गुरुवार, 3 मार्च 2011

कृष्णा सोबती की कहानी 'सिक्का बदल गया'


कृष्णा सोबती की कहानी 'सिक्का बदल गया'

खद्दर की चादर ओढ़ेहाथ में माला लिए शाहनी जब दरिया के किनारे पहुंची तो पौ फट रही थी। दूर-दूर आसमान के परदे पर लालिमा फैलती जा रही थी। शाहनी ने कपड़े उतारकर एक ओर रक्खे और 'श्रीराम,श्रीरामकरती पानी में हो ली। अंजलि भरकर सूर्य देवता को नमस्कार कियाअपनी उनीदी आंखों पर छींटे दिये और पानी से लिपट गयी!
चनाब का पानी आज भी पहले-सा ही सर्द थालहरें लहरों को चूम रही थीं। वह दूर सामने काश्मीर की पहाड़ियों से बंर्फ पिघल रही थी। उछल-उछल आते पानी के भंवरों से टकराकर कगारे गिर रहे थे लेकिन दूर-दूर तक बिछी रेत आज न जाने क्यों खामोश लगती थी! शाहनी ने कपड़े पहनेइधर-उधर देखाकहीं किसी की परछाई तक न थी। पर नीचे रेत में अगणित पांवों के निशान थे। वह कुछ सहम-सी उठी!
आज इस प्रभात की मीठी नीरवता में न जाने क्यों कुछ भयावना-सा लग रहा है। वह पिछले पचास वर्षों से यहां नहाती आ रही है। कितना लम्बा अरसा है! शाहनी सोचती हैएक दिन इसी दुनिया के किनारे वह दुलहिन बनकर उतरी थी। और आज...आज शाहजी नहींउसका वह पढ़ा-लिखा लड़का नहीं, आज वह अकेली हैशाहजी की लम्बी-चौड़ी हवेली में अकेली है। पर नहींयह क्या सोच रही है वह सवेरे-सवेरे! अभी भी दुनियादारी से मन नहीं फिरा उसका! शाहनी ने लम्बी सांस ली और 'श्री रामश्री राम', करती बाजरे के खेतों से होती घर की राह ली। कहीं-कहीं लिपे-पुते आंगनों पर से धुआं उठ रहा था। टनटनबैलोंकी घंटियां बज उठती हैं। फिर भी...फिर भी कुछ बंधा-बंधा-सा लग रहा है। 'जम्मीवालाकुआं भी आज नहीं चल रहा। ये शाहजी की ही असामियां हैं। शाहनी ने नंजर उठायी। यह मीलों फैले खेत अपने ही हैं। भरी-भरायी नयी फसल को देखकर शाहनी किसी अपनत्व के मोह में भीग गयी। यह सब शाहजी की बरकतें हैं। दूर-दूर गांवों तक फैली हुई जमीनेंजमीनों में कुएं सब अपने हैं। साल में तीन फसलजमीन तो सोना उगलती है। शाहनी कुएं की ओर बढ़ीआवांज दी, ''शेरेशेरेहसैना हसैना...।''
शेरा शाहनी का स्वर पहचानता है। वह न पहचानेगा! अपनी मां जैना के मरने के बाद वह शाहनी के पास ही पलकर बड़ा हुआ। उसने पास पड़ा गंडासा 'शटालेके ढेर के नीचे सरका दिया। हाथ में हुक्का पकड़कर बोला''ऐ हैसैना-सैना...।'' शाहनी की आवांज उसे कैसे हिला गयी है! अभी तो वह सोच रहा था कि उस शाहनी की ऊंची हवेली की अंधेरी कोठरी में पड़ी सोने-चांदी की सन्दूकचियां उठाकर...कि तभी 'शेरे शेरे...। शेरा गुस्से से भर गया। किस पर निकाले अपना क्रोधशाहनी पर! चीखकर बोला''ऐ मर गयीं एं एब्ब तैनू मौत दे''
हसैना आटेवाली कनाली एक ओर रखजल्दी-जल्दी बाहिर निकल आयी। ''ऐ आयीं आं क्यों छावेले (सुबह-सुबह) तड़पना एं?''
अब तक शाहनी नंजदीक पहुंच चुकी थी। शेरे की तेजी सुन चुकी थी। प्यार से बोली, ''हसैनायह वक्त लड़ने का हैवह पागल है तो तू ही जिगरा कर लिया कर।''
''जिगरा !'' हसैना ने मान भरे स्वर में कहा''शाहनीलड़का आंखिर लड़का ही है। कभी शेरे से भी पूछा है कि मुंह अंधेरे ही क्यों गालियां बरसाई हैं इसने?'' शाहनी ने लाड़ से हसैना की पीठ पर हाथ फेराहंसकर बोली''पगली मुझे तो लड़के से बहू प्यारी है! शेरे''
''हां शाहनी!''
