गुरुवार, 3 मार्च 2011

उसने कहा था - चन्द्रधर शर्मा गुलेरी


उसने कहा था - चन्द्रधर शर्मा गुलेरी

बडे-बडे शहरों के इक्के-गाडिवालों की जवान के कोडाें से जिनकी पीठ छिल गई  है, और कान पक गये हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बूकार्ट वालों की बोली का मरहम लगायें।  जब बडे-बडे शहरों की चौडी सडक़ों पर घोडे क़ी पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोडे क़ी नानी से अपना निकट-सम्बन्ध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं,कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरे  को चींघकर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लङ्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमडा कर बचो खालसाजी।  हटो भाईजी। ठहरना भाई जी।  आने दो लाला जी।  हटो बाछा। -- कहते हुए सफेद फेटोंखच्चरों और बत्तकों,गन्नें और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं।   क्या मजाल है कि जी और'साहब बिना सुने किसी को हटना पडे।  यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहींपर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई।  यदि कोई बुढिया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटतीतो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं -- हट जा जीणे जोगिएहट जा करमा वालिए;हट जा पुतां प्यारिएबच जा लम्बी वालिए।  समष्टि में इनके अर्थ हैंकि तू जीने योग्य है,तू भाग्योंवाली हैपुत्रों को प्यारी हैलम्बी उमर तेरे सामने हैतू क्यों मेरे पहिये के नीचे आना चाहती हैबच जा। 
से बम्बूकार्टवालों के बीच में होकर एक लडक़ा और एक लडक़ी चौक की एक दूकान पर आ मिले। 
उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पडता था कि दोनों सिक्ख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया थाऔर यह रसोई के लिए बडियाँ। दुकानदार एक परदेसी से गँुथ रहा थाजो सेर-भर गीले पापडाें की गड्डी को गिने बिना हटता न था।
''तेरे घर कहाँ है?''
''मगरे मेंऔर तेरे?''
'' माँझे मेंयहाँ कहाँ रहती है?''
''अतरसिंह की बैठक मेंवे मेरे मामा होते हैं।''
''मैं भी मामा के यहाँ आया हँू उनका घर गुरूबाजार में हैं।''
इतने में दुकानदार निबटाऔर इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दूर जा कर लडक़े ने मुसकराकार पूछा, ''- तेरी कुडमाई हो गई?''
इस पर लडक़ी कुछ आँखें चढा कर धत् कह कर दौड ग़ईऔर लडक़ा मुँह देखता रह गया।
दूसरे-तीसरे दिन सब्जीवाले के यहाँदूधवाले के यहाँ अकस्मात दोनों मिल जाते। महीना-भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लडक़े ने फिर पूछातेरी कुडमाई हो गईऔर उत्तर में वही 'धत् मिला। एक दिन जब फिर लडक़े ने वैसे ही हँसी में चिढाने के लिये पूछा तो लडक़ीलडक़े की संभावना के विरूद्ध बोली - ''हाँ हो गई।''
''कब?''
