत के लेखों में मिलता है। इसलिए यह सहज कहा जा सकता है कि ई.प.ू तीसरी शताब्दी में‘ ई’ का यह चिन्ह दक्षिण से उत्तर पहुँच गया था। और इसका स्वरूप ‘इ’ बना। इसस भी अनुमान किया जाता है कि उत्तर भारत में‘ ई’ का स्वरूप बहुत बाद में जुड़ा। चूँकि बुन्देली इस युग से बहुत पहल प्रचलित थी तो इस ‘इ’ की ध्वनि जैस वैदिक काल के पूर्व थी उसी तरह इसका उच्चारण कायम रखा और अ+ई​िअ की तरह युक्ताक्षर माना तथा स्वतन्त्र स्वर मानने से इंकार कर दिया।
 
 
यहां  पर थोड़ी चर्चा वैज्ञानिक ढंग स, बुन्देली किस काल में बनती रही यह भी मालूम करना जरूरी है। अस्तु आधुनिक विद्वानों ने वैदिक भाषा के काल को पांच सौ ई.पू.मध्यकाल 500-1000 सन् तथा वर्तमान काल 1000 सन् से आज तक माना है। यह गणना ढर से पाश्चात्य पण्डितों से वदों की रचनाकाल निर्धारित करने की वजह से है। लेेकिन जब ऐतिहासिक दृष्टि से व ासुदशरण अग्रवाल ने पाणिनी का काल 484 ई.पू. कूता है तो वदों का काल 1500 ई.पू. मानना आश्चर्य होगा। वदों की काल रचना 25 सौ से 15 सौ ई.पू. होना निर्धारित हो चुकी तो ‘छन्दस पाली’ प्राकृत तथा अन्य बोलियों की उमर का अंदाजा लेगाना आसान है। पाली प्रकृत की प्रथम अवस्था का नाम है। सम्भव इसी कारण भारत मुनि ने प्राकृत भाषाओं का उल्लख मागधी, अवन्सी, प्राच्य, शैरसनी, अर्ध मागधी, बाल्हकि और दक्षिणात्य मेंकिया। बाद में आचार्य हमेंन्द ने पैशाची और लाटी अधिक जोड़ दी,। लेकिन दखा जाय तो मागधी, अर्धमागधी, शैरसनी और महाराष्ट्रीय के य चार प्राकृतं ही मुख्य हैं। पाली भी पंक्ति पाठ का अपभ्रस शब्द है। पाली के पूर्व वैदिक भाषा को ‘छन्दस’ कहते थ। ‘छन्दस’ ने ही प्राकृतों को जन्म दिया अथवा दोनों समकक्ष चलती रही। फिर भी छन्दस को पाली तक पहुँचने में 15सौ वर्ष लग होंग। तब प्राकृत रूप उभरता है। यह युग 500 ई.पू. से एक हाजर सन मानते हैं। लेकिन पाली का सादि स्वरूप पाली में निहित है।
 
 उसी तरह पाली छन्दस् से गुत्थी हुई है। अर्थात प्राकृत की परिपाटी भी छन्दस्  के गर्भ‍र् में निहित है। मुख्यत: पाली बुद्ध के वचनों में है और बुद्ध  का काल 624 -544 ई.पू. माना जाता है। पर पाली शब्द का प्रयोग ईस्वीसन की 5वीं शताब्दी में आचार्य बुद्ध घोष ने सर्वप्रथम उपयोग किया है और ई.पू. पाली शब्द का कहीं प्रयोग नहीं मिलता तो क्या 624 ई.पू. 500 सन् याने 11सौ वर्षो तक पाली थी ही नहीं.. ?  या बनती रही ..? अगर इतना लम्बा काल नामकरण के लिय लगता है तो उद्गम कहाँ रखना चाहिय.. ? इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है। आचार्य हरिहर निवास द्विवदी ने तो बौद्ववाँगमय की पाली तथा शैरसनी को वत्रवती की पुत्री कहा है। याने उसक  भौगोलिक क्षत्र को भी निर्धारित कर दिया है। इसलिए प्राकृतों से निकलनवाली या उसक समकक्ष सब बोलियों का उद्गम ‘छन्दस’ से है। याने बुन्देली का प्रारंभिक काल 15सौ ई.पू. मानने में कोई बाधा प्रतीत नहीं होती ।
 
