गुरुवार, 17 मार्च 2011

समाज हिन्दी भाषा का महत्व समझे

सुना है अब इंटरनेट में लैटिन के साथ ही देवनागरी में भी खोज सुगम होने वाली है। यह एक अच्छी खबर है मगर इससे हिंदी भाषा के पढ़ने और लिखने वालों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ जायेगी, यह आशा करना एकदम गलत होगा। सच तो यह है कि अगर देवनागरी में खोज सुगम हुई भी तो भी इसी मंथर गति से ही हिंदी लेखन और पठन में बढ़ोतरी होगी जैसे अब हो रही है। हिंदी को लेकर जितनी उछलकूल दिखती है उतनी वास्तविकता जमीन पर नहीं है। सच कहें तो कभी कभी तो लगता है कि हम हिंदी में इसलिये लिख पढ़े रहे हैं क्योंकि अंग्रेजी हमारे समझ में नहीं आती। हम हिंदी में लिख पढ़ते भी इसलिये भी है ताकि जैसा लेखक ने लिखा है वैसा ही समझ में आये। वरना तो जिनको थोड़ी बहुत अंग्रेजी आती है उनको तो हिंदी में लिखा दोयम दर्जे का लगता है। वैसे अंतर्जाल पर हम लोगों की अंग्रेजी देखने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे है कि लोगों की अंग्रेजी भी कोई परिपक्व है इस...

मंगलवार, 15 मार्च 2011

आर्य (Arya)

आर्य (Arya) हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है यह पुण्य भूमि प्रसिद्घ है, इसके निवासी आर्य हैं विद्या कला कौशल्य सबके, जो प्रथम आचार्य हैं संतान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े पर चिन्ह उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े वे आर्य ही थे जो कभी, अपने लिये जीते न थे वे स्वार्थ रत हो मोह की, मदिरा कभी पीते न थे वे मंदिनी तल में, सुकृति के बीज बोते थे सदा परदुःख देख दयालुता से, द्रवित होते थे सदा संसार के उपकार हित, जब जन्म लेते थे सभी निश्चेष्ट हो कर किस तरह से, बैठ सकते थे कभी फैला यहीं से ज्ञान का, आलोक सब संसार में जागी यहीं थी, जग रही जो ज्योति अब संसार में वे...

किसको नमन करूँ मैं भारत (Kisko Naman Karu Mein Bharat?)

किसको नमन करूँ मैं भारत (Kisko Naman Karu Mein Bharat?) तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ? मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ? किसको नमन करूँ मैं भारत ? किसको नमन करूँ मैं ? भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है ? नर के नभश्चरण की दृढ़ कल्पना नहीं क्या तू है ? भेदों का ज्ञाता, निगूढ़ताओं का चिर ज्ञानी है मेरे प्यारे देश ! नहीं तू पत्थर है, पानी है जड़ताओं में छिपे किसी चेतन को नमन करूँ मैं ? भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं ! खंडित है यह मही शैल से, सरिता से सागर से पर, जब भी दो हाथ निकल मिलते आ द्वीपांतर से तब खाई को पाट शून्य में महामोद मचता है दो द्वीपों के बीच सेतु यह...

विजयी के सदृश जियो रे (Vijayi Ke Sadrish Jiyo Re)

विजयी के सदृश जियो रे (Vijayi Ke Sadrish Jiyo Re) वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो चट्टानों की छाती से दूध निकालो है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है चिनगी बन फूलों का पराग जलता है सौन्दर्य बोध बन नयी आग जलता है ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है भामिनी वही तरुणी नर वही तरुण है है वही प्रेम जिसकी तरंग उच्छल है वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है तलवार प्रेम से और तेज होती है छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाये दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है मरता है जो एक ही बार मरता है तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर...