''कलदेखते नहींयह रेशम से कढा हुआ सालू।''
लडक़ी भाग गई। लडक़े ने घर की राह ली। रास्ते में एक लडक़े को मोरी में ढकेल दियाएक छावडीवाले की दिन-भर की कमाई खोईएक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उडेल दिया। सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अन्धे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहँुचा।
 (दो)
''राम-रामयह भी कोई लडाई है। दिन-रात खन्दकों में बैठे हड्डियाँ अकड ग़ईं। लुधियाना से दस गुना जाडा और मेंह और बरफ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड में धँसे हुए हैं। जमीन कहीं दिखती नहीं; - घंटे-दो-घंटे में कान के परदे फाडनेवाले धमाके के साथ सारी खन्दक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पडती है।
इस गैबी गोले से बचे तो कोई लडे। नगरकोट का जलजला सुना थायहाँ दिन में पचीस जलजले होते हैं। जो कहीं खन्दक से बाहर साफा या कुहनी निकल गईतो चटाक से गोली लगती है। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं।''
''लहनासिंहऔर तीन दिन हैं। चार तो खन्दक में बिता ही दिये। परसों रिलीफ आ जायेगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका करेंगे और पेट-भर खाकर सो रहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग में -- मखमल का-सा हरा घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है। लाख कहते हैंदाम नहीं लेती। कहती हैतुम राजा हो मेरे मुल्क को बचाने आये हो।''
''चार दिन तक पलक नहीं झँपी। बिना फेरे घोडा बिगडता है और बिना लडे सिपाही। मुझे तो संगीन चढा कर मार्च का हुक्म मिल जाय। फिर सात जरमनों को अकेला मार कर न लौटँूतो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी कहीं केकलों के घोडे -- संगीन देखते ही मँुह फाड देते हैंऔर पैर पकडने लगते हैं। यों अँधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं। उस दिन धावा किया था - चार मील तक एक जर्मन नहीं छोडा था। पीछे जनरल ने हट जाने का कमान दियानहीं तो -- ''
''नहीं तो सीधे बर्लिन पहँुच जाते! क्यों?'' सूबेदार हजारसिंह ने मुसकराकर कहा -- ''लडाई के मामले जमादार या नायक के चलाये नहीं चलते। बडे अफसर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ बढ ग़ये तो क्या होगा?''
''सूबेदारजीसच है,'' लहनसिंह बोला - ''पर करें क्याहड्डियों-हड्डियों में तो जाडा धँस गया है। सूर्य निकलता नहींऔर खाई में दोनों तरफ से चम्बे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जायतो गरमी आ जाय।''
''उदमीउठसिगडी में कोले डाल। वजीरातुम चार जने बालटियाँ लेकर खाई का पानी बाहर फेंकों। महासिंह,शाम हो गई हैखाई के दरवाजे का पहरा बदल ले।'' -- यह कहते हुए सूबेदार सारी खन्दक में चक्कर लगाने लगे। 
वजीरासिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गँदला पानी भर कर खाई के बाहर फेंकता हुआ बोला - ''मैं पाधा बन गया हँू। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण !'' इस पर सब खिलखिला पडे अौर उदासी के बादल फट गये। 
लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में देकर कहा - ''अपनी बाडी क़े खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा।''
''हाँदेश क्या हैस्वर्ग है। मैं तो लडाई के बाद सरकार से दस धुमा जमीन यहाँ माँग लँूगा और फलों के बूटे लगाऊँगा।''
''लाडी होरा को भी यहाँ बुला लोगेया वही दूध पिलानेवाली फरंगी मेम -''
''चुप कर। यहाँ वालों को शरम नहीं।''
''देश-देश की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तम्बाखू नहीं पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती हैओठों में लगाना चाहती हैऔर मैं पीछे हटता हँू तो समझती है कि राजा बुरा मान गयाअब मेरे मुल्क के लिये लडेग़ा नहीं।''
''अच्छाअब बोधसिंह कैसा है?''
''अच्छा है।''
''जैसे मैं जानता ही न होऊँ ! रात-भर तुम अपने कम्बल उसे उढाते हो और आप सिगडी क़े सहारे गुजर करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकडी क़े तख्तों पर उसे सुलाते होआप कीचड में पडे रहते हो। कहीं तुम न माँदे पड ज़ाना। जाडा क्या हैमौत हैऔर निमोनिया से मरनेवालों को मुरब्बे नहीं मिला करते।''
''मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूँगा। भाई कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सीर होगा और मेरे हाथ के लगाये हुए आँगन के आम के पेड क़ी छाया होगी।''
वजीरासिंह ने त्योरी चढाकर कहा -- ''क्या मरने-मारने की बात लगाई हैमरें जर्मनी और तुरक ! हाँ भाइयों,कैसे  ़ ़ ''
 दिल्ली शहर तें पिशोर नुं जांदिए,
 कर लेणा लौंगां दा बपार मडिए;
 कर लेणा नादेडा सौदा अडिए --
 (ओय) लाणा चटाका कदुए नँु।
 कद्द बणाया वे मजेदार गोरिये,
 हुण लाणा चटाका कदुए नँु।।
कौन जानता था कि दाढियावालेघरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गायेंगेपर सारी खन्दक इस गीत से गँूज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गयेमानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों।
 (तीन)
दोपहर रात गई है। अन्धेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधासिंह खाली बिसकुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कम्बल बिछा कर और लहनासिंह के दो कम्बल और एक बरानकोट ओढ क़र सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खडा हुआ है। एक आँख खाई के मँुह पर है और एक बोधासिंह के दुबले शरीर पर। बोधासिंह कराहा।
''क्यों बोधा भाईक्या है ?''