''मालूम होता हैरात को कुल्लूवाल के लोग आये हैं यहां?'' शाहनी ने गम्भीर स्वर में कहा।
शेरे ने जरा रुककरघबराकर कहा, ''नहीं शाहनी...'' शेरे के उत्तर की अनसुनी कर शाहनी जरा चिन्तित स्वर से बोली, ''जो कुछ भी हो रहा हैअच्छा नहीं। शेरेआज शाहजी होते तो शायद कुछ बीच-बचाव करते। पर...''शाहनी कहते-कहते रुक गयी। आज क्या हो रहा है। शाहनी को लगा जैसे जी भर-भर आ रहा है। शाहजी को बिछुड़े कई साल बीत गयेपरपर आज कुछ पिघल रहा है शायद पिछली स्मृतियां...आंसुओं को रोकने के प्रयत्न में उसने हसैना की ओर देखा और हल्के-से हंस पड़ी। और शेरा सोच ही रहा हैक्या कह रही है शाहनी आज! आज शाहनी क्याकोई भी कुछ नहीं कर सकता। यह होके रहेगा क्यों न होहमारे ही भाई-बन्दों से सूद ले-लेकर शाहजी सोने की बोरियां तोला करते थे। प्रतिहिंसा की आग शेरे की आंखों में उतर आयी। गंड़ासे की याद हो आयी। शाहनी की ओर देखानहीं-नहींशेरा इन पिछले दिनों में तीस-चालीस कत्ल कर चुका है परपर वह ऐसा नीच नहीं...सामने बैठी शाहनी नहींशाहनी के हाथ उसकी आंखों में तैर गये। वह सर्दियों की रातें कभी-कभी शाहजी की डांट खाके वह हवेली में पड़ा रहता था। और फिर लालटेन की रोशनी में वह देखता हैशाहनी के ममता भरे हाथ दूध का कटोरा थामे हुए 'शेरे-शेरेउठपी ले।शेरे ने शाहनी के झुर्रियां पड़े मुंह की ओर देखा तो शाहनी धीरे से मुस्करा रही थी। शेरा विचलित हो गया। 'आंखिर शाहनी ने क्या बिगाड़ा है हमाराशाहजी की बात शाहजी के साथ गयीवह शाहनी को जरूर बचाएगा। लेकिन कल रात वाला मशवरा! वह कैसे मान गया था फिरोंज की बात! 'सब कुछ ठीक हो जाएगासामान बांट लिया जाएगा!'
''शाहनी चलो तुम्हें घर तक छोड़ आऊं!''
शाहनी उठ खड़ी हुई। किसी गहरी सोच में चलती हुई शाहनी के पीछे-पीछे मंजबूत कदम उठाता शेरा चल रहा है। शंकित-सा-इधर उधर देखता जा रहा है। अपने साथियों की बातें उसके कानों में गूंज रही हैं। पर क्या होगा शाहनी को मारकर?
''शाहनी!''
''हां शेरे।''
शेरा चाहता है कि सिर पर आने वाले खतरे की बात कुछ तो शाहनी को बता देमगर वह कैसे कहे?''
''शाहनी''
शाहनी ने सिर ऊंचा किया। आसमान धुएं से भर गया था। ''शेरे''
शेरा जानता है यह आग है। जबलपुर में आज आग लगनी थी लग गयी! शाहनी कुछ न कह सकी। उसके नाते रिश्ते सब वहीं हैं
हवेली आ गयी। शाहनी ने शून्य मन से डयोढ़ी में कदम रक्खा। शेरा कब लौट गया उसे कुछ पता नहीं। दुर्बल-सी देह और अकेलीबिना किसी सहारे के! न जाने कब तक वहीं पड़ी रही शाहनी। दुपहर आयी और चली गयी। हवेली खुली पड़ी है। आज शाहनी नहीं उठ पा रही। जैसे उसका अधिकार आज स्वयं ही उससे छूट रहा है! शाहजी के घर की मालकिन...लेकिन नहींआज मोह नहीं हट रहा। मानो पत्थर हो गयी हो। पड़े-पड़े सांझ हो गयीपर उठने की बात फिर भी नहीं सोच पा रही। अचानक रसूली की आवांज सुनकर चौंक उठी।
''शाहनी-शाहनीसुनो ट्रकें आती हैं लेने?''
''ट्रके...?'' शााहनी इसके सिवाय और कुछ न कह सकी। हाथों ने एक-दूसरे को थाम लिया। बात की बात में खबर गांव भर में फैल गयी। बीबी ने अपने विकृत कण्ठ से कहा''शाहनीआज तक कभी ऐसा न हुआन कभी सुना। गजब हो गयाअंधेर पड़ गया।''
शाहनी मूर्तिवत् वहीं खड़ी रही। नवाब बीबी ने स्नेह-सनी उदासी से कहा''शाहनीहमने तो कभी न सोचा था!''