पूर्व में हमने बुन्देली और हिन्दी उच्चारण भेद को समझा अब हम इनक अक्षर में दोनों को भी दखं  संस्कृत या हिन्दी का आदि स्वर ऋ’ बुन्देली में अ, इ, उ से सीमित रहता है। प्राकृत में भी ‘ऋ’ ध्वनि अ,इ,उ स्वरों से किसी एक में बदल जाती है।
 
संस्कृत ..पाली… .प्राकृत…….बुन्देली..
 
ऋक्ष    अच्छ   अच्छ   सध (ई)
 
हृदय    हदय    हदय    हिरदै (र)
 
मृग    मग    मग    मिरगा (ई)
 
पुष्कर   पोक्खर  पोक्खर  पुखरा (उ)
 
मृत    मिट    मिट    माटी(अ)
 
अब हिन्दी के अ, आ, इ, ई, उ, ऊ ए, ऐ, ओ, औ स्वरों का उच्चारण बुन्देली में इस प्रकार होगा अ, आ, ​िअ, अी, अु, अू, अ, अै, औ हिन्दी के अं आ: तो संयुक्त अक्षर होने के नाते बुन्देली में शामिल नहींहैं। साथ ही हिन्दी का एअ+ई औअ+ऊ तथा ए की वृद्धि ऎ और ओ की बुद्धि औ है इसलिए प्रारम्भिक रूप से बुन्देली में अ आ दो ही मूल स्वर हैं। इ उ तो दोनों हलन्त है। अत: हम कह सकते हैं कि अ, इ, उ ही बुन्देली के स्वर मात्र हैं। प्रथम ‘अ’ पूर्णस्वर तथा अंत के इ उ हलन्त हैं।
 
 धातु
 
किसी भी भाषा का मूलाधार धातुंए हैं। आज के पाश्चात्य विद्वान धातुओं को अमान्य करने लग हैं। कारण कुछ भी हो पर लगता है कि उनकी भाषाऐं इतनी मिश्रित हैं कि मूल का पता पाना असम्भव है।  लेकिन अगर हम अपने धातु जगत को भूल जावं तो समस्त भाषाओं का कलवर ही ढह जावगा।
हम प्रथम संस्कृत को लेते है। पाणिनि के अष्टाध्याई में 1944 संस्कृत की धातुयं गिनाई हैं। भट्टो जी दीक्षित ने उनक ग्रंथ पर टीका टिप्पणी करते हुए  2148 धातुंए लिखी हैं जिनमें दो सौ धातुऐं वैदिक काल में ही लुप्त हो गईं। इसलिए उनक अर्थ और उपयोग नष्ट हो गए । और इसी तरह दो सौ अन्य धातुओं का उपयोग ही समाप्त हो गया। अगर लेखा-जोखा किया जाय तो तो कुल धातुऐं  1748 रह जाती है। आम भ्राँति संस्कृत के बार में यह भी है कि अन्य भारतीय भाषाएं इन्ही धातुओं पर अपना कलेवर बांध हुए हैं। बात ऐसी नहीं,  आचायों ने महाराष्ट्रीय प्राकृत की 639 धातुयं हैं और अपभ्रंश की 850 धातुंए हैं । दोनों मिलाकर 1489 हैं और इनका संस्कृत से बिल्कुल अलगाव है। बुन्देली की भी अपनी धातुएं हैं जो इन्ही से ही ली गई हैं। जहां तक हिन्दी का प्रश्न है  डा.रघुवीर ने अपनहिन्दी शब्द कोष में संस्कृत से हिन्दी के लिए सरल 520 धातुंए लेना समुचित समझा और कहा कि बीस उप-सर्ग और 80 प्रत्यय जोड़ने से लाखों शब्द बनाय जा सकते हैं। लेकिन इतने शब्द अभी पैदा नहीं हुए हैं। बुन्देली की व्याकरण के लेखक श्री नुना जी ने अपनी पुस्तक ”बुन्देली भाषा का बुनियादी शब्द भंडर मे ” लगभग बुनियादी ​क्रिया शब्द 750 की बात कहीं है। बुन्देली में प्रत्यक मूल शब्द को लिंग, वचन, पुरूष, वाच्य और काल भेद से करीब 288 शब्द होते हैं तो सिफ‍र् 750 के 2 लाख 16 हजार शब्द अनायास बने हुए है।
 