''पानी पिला दो।''
लहनासिंह ने कटोरा उसके मँुह से लगा कर पूछाा -- ''कहो कैसे हो?'' पानी पी कर बोधा बोला - ''कँपनी छुट रही है। रोम-रोम में तार दौड रहे हैं। दाँत बज रहे हैं।''
''अच्छामेरी जरसी पहन लो !''
''और तुम?''
''मेरे पास सिगडी है और मुझे गर्मी लगती है। पसीना आ रहा है।''
''नामैं नहीं पहनता। चार दिन से तुम मेरे लिये --''
''हाँयाद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सबेरे ही आई है। विलायत से बुन-बुनकर भेज रही हैं मेमेंगुरू उनका भला करें।'' यों कह कर लहना अपना कोट उतार कर जरसी उतारने लगा।
''सच कहते हो?''
''और नहीं झूठ?'' यों कह कर नहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहन-कर पहरे पर आ खडा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी।

आधा घण्टा बीता। इतने में खाई के मँुह से आवाज आई - ''सूबेदार हजारासिंह।''
''कौन लपटन साहबहुक्म हुजूर !'' - कह कर सूबेदार तन कर फौजी सलाम करके सामने हुआ।

''देखोइसी समय धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाई है। उसमें पचास से जियादह जर्मन नहीं हैं। इन पेडाें के नीचे-नीचे दो खेत काट कर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहाँ मोड है वहाँ पन्द्रह जवान खडे क़र आया हँू। तुम यहाँ दस आदमी छोड क़र सब को साथ ले उनसे जा मिलो। खन्दक छीन कर वहींजब तक दूसरा हुक्म न मिलेडटे रहो। हम यहाँ रहेगा।'' 
''जो हुक्म।'' 
चुपचाप सब तैयार हो गये। बोधा भी कम्बल उतार कर चलने लगा। तब लहनासिंह ने उसे रोका। लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उँगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहनासिंह समझ कर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहेंइस पर बडी हुज्जत हुई। कोई रहना न चाहता था। समझा-बुझाकर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहना की सिगडी क़े पास मँुह फेर कर खडे हो गये और जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगे। दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढा कर कहा -- ''लो तुम भी पियो।''
आँख मारते-मारते लहनासिंह सब समझ गया। मुँह का भाव छिपा कर बोला -- ''लाओ साहब।''हाथ आगे करते ही उसने सिगडी क़े उजाले में साहब का मँुह देखा। बाल देखे। तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में ही कहाँ उड ग़ये और उनकी जगह कैदियों से कटे बाल कहाँ से आ गये?''
शायद साहब शराब पिये हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया हैलहनासिंह ने जाँचना चाहा। लपटन साहब पाँच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे।
''क्यों साहबहमलोग हिन्दुस्तान कब जायेंगे?''
''लडाई खत्म होने पर। क्योंक्या यह देश पसन्द नहीं ?''