शाहनी क्या कहे कि उसीने ऐसा सोचा था। नीचे से पटवारी बेगू और जैलदार की बातचीत सुनाई दी। शाहनी समझी कि वक्त आन पहुंचा। मशीन की तरह नीचे उतरीपर डयोढ़ी न लांघ सकी। किसी गहरीबहुत गहरी आवांज से पूछा''कौनकौन हैं वहां?''
कौन नहीं है आज वहांसारा गांव हैजो उसके इशारे पर नाचता था कभी। उसकी असामियां हैं जिन्हें उसने अपने नाते-रिश्तों से कभी कम नहीं समझा। लेकिन नहींआज उसका कोई नहींआज वह अकेली है! यह भीड़ की भीड़उनमें कुल्लूवाल के जाट। वह क्या सुबह ही न समझ गयी थी?
बेगू पटवारी और मसीत के मुल्ला इस्माइल ने जाने क्या सोचा। शाहनी के निकट आ खड़े हुए। बेगू आज शाहनी की ओर देख नहीं पा रहा। धीरे से जरा गला सांफ करते हुए कहा''शाहनीरब्ब नू एही मंजूर सी।''
शाहनी के कदम डोल गये। चक्कर आया और दीवार के साथ लग गयी। इसी दिन के लिए छोड़ गये थे शाहजी उसेबेजान-सी शाहनी की ओर देखकर बेगू सोच रहा है 'क्या गुंजर रही है शाहनी पर! मगर क्या हो सकता है! सिक्का बदल गया है...'
शाहनी का घर से निकलना छोटी-सी बात नहीं। गांव का गांव खड़ा है हवेली के दरवाजे से लेकर उस दारे तक जिसे शाहजी ने अपने पुत्र की शादी में बनवा दिया था। तब से लेकर आज तक सब फैसलेसब मशविरे यहीं होते रहे हैं। इस बड़ी हवेली को लूट लेने की बात भी यहीं सोची गयी थी! यह नहीं कि शाहनी कुछ न जानती हो। वह जानकर भी अनजान बनी रही। उसने कभी बैर नहीं जाना। किसी का बुरा नहीं किया। लेकिन बूढ़ी शाहनी यह नहीं जानती कि सिक्का बदल गया है...
देर हो रही थी। थानेदार दाऊद खां जरा अकड़कर आगे आया और डयोढ़ी पर खड़ी जड़ निर्जीव छाया को देखकर ठिठक गया! वही शाहनी है जिसके शाहजी उसके लिए दरिया के किनारे खेमे लगवा दिया करते थे। यह तो वही शाहनी है जिसने उसकी मंगेतर को सोने के कनफूल दिये थे मुंह दिखाई में। अभी उसी दिन जब वह'लीगके सिलसिले में आया था तो उसने उद्दंडता से कहा था'शाहनीभागोवाल मसीत बनेगीतीन सौ रुपया देना पड़ेगा!शाहनी ने अपने उसी सरल स्वभाव से तीन सौ रुपये दिये थे। और आज...?
''शाहनी!'' डयोढ़ी के निकट जाकर बोला''देर हो रही है शाहनी। (धीरे से) कुछ साथ रखना हो तो रख लो। कुछ साथ बांध लिया हैसोना-चांदी''
शाहनी अस्फुट स्वर से बोली''सोना-चांदी!'' जरा ठहरकर सादगी से कहा''सोना-चांदी! बच्चा वह सब तुम लोगों के लिए है। मेरा सोना तो एक-एक जमीन में बिछा है।''
दाऊद खां लज्जित-सा हो गया। ''शाहनी तुम अकेली होअपने पास कुछ होना जरूरी है। कुछ नकदी ही रख लो। वक्त का कुछ पता नहीं''
''वक्त?'' शाहनी अपनी गीली आंखों से हंस पड़ी। ''दाऊद खांइससे अच्छा वक्त देखने के लिए क्या मैं जिन्दा रहूंगी!'' किसी गहरी वेदना और तिरस्कार से कह दिया शाहनी ने।
दाऊद खां निरुत्तर है। साहस कर बोला''शाहनी कुछ नकदी जरूरी है।''
''नहीं बच्चा मुझे इस घर से''शाहनी का गला रुंध गया''नकदी प्यारी नहीं। यहां की नकदी यहीं रहेगी।''
शेरा आन खड़ा गुजरा कि हो ना हो कुछ मार रहा है शाहनी से। ''खां साहिब देर हो रही है''
शाहनी चौंक पड़ी। देरमेरे घर में मुझे देर ! आंसुओं की भँवर में न जाने कहाँ से विद्रोह उमड़ पड़ा। मैं पुरखों के इस बड़े घर की रानी और यह मेरे ही अन्न पर पले हुए...नहींयह सब कुछ नहीं। ठीक हैदेर हो रही हैपर नहींशाहनी रो-रोकर नहींशान से निकलेगी इस पुरखों के घर सेमान से लाँघेगी यह देहरीजिस पर एक दिन वह रानी बनकर आ खड़ी हुई थी। अपने लड़खड़ाते कदमों को संभालकर शाहनी ने दुपट्टे से आंखें पोछीं और डयोढ़ी से बाहर हो गयी। बडी-बूढ़ियाँ रो पड़ीं। किसकी तुलना हो सकती थी इसके साथ! खुदा ने सब कुछ दिया थामगरमगर दिन बदलेवक्त बदले...