परिचय (Parichay)

परिचय (Parichay) सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं बँधा हूँ, स्वपन हूँ, लघु वृत हूँ मैं नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं समाना चाहता है, जो बीन उर में विकल उस शुन्य की झनंकार हूँ मैं भटकता खोजता हूँ, ज्योति तम में सुना है ज्योति का आगार हूँ मैं जिसे निशि खोजती तारे जलाकर उसीका कर रहा अभिसार हूँ मैं जनम कर मर चुका सौ बार लेकिन अगम का पा सका क्या पार हूँ मैं कली की पंखडीं पर ओस-कण में रंगीले स्वपन का संसार हूँ मैं मुझे क्या आज ही या कल झरुँ मैं सुमन हूँ, एक लघु उपहार हूँ मैं मधुर जीवन हुआ कुछ प्राण! जब से लगा ढोने व्यथा का भार हूँ मैं रुंदन अनमोल धन कवि का, इसी से पिरोता आँसुओं का हार हूँ मैं मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का चिता का धूलिकण हूँ, क्षार हूँ मैं पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी समा जिस्में चुका सौ बार हूँ मैं न देंखे विश्व, पर मुझको घृणा से मनुज हूँ, सृष्टि...

आग की भीख (Aag Ki Bheek)

आग की भीख (Aag Ki Bheek) धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है दाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे प्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँ चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है मँझदार है, भँवर है या पास है किनारा? यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा? आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा तमवेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ डेर हो रहा है है रो रही जवानी, अँधेर हो रहा है निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है निस्तब्धता निशा की दिन में...

कलम, आज उनकी जय बोल (Kalam Aaj Unki Jai Bol)

कलम, आज उनकी जय बोल जो अगणित लघु दीप हमारे तुफानों में एक किनारे जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन मांगा नहीं स्नेह मुंह खोल कलम, आज उनकी जय बोल पीकर जिनकी लाल शिखाएं उगल रही लपट दिशाएं जिनके सिंहनाद से सहमी धरती रही अभी तक डोल कलम, आज उनकी जय बोल - रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar)...

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद - Raat Yo Kahne Laga Mujse Gagan ka Chaand

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद, आदमी भी क्या अनोखा जीव है । उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता, और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है । जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ? मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते । और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते। आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का आज उठता और कल फिर फूट जाता है । किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है । मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली, देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू? स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी, आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू? मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते, आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ । और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की, इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ । मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी कल्पना की जीभ में भी धार होती है । वाण ही होते विचारों के नहीं केवल, स्वप्न...

गुरुवार, 3 मार्च 2011

निर्मल वर्मा की कहानी ' दहलीज़'

निर्मल वर्मा की कहानी ' दहलीज़'पिछली रात रूनी को लगा कि इतने बरसों बाद कोई पुराना सपना धीमे कदमों से उसके पास चला आया है। वही बंगला था, अलग कोने में पत्तियों से घिरा हुआ....धीरे धीरे फाटक के भीतर घुसी है...मौन की अथाह गहराई में लान डूबा है....शुरु मार्च की वसंती हवा घास को सिहरा-सहला जाती है...बहुत बरसों के एक रिकार्ड की धुन छतरी के नीचे से आ रही है...ताश के पत्ते घांस पर बिखरे हैं....लगता है शम्मी भाई अभी खिलखिला कर हंस देंगे और आपा(बरसों पहले जिनका नाम जेली था) बंगले के पिछवाड़े क्यारियों को खोदते हुये पूंछेंगी- रूनी जरा मेरे हांथों को तो देख, कितने लाल हो गये हैं!इतने बरसों बाद रूनी को लगा कि वह बंगले के सामने खड़ी है और सब कुछ वैसा ही है, जैसा कभी बरसों पहले, मार्च के एक दिन की तरह था...कुछ भी नहीं बदला, वही बंगला है, मार्च की खुश्क, गरम हवा सांय-सांय करती चली आ रही है, सूनी सी दोपहर...

निराला

निरालासूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" : एक परिचयसूर्यकांत त्रिपाठी "निराला " ने अपना जीवन परिचय एक पंक्ति में देते हुए लिखा है ,"दुःख हीजीवन की कथा रही"। सच में निराला का जीवन दुखों से भरा था और उन दुखों को चुनौती देने ,उनसे जूझने और उन्हें परास्त करने में ही उनका निरालापन था। निराला जी का जन्म १८९६ में पंडित रामसहाय त्रिपाठी जी के घर में हुआ था। त्रिपाठी जी बंगाल में महिषादल राज्य के अंतर्गत मेदिनीपुर में राज्बत्ति में सिपाही थे। अपने पौरुष के कारण वे उस छोटे से जगह में प्रसिद्ध थे और उनका मान था। वे स्वभाव से कठोर तथा अत्यधिक अनुशासन प्रिय थे। प्रायः बालक सूर्यकुमार को छोटे छोटे अपराधो पर भी कठोर दंड दिया जाता था।...