''नहीं साहबशिकार के वे मजे यहाँ कहाँयाद हैपारसाल नकली लडाई के पीछे हम आप जगाधरी जिले में शिकार करने गये थे -
हाँ- हाँ -- वहीं जब आप खोते पर सवार थे और और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मन्दिर में जल चढने को रह गया थाबेशक पाजी कहीं का - सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बडी मैंने कभी न देखी थीं। और आपकी एक गोली कन्धे में लगी और पुट्ठे में निकली। ऐसे अफसर के साथ शिकार खेलने में मजा है। क्यों साहबशिमले से तैयार होकर उस नील गाय का सिर आ गया था नआपने कहा था कि रेजमेंट की मैस में लगायेंगे। हां पर मैंने वह विलायत भेज दिया - ऐसे बडे-बडे सींग! दो-दो फुट के तो होंगे?''
''हाँलहनासिंहदो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया?''
''पीता हँू साहबदियासलाई ले आता हँू'' -- कह कर लहनासिंह खन्दक में घुसा। अब उसे सन्देह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए।
अंधेरे में किसी सोने वाले से वह टकराया।
''कौन वजीरसिंह?'' 
''हांक्यों लहनाक्या कयामत आ गईजरा तो आँख लगने दी होती?'' 
 (चार)
''होश में आओ। कयामत आई और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है।'' 
''क्या?''
''लपटन साहब या तो मारे गये है या कैद हो गये हैं। उनकी वर्दी पहन कर यह कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा और बातें की है। सोहरा साफ उर्दू बोलता हैपर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है?''
''तो अब!''
''अब मारे गये। धोखा है। सूबेदार होराकीचड में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा। उठोएक काम करो। पल्टन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड ज़ाओ। अभी बहुत दूर न गये होंगे।
सूबेदार से कहो एकदम लौट आयें। खन्दक की बात झूठ है। चले जाओखन्दक के पीछे से निकल जाओ। पत्ता तक न खडक़े। देर मत करो।''
''हुकुम तो यह है कि यहीं - ''
''ऐसी तैसी हुकुम की ! मेरा हुकुम -- जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सब से बडा अफसर हैउसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की खबर लेता हँू।''
''पर यहाँ तो तुम आठ है।''
''आठ नहींदस लाख। एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।''
लौट कर खाई के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खन्दक की दीवारों में घुसेड दिया और तीनों में एक तार सा बांध दिया।तार के आगे सूत की एक गुत्थी थीजिसे सिगडी क़े पास रखा। बाहर की तरफ जाकर एक दियासलाई जला कर गुत्थी पर रखने--
बिजली की तरह दोनों हाथों से उल्टी बन्दुक को उठा कर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तान कर दे मारा। धमाके के साथ सााहब के हाथ से दियासलाई गिर पडी। लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा और साहब आँख ! मीन गौट्ट कहते हुए चित्त हो गये। लहनासिंह ने तीनों गोले बीन कर खन्दक के बाहर फेंके और साहब को घसीट कर सिगडी क़े पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार लिफाफे और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया।
साहब की मूर्छा हटी। लहनासिंह हँस कर बोला -- ''क्यों लपटन साहबमिजाज कैसा हैआज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नील गायें होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढाते हैं
और लपटन साहब खोते पर चढते हैं। पर यह तो कहोऐसी साफ उर्दू कहाँ से सीख आये?हमारे लपटन साहब तो बिन डेम के पाँच लफ्ज भी नहीं बोला करते थे।''
लहना ने पतलून के जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाडे से बचने के लिएदोनों हाथ जेबों में डाले। 
लहनासिंह कहता गया -- ''चालाक तो बडे हो पर माँझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिये चार आँखें चाहिये। तीन महिने हुए एक तुरकी मौलवी मेरे गाँव आया था। औरतों को बच्चे होने के ताबीज बाँटता था और बच्चों को दवाई देता था। चौधरी के बड क़े नीचे मंजा बिछा कर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनीवाले बडे पंडित हैं। वेद पढ-पढ क़र उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गये हैं। गौ को नहीं मारते। हिन्दुस्तान में आ जायेंगे तो गोहत्या बन्द कर देंगे। मंडी के बनियों को बहकाता कि डाकखाने से रूपया निकाल लो। सरकार का राज्य जानेवाला है। डाक-बाबू पोल्हूराम भी डर गया था। मैंने मुल्लाजी की दाढी मूड दी थी। और गाँव से बाहर निकल कर कहा था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रक्खा तो --''
साहब की जेब में से पिस्तौल चला और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर लहना की हैनरी मार्टिन के दो फायरों ने साहब की कपाल-क्रिया कर दी। धडाका सुन कर सब दौड अाये।
बोधा चिल्लया -- ''क्या है?''