शाहनी ने दुपट्टे से सिर ढाँपकर अपनी धुंधली आंखों में से हवेली को अन्तिम बार देखा। शाहजी के मरने के बाद भी जिस कुल की अमानत को उसने सहेजकर रखा आज वह उसे धोखा दे गयी। शाहनी ने दोनों हाथ जोड़ लिए यही अन्तिम दर्शन थायही अन्तिम प्रणाम था। शाहनी की आंखें फिर कभी इस ऊंची हवेली को न देखी पाएंगी। प्यार ने जोर मारासोचाएक बार घूम-फिर कर पूरा घर क्यों न देख आयी मैंजी छोटा हो रहा हैपर जिनके सामने हमेशा बड़ी बनी रही है उनके सामने वह छोटी न होगी। इतना ही ठीक है। बस हो चुका। सिर झुकाया। डयोढ़ी के आगे कुलवधू की आंखों से निकलकर कुछ बन्दें चू पड़ीं। शाहनी चल दीऊंचा-सा भवन पीछे खड़ा रह गया। दाऊद खांशेरापटवारीजैलदार और छोटे-बड़ेबच्चेबूढ़े-मर्द औरतें सब पीछे-पीछे।
ट्रकें अब तक भर चुकी थीं। शाहनी अपने को खींच रही थी। गांववालों के गलों में जैसे धुंआ उठ रहा है। शेरे,खूनी शेरे का दिल टूट रहा है। दाऊद खां ने आगे बढ़कर ट्रक का दरवांजा खोला। शाहनी बढ़ी। इस्माइल ने आगे बढ़कर भारी आवांज से कहा'' शाहनीकुछ कह जाओ। तुम्हारे मुंह से निकली असीस झूठ नहीं हो सकती!'' और अपने साफे से आंखों का पानी पोछ लिया। शाहनी ने उठती हुई हिचकी को रोककर रुंधे-रुंधे से कहा, ''रब्ब तुहानू सलामत रक्खे बच्चाखुशियां बक्शे...।''
वह छोटा-सा जनसमूह रो दिया। जरा भी दिल में मैल नहीं शाहनी के। और हमहम शाहनी को नहीं रख सके। शेरे ने बढ़कर शाहनी के पांव छुए, ''शाहनी कोई कुछ कर नहीं सका। राज भी पलट गया'' शाहनी ने कांपता हुआ हाथ शेरे के सिर पर रक्खा और रुक-रुककर कहा''तैनू भाग जगण चन्ना!'' (ओ चा/द तेरे भाग्य जागें) दाऊद खां ने हाथ का संकेत किया। कुछ बड़ी-बूढ़ियां शाहनी के गले लगीं और ट्रक चल पड़ी।
अन्न-जल उठ गया। वह हवेलीनयी बैठकऊंचा चौबाराबड़ा 'पसारएक-एक करके घूम रहे हैं शाहनी की आंखों में! कुछ पता नहींट्रक चल दिया है या वह स्वयं चल रही है। आंखें बरस रही हैं। दाऊद खां विचलित होकर देख रहा है इस बूढ़ी शाहनी को। कहां जाएगी अब वह?
''शाहनी मन में मैल न लाना। कुछ कर सकते तो उठा न रखते! वकत ही ऐसा है। राज पलट गया है,सिक्का बदल गया है...''
रात को शाहनी जब कैंप में पहुंचकर जमीन पर पड़ी तो लेटे-लेटे आहत मन से सोचा 'राज पलट गया है...सिक्का क्या बदलेगावह तो मैं वहीं छोड़ आयी।...'
और शाहजी की शाहनी की आंखें और भी गीली हो गयीं!
आसपास के हरे-हरे खेतों से घिरे गांवों में रात खून बरसा रही थी।
शायद राज पलटा भी खा रहा था और सिक्का बदल रहा था...

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