नागार्जुन

नागार्जुननागार्जुन : एक परिचयआधुनिक हिन्दी साहित्य के सशक्त कवि,कहानीकार,उपन्यासकार एवं निबंध लेखकबैद्यनाथ मिश्र "यात्री" जी का जन्म सन १९११ में अपने ननिहाल में बिहार के सतलखानामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता तरौनी गाँव के रहने वाले थे जोकि दरभंगा (बिहार)में है। काशी के संस्कृत विद्यालय से व्याकरण का अध्ययन करने के बाद इन्होनेकलकत्ता में साहित्याचार्य तक संस्कृत का अध्ययन किया। श्रीलंका में रहते हुएइन्होने पाली भाषा तथा बौद्ध -दर्शन का अध्ययन किया। यायावर स्वभाव तथा मनमौजीपन नागार्जुन के व्यक्तित्व कीविशेषता है। लंका में नागार्जुन जी सन १९३६ से १९३८ तक दो बर्ष रहे।नागार्जुन ने सम्पूर्ण भारत का अनेक बार भ्रमण किया था। नागार्जुन जी ने मैथिली और हिन्दी में रचनायें लिखी है । वेअपनी मातृभाषा मैथिली में "यात्री" के उपनाम से लिखते थे। बंगला और संस्कृत में भी आप ने कविताये लिखी है। सन१९३५ में हिन्दी -मासिक "दीपक" का संपादन किया था। सन १९४२-४३ में विश्व बंधू (साप्ताहिक )का संपादन किया।नागार्जुन राजनितिक गतिविधियो से भी निरंतर जुड़े रहे थे। इस सिलसिले में उन्हें अनेक बार जेल भी जाना पड़ा था।नागार्जुन प्रगतिशील चेतना के कलाकार थे,इसलिए उनकी कविता में उनका युग अपनी सम्पूर्णता से ध्वनित हुआ है।नागार्जुन की कविता के विषय में सुप्रसिद्ध आलोचक रामविलास शर्मा ने लिखा है :"जहा मौत नही है ,बुढापा नही है ,जनताके असंतोष और राज्य सभाई जीवन का संतुलन नही है ,वह कविता है नागार्जुन की । ढाई पसली के घुमन्तु जीव ,दमे केमरीज ,गृहस्थी का भार-फिर भी क्या ताकत है । और कवियों में जहा छायावादी कल्पनशीलता प्रबल हुई है ,नागार्जुन कीछाया वादी काव्य-शैली कभी की ख़त्म हो चुकी है । अन्य कवियों में जहा रहस्यवाद और यथार्थवाद को लेकर द्वंद है,नागार्जुन का व्यंग और पैना हुआ है ,क्रांतिकारी आस्था और अडिग हुई है,उनके यथार्थ -चित्रण में अधिक विविधता औरप्रौढ़ता आई है । उनकी कविताये लोक संस्कृति के इतना नजदीक है कि उसी का एक विकसित रूप मालुम होती है किंतु वेलोकगीत से भिन्न है ,सबसे पहले अपनी भाषा खड़ी बोली के कारण, उसके बाद अपनी प्रखर राजनीतिक चेतना केकारण,और अंत में बोल-चाल की भाषा की गति और लय को आधार मानकर नए-नए प्रयोगों के कारण। हिन्दी भाषा....किसान और मजदूर जिस तरह की भाषा समझते और बोलते है ,उसका निखरा हुआ काव्यमय रूप नागार्जुन के यहाँ है ।"नागार्जुन की कविता सामाजिक सरोकारों से जुड़ी हुई कविता है । वे धरती, जनता और श्रम के गीत गाने वाले कलाकार है :खड़ी हो गई चापकर कंकालो की हूकनभ में विपुल विराट -सी शासन की बन्दूकउस हिटलरी गुमान पर सभी रहे है थूकजिसमे कानी हो गई शासन की बन्दूकसत्य स्वयं घायल हुआ,गई अहिंसा चूकजहा-तहा दागने लगी शासन की बन्दूककबीर...

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