लहनासिंह ने उसे यह कह कर सुला दिया कि एक हडक़ा हुआ कुत्ता आया थामार दिया औरऔरों से सब हाल कह दिया। सब बन्दूकें लेकर तैयार हो गये। लहना ने साफा फाड क़र घाव के दोनों तरफ पट्टियाँ कस कर बाँधी। घाव मांस में ही था। पट्टियों के कसने से लहू निकलना बन्द हो गया।
इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पडे। सिक्खों की बन्दूकों की बाढ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहाँ थे आठ (लहनासिंह तक-तक कर मार रहा था - वह खडा थाऔरऔर लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाइयों के शरीर पर चढ क़र जर्मन आगे घुसे आते थे। थोडे से मिनिटों में वे --
अचानक आवाज आई वाह गुरूजी की फतहवाह गुरूजी का खालसा!! और धडाधड बन्दूकों के फायर जर्मनों की पीठ पर पडने लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों के बीच में आ गये। पीछे से सूबेदार हजारसिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया।
एक किलकारी और -- अकाल सिक्खाँ दी फौज आई ! वाह गुरूजी दी फतह ! वाह गुरूजी दा खालसा ! सत श्री अकालपुरूख !!!  और लडाई खतम हो गई। तिरेसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिक्खों में पन्द्रह के प्राण गये। सूबेदार के दाहिने कन्धे में से गोली आरपार निकल गई। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव को खन्दक की गीली मट्टी से पूर लिया और बाकी का साफा कस कर कमरबन्द की तरह लपेट लिया। किसी को खबर न हुई कि लहना को दूसरा घाव - भारी घाव लगा है।
लडाई के समय चाँद निकल आया थाऐसा चाँदजिसके प्रकाश से संस्कृत-कवियों का दिया हुआ क्षयी नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी वाणभट्ट की भाषा में 'दन्तवीणोपदेशाचार्य कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मन भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थीजब मैं दौडा-दौडा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और कागजात पाकर वे उसकी तुरत-बुध्दि को सराह रहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते।
इस लडाई की आवाज तीन मील दाहिनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी। उन्होंने पीछे टेलीफोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डाक्टर और दो बीमार ढोने की गाडियाँ चलींजो कोई डेढ घण्टे के अन्दार-अन्दर आ पहँुची। फील्ड अस्पताल नजदीक था। सुबह होते-होते वहाँ पहँुच जायेंगेइसलिये मामूली पट्टी बाँधकर एक गाडी में घायल लिटाये गये और दूसरी में लाशें रक्खी गईं। सूबेदार ने लहनासिंह की जाँघ में पट्टी बँधवानी चाही। पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोडा घाव है सबेरे देखा जायेगा। बोधासिंह ज्वर में बर्रा रहा था। वह गाडी में लिटाया गया। लहना को छोड क़र सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा -- ''तुम्हें बोधा की कसम हैऔर सूबेदारनीजी की सौगन्ध है जो इस गाडी में न चले जाओ।''
''और तुम?''
''मेरे लिये वहाँ पहँुचकर गाडी भेज देनाऔर जर्मन मुरदों के लिये भी तो गाडियाँ आती होंगी। मेरा हाल बुरा नहीं है। देखते नहींमैं खडा हँूवजीरासिंह मेरे पास है ही।''
''अच्छापर --''
''बोधा गाडी पर लेट गयाभला। आप भी चढ ज़ाओ। सुनिये तोसूबेदारनी होरां को चिठ्ठी लिखोतो मेरा मत्था टेकना लिख देना। और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उसने कहा था वह मैंने कर दिया।''
गाडियाँ चल पडी थीं। सूबेदार ने चढते-चढते लहना का हाथ पकड क़र कहा -- ''तैने मेरे और बोधा के प्राण बचाये हैं। लिखना कैसासाथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी को तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?''