लक्ष्य रह कि संस्कृत उपसर्गो का बुन्देली में कोई उपयोग नहीं क्योंकि बुँदलखंडी इसमें बिल्कुल भिन्न है। जब यह संस्कृत की जोड़ में उतनी दूर है तो हिन्दी की बात ही क्या! क्रियाओं के विभिन्न काल दर्शाने वाल प्रत्यय स्वंय भिन्न हैं। कोई एक दूसर से मिलता नहीं । धातुओं में विकार भी अलग प्रकार से होता है। वैस तो क्रियाओं में जुड़ने वाल सब प्रत्ययों का हिंदी में अभाव है। हिन्दी तो सीध संस्कृत से प्रत्यय उधार लेती है। जिसक बुँदलखण्डी से कोई मलजोल बैठता ही नहीं। बुन्देली में संज्ञा शब्द कितने ही दहाती से प्रतीत क्यों ने हो, पर व स्वयं में सहज हैं और हिन्दी से उनकी विशेष भिन्नता दिखती है। यही भिन्नता भाव-वाचक, व्यक्तिवाचक, जातिवाचक नामों में भी प्रतीत होती है। व्याकरण का मूलाधार अक्षरों के उच्चारण में निहित हैजो अपन-अपने स्थान से भेद भी दर्शाता है। वैदिक ध्वनि समूह में 52 ध्वनियां हैं। स्वर 13 जिनमें मूल 9 और 4 संयुक्त ,फिर 39 स्पर्श व्यंजन हैं।
 
मानव को ज्ञान कोष की वृद्धि के साथ ध्वनियां भी बढ़ानी पडी़ ताकि शब्द कोष बढ़ । इसलिय संस्कृत के फैलाव में ध्वनियों का विस्तार करना पड़ा लेकिन मूल ध्वनियां कहीं ने कहीं तो थी हीं और व संस्कृत के लिय छन्दस् से प्राप्त हुई और इसी छन्दस् सपंाली ने भी ली परन्तुवह उनका विस्तार नहीं कर पाई। फिर भी वह अपना ज्ञान 10+3344 ध्वनियों से निकाल लेती थीं। क्योंकि इसमें सहज लोच था। इसी प्रकार बुन्देली तो 10+2737 से ही अपना कार्य चला लेती थी। क्योंकि इसमें समयानुकूल शब्दावली प्राप्त थी। याने इन्हीं 37 और 44 स्वर व्यन्जनों का विकास 52 ध्वनियां हैं इसस प्रमाणित होता है कि 37 ध्वनियों वाली बुन्देली बोली या भाषा सबस पुरानी हैं और वह अपना अस्तित्व अभी तक शान से निभाय चली जा रही है। यहाँ यह भी कह देना जरूरी है कि प्रत्यक संस्कृत अक्षर की ध्वनियाँ 2835 प्रकार की हैं और इस महती छलनी से छानकर बुन्देली की ध्वनि प्रकार भी निकालना होगा।

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