''अब आप गाडी पर चढ ज़ाओ। मैंने जो कहावह लिख देनाऔर कह भी देना।''
गाडी क़े जाते लहना लेट गया। - ''वजीरा पानी पिला देऔर मेरा कमरबन्द खोल दे। तर हो रहा है।''
मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्म-भर की घटनायें एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते हैं। समय की धुन्ध बिल्कुल उन पर से हट जाती है।
लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दहीवाले के यहाँसब्जीवाले के यहाँहर कहींउसे एक आठ वर्ष की लडक़ी मिल जाती है। जब वह पूछता हैतेरी कुडमाई हो गईतब धत् कह कर वह भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछातो उसने कहा - ''हाँकल हो गईदेखते नहीं यह रेशम के फूलोंवाला सालूसुनते ही लहनासिंह को दुःख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?
''वजीरासिंहपानी पिला दे।''

पचीस वर्ष बीत गये। अब लहनासिंह नं  77 रैफल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा। न-मालूम वह कभी मिली थीया नहीं। सात दिन की छुट्टी लेकर जमीन के मुकदमें की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रेजिमेंट के अफसर की चिठ्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती हैफौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चिठ्ठी मिली कि मैं और बोधसिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुए हमारे घर होते जाना। साथ ही चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पडता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहँुचा।
जब चलने लगेतब सूबेदार बेढे में से निकल कर आया। बोला -
''लहनासूबेदारनी तुमको जानती हैंबुलाती हैं। जा मिल आ।'' लहनासिंह भीतर पहँुचा। सूबेदारनी मुझे जानती हैंकब सेरेजिमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाजे पर जा कर मत्था टेकना कहा। असीस सुनी। लहनासिंह चुप।
मुझे पहचाना?''
''नहीं।''
तेरी कुडमाई हो गई -धत् -कल हो गई- देखते नहींरेशमी बूटोंवाला सालू -अमृतसर में - 
भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।
वजीरा पानी पिला - उसने कहा था।
स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है - ''मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हँू। मेरे तो भाग फूट गये। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया हैलायलपुर में जमीन दी हैआज नमक-हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घँघरिया पल्टन क्यों न बना दीजो मैं भी सूबेदारजी के साथ चली जातीएक बेटा है। फौज में भर्ती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार और हुएपर एक भी नहीं जिया। सूबेदारनी रोने लगी। अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग ! तुम्हें याद हैएक दिन टाँगेवाले का घोडा दहीवाले की दूकान के पास बिगड ग़या था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थेआप घोडे क़ी लातों में चले गये थेऔर मुझे उठा-कर दूकान के तख्ते पर खडा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे आँचल पसारती हँू।
रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई। लहना भी आँसू पोंछता हुआ बाहर आया।
'वजीरासिंहपानी पिला -- उसने कहा था।
लहना का सिर अपनी गोद में रक्खे वजीरासिंह बैठा है। जब माँगता हैतब पानी पिला देता है। आध घण्टे तक लहना चुप रहाफिर बोला -- ''कौन ! कीरतसिंह, ?''
वजीरा ने कुछ समझकर कहा -- ''हाँ।''
''भइयामुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।'' वजीरा ने वैसे ही किया।
''हाँअब ठीक है। पानी पिला दे। बसअब के हाड में यह आम खूब फलेगा। चचा-भतीजा दोनों यहीं बैठ कर आम खाना। जितना बडा तेरा भतीजा हैउतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ थाउसी महीने में मैंने इसे लगाया था।''
वजीरासिंह के आँसू टप-टप टपक रहे थे